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क्यों आज भी बेटियां ‘वारिस’ नहीं? (Why Daughters are not considered as Heir?)

क्यों उसके जन्म की ख़ुशी ग़म में बदल दी जाती है, क्यों बधाइयों की जगह लोग अफ़सोस ज़ाहिर कर चले जाते हैं, क्यों उसकी मासूम-सी मुस्कान किसी और के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच देती हैं? आख़िर वो भी तो एक संतान ही है, फिर क्यों उसे लड़का न होने की सज़ा मिली? बेटे-बेटी के बीच का यह भेदभाव आख़िर कब तक चलेगा? आज भी ऐसे कई अनगिनत सवाल वो बेटियां करती हैं, जिन्हें परिवार में एक बेटी का सम्मान नहीं मिला. क्या परिवार का वारिस स़िर्फ एक बेटा ही बन सकता है? क्यों आज भी बेटियां वारिस नहीं? समाज की इसी सोच को समझने की हमने यहां कोशिश की है.

daughters वारिस शब्द का अर्थ शब्दकोष के अनुसार- वारिस शब्द का अर्थ उत्तराधिकारी या मृत जन की संपत्ति का अधिकारी होता है. सामाजिक अर्थ- वारिस वह है, जो परिवार का वंश बढ़ाए और परिवार के नाम को आगे ले जाए, जो सामाजिक मान्यता के अनुसार लड़के ही कर सकते हैं, क्योंकि लड़कियां पराया धन होती हैं और शादी करके दूसरों की वंशवृद्धि करती हैं, इसलिए वो वारिस नहीं मानी जातीं. सार्थक शब्दार्थ- वारिस शब्द का मतलब है- ‘वहन करनेवाला’. बच्चों को माता-पिता का वारिस इसलिए कहते हैं, क्योंकि वो उनके संस्कारों का, अधिकारों का, कर्त्तव्यों का वहन करते हैं और ये सब काम लड़कियां भी कर सकती हैं. सही मायने में इस शब्द की यही व्याख्या होनी चाहिए और आज हमें इस सोच को अपनाने की ज़रूरत है.

वारिस के रूप में बेटा ही क्यों? इसके पीछे कई आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और भावनात्मक कारण हैं- *    बुढ़ापे में बेटा आर्थिक सहारे के साथ-साथ भावनात्मक सहारा भी देता है, जबकि बेटियां शादी करके दूसरे के घर चली जाती हैं. *    बेटे परिवार की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने में सहयोग देते हैं और प्रॉपर्टी में इज़ाफ़ा करते हैं, जबकि बेटियों को दहेज देना पड़ता है, जिससे घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है. *    बेटे वंश को आगे बढ़ाते हैं, जबकि बेटियां किसी और का परिवार बढ़ाती हैं. *    हमारे समाज में माता-पिता के जीते जी और मरने के बाद भी बेटे कई धार्मिक संस्कार निभाते हैं, जिसकी इजाज़त धर्म ने बेटियों को नहीं दी है. *    बेटे परिवार के मान-सम्मान को बढ़ाते हैं और परिवार की ताक़त बढ़ाते हैं, जबकि बेटियों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी घरवालों पर होती है. *    प्रॉपर्टी और फाइनेंस जैसी बातें स़िर्फ पुरुषोें से जोड़कर देखी जाती हैं, लड़कियों को इसके लिए समर्थ नहीं समझा जाता. *    कुछ धार्मिक मान्यताओं के अनुसार बेटा ही माता-पिता को स्वर्ग के द्वार पार कराता है, इसीलिए ज़्यादातर लोग बेटों की ही चाह रखते हैं. *    बेटे के बिना परिवार अधूरा माना जाता है.

क्या कहते हैं आंकड़े? *    इस साल हुए एक सर्वे में पता चला है कि चाइल्ड सेक्स रेशियो पिछले 70 सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है, जहां 1000 लड़कों पर महज़ 918 लड़कियां रह गई हैं. *    एक्सपर्ट्स के मुताबिक़, अगर स्थिति को संभाला न गया, तो 2040 तक भारत में लगभग 23 मिलियन महिलाओं की कमी हो जाएगी. *    कन्या भ्रूण हत्या का सबसे बड़ा कारण वारिसवाली सोच ही है. *    इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे, यूनिवर्सिटी ऑफ मैरिलैंड और नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए सर्वे में यह बात सामने आई है कि 77% भारतीय आज भी बुढ़ापे में बेटी की बजाय बेटे के घर रहना पसंद करते हैं. शायद इसके पीछे का कारण हमारी परंपरागत सोच है, जो कहती है कि बेटियों के घर का पानी भी नहीं पीना चाहिए. *    ऐसा बिल्कुल नहीं है कि यह भेदभाव अनपढ़ और ग़रीब तबके के लोगों के बीच है, बल्कि सुशिक्षित व अमीर घरों में भी यह उतना ही देखा जाता है.

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 सोच बदलने की ज़रूरत है *    जब ज़माने के साथ हमारी लाइफस्टाइल बदल रही है, हमारा खानपान बदल रहा है, हमारी सोच बदल रही, तो भला शब्दों के अर्थ वही क्यों रहें? क्या यह सही समय नहीं है, सही मायने में लड़कियों को समानता का अधिकार देने का? *    वैसे भी हमारे देश का क़ानून भी समानता का पक्षधर है, तभी तो लड़कियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त है. पर क्या यह काफ़ी है, शायद नहीं. क्योेंकि भले ही इस अधिकार को क़ानूनी जामा पहना दिया गया है, पर क्या इस पर अमल करना इतना आसान है? ऐसे कई मामले देखने को मिलते हैं, जब अपना हक़ लेनेवाली बेटियों से परिवार के लोग ही नाते-रिश्ते तोड़ लेते हैं. *    समाज में ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत हैं, जहां लड़कियां अपने माता-पिता की सेवा व देखभाल की ख़ातिर अपनी ख़ुशियों को तवज्जो नहीं देतीं, तो क्या ऐसे में उनका वारिस कहा जाना ग़लत है? *    हम हमेशा समाज की दुहाई देते हैं, पर जब बदलाव होते हैं, तो सहजता से हर कोई उसे स्वीकार्य कर ले, यह ज़रूरी तो नहीं. पर क्या ऐसे में परिवर्तन नहीं होते? बदलाव तो होते ही रहे हैं और होते रहेंगे. हम क्यों भूल जाते हैं कि समाज हमीं से बनता है, अगर हम इस ओर पहल करेंगे, तो दूसरे भी इस बात को समझेंगे. *    बेटियों को लेकर हमेशा से ही हमारे समाज में दोहरा मापदंड अपनाया जाता रहा है. जहां एक ओर लोग मंच पर महिला मुक्ति और सशक्तिकरण के नारे लगाते हैं, वहीं घर में बेटियों को मान-सम्मान नहीं दिया जाता. *  कई जगहों पर अभी भी बच्चों की परवरिश इस तरह की जाती है कि उनमें बचपन से लड़का-लड़कीवाली बात घर कर जाती है. *    हमारे समाज की यह भी एक विडंबना है कि सभी को मां चाहिए, पत्नी चाहिए, बहन चाहिए, पर बेटी नहीं चाहिए. अब भला आप ही सोचें, अगर बेटी ही न होगी, तो ये सब रिश्ते कहां से आएंगे. *    बेटों को बुढ़ापे का सहारा बनाने की बजाय सभी को अपना रिटायरमेंट सही समय पर प्लान करना चाहिए, ताकि किसी पर आश्रित न रहना पड़े.

रंग लाती सरकारी मुहिम *    प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस ओर एक सकारात्मक पहल की है. ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के साथ वो देश में लड़कियों की स्थिति मज़बूत करना चाहते हैं, जो हमारे भविष्य के लिए बहुत ज़रूरी है. *    कुछ महीने पहले मोदीजी ने ट्विटर पर ‘सेल्फी विद डॉटर’ मुहिम भी शुरू की, ताकि लोग बेटियों की महत्ता को समझें. *    पिछले साल ‘सुकन्या समृद्धि’ नामक लघु बचत योजना की शुरुआत की गई, ताकि बेटियों की उच्च शिक्षा और शादी-ब्याह में किसी तरह की परेशानी न आए. *    कन्या भ्रूण हत्या के विरोध और बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार ने 2008 में ‘धनलक्ष्मी योजना’ शुरू की थी, जिसमें 18 की उम्र के बाद शादी किए जाने पर सरकार की ओर से  1 लाख की बीमा राशि देने का प्रावधान है. *    महाराष्ट्र सरकार की ‘माझी कन्या भाग्यश्री योजना’ ख़ासतौर से ग़रीबी रेखा के नीचे रहनेवाले परिवारों के लिए है, जिसमें बच्ची के 18 साल की होने पर सरकार की ओर से  1 लाख मिलते हैं. *    राजस्थान सरकार ने बेटियों के जन्म को प्रोत्साहित करने के लिए ‘मुख्यमंत्री शुभलक्ष्मी योजना’ की शुरुआत की थी. इसके तहत बालिका के जन्म पर, टीकाकरण के लिए, स्कूल में दाख़िले के लिए मां को कुल  7300 मिलते हैं. * जम्मू-कश्मीर सरकार की ‘लाडली बेटी योजना’ भी गरीब परिवार की बेटियों के लिए है, जो हर महीने बेटी के खाते में 1000 जमा करते हैं और 21 साल पूरे होने पर साढ़े छह लाख रुपए एकमुश्त देते हैं. * हिमाचल सरकार की ‘बेटी है अनमोल योजना’ के तहत बेटी के जन्म पर उसके खाते में  1 लाख की रक़म जमा की जाती है और बेटियों की 12वीं तक की शिक्षा के लिए सरकार  300 से 1200 की स्कॉलरशिप भी देती है. *    मध्य प्रदेश सरकार की ‘लाडली लक्ष्मी योजना’ भी इसी कड़ी में शामिल है. बेटियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उसकी शिक्षा के दौरान समय-समय पर स्कॉलरशिप दी जाती है.

कुछ ऐसे भी मामले देखने को मिलते हैं -  तीसरी बेटी के जन्म की ख़बर सुनकर एक पिता ने अपना सिर मुंडवा लिया था और कई दिनों तक घर में उदासी का माहौल रहा. -   लोअर मिडल क्लास के 40 वर्षीया कपल ने सातवीं बेटी के जन्म के बाद भी बेटे की उम्मीद में आठवीं बेटी को जन्म दिया. -    दूसरी बेटी के जन्म की ख़बर सुनकर पति बिना पत्नी और बच्ची को देखे घर चला गया. ये मामले हमारे इसी समाज से हैं और आज भी बदस्तूर जारी हैं. ऐसे लोगों को समझना होगा कि बेटियों को बेटों से कमतर न आंकें, क्योंकि बेटियां भी अपने माता-पिता के वो सारे कर्त्तव्य पूरे कर रही हैं, जिनकी उम्मीद बेटों से की जाती है और जिसके लिए लोग बेटों की चाह रखते हैं.

- अनीता सिंह              

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