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कहानी- दिल के दायरे (Short Story- Dil Ke Dayare)

 

“प्यार शादीशुदा या कुंवारा देखकर तो नहीं किया जाता. बस, हो जाता है. सो हो गया.” मैंने भी दृढ़ता से कहा.
“पर आप जो करना चाहती हैं, वो प्यार नहीं, स्वार्थ है.”
“अगर आपकी नज़रों में यह स्वार्थ है, तो स्वार्थ ही सही. मैं जिससे प्यार करती हूं, उसके साथ रहना चाहती हूं. आप ख़ुद सोचिए कि जो आदमी आपसे प्यार तक नहीं करता, आप उसे बांधे रखना चाहती हैं, तो स्वार्थी कौन हुआ? आप या मैं?” मैंने बड़े गर्व से इतराते हुए तर्क दिया.

दिल को क्यों दायरों में जीना पड़ता है और जब इतने दायरे हैं, तो जीना कैसा? न जाने क्यों आज रह-रहकर बीता व़क्त यादों को छेड़ रहा है. आज सोचती हूं कि कुछ कहानियां अधूरी ही रहें तो बेहतर है… जैसे मेरी कहानी… आज देव का ईमेल मिला, पढ़कर सुकून हुआ कि मैंने सही समय पर उचित निर्णय लिया.
इंसान से ग़लतियां होती ही हैं, लेकिन क्या बुरा है कि समय रहते ग़लतियों को पहचानकर ठीक कर लिया जाए? मुझसे भी ऐसी ही भूल हुई थी. आज याद करती हूं, तो अपने बचपने पर हंसी भी आती है और रोना भी.
अपने पापा का बिज़नेस संभालती थी मैं. उन्हीं दिनों देव मेरी ज़िंदगी में आए. बेहद सहज, संतुलित और मेहनती थे वो. यही वजह थी कि पापा ने उन्हें बिज़नेस पार्टनर बना लिया था. उनकी हर बात मुझे लुभाती थी. एक दिन हम साथ में लंच कर रहे थे और प्यार-मुहब्बत की फिलोसफी पर चर्चा छिड़ गई.
देव ने कहा, “प्यार का मतलब ही होता है त्याग, बलिदान, निस्वार्थ भाव से किसी के लिए कुछ करना…!”
“बाप रे! इतने भारी-भरकम शब्दों का बोझ रखकर भला कोई प्यार कैसे कर सकता है? मैं तो बस इतना जानती हूं कि ज़िंदगी एक ही बार मिलती है… जी भरके जीयो… दिल खोलकर प्यार करो… मेरे लिए प्यार का मतलब है हासिल करना. जिसे चाहो, उसे हर क़ीमत पर हासिल करो. और फिर हमारे बड़े-बुज़ुर्ग यूं ही नहीं कह गए हैं कि प्यार और जंग में सब जायज़ है.”
मेरा यह अंदाज़ देखकर देव थोड़े हैरान थे. अपने पापा की इकलौती लाडली बिटिया थी मैं. जब जो चाहा, वो मिला. हारना तो सीखा ही नहीं था मैंने. समझौता करने की कभी नौबत नहीं आई. ज़िंदगी बेहद आसान और हसीं थी. उस पर देव का मेरी ज़िंदगी में आना सपने की तरह था. मैं देव की तरफ़ आकर्षित तो थी ही, न जाने कब उनसे बेहद प्यार भी करने लगी थी. हालांकि हम दोनों ही एक-दूसरे से बेहद अलग थे. वो किसी शांत समंदर की तरह, सुलझे हुए परिपक्व, लेकिन हंसमुख इंसान थे और मैं लहरों की तरह शोख़-चंचल थी. उन्हें देखते ही अजीब-सी कशिश महसूस होती थी. आंखों में कई रंगीन सपने पलने लगे थे, लेकिन ख़ुद ही बीच-बीच में आंख खोलकर सपनों की दुनिया से बाहर आने की नाकाम कोशिश भी करती.
“रश्मि, ये पीला रंग तुम पर बहुत प्यारा लगता है…” यही कहा था देव ने ऑफिस की पार्टी में मुझे पीले रंग की साड़ी में देखकर. उनकी वो प्यारभरी नज़रें मैं आज तक नहीं भुला सकी हूं.
बस, फिर तो बातों, मुलाक़ातों और कॉम्प्लीमेंट्स का सिलसिला जो शुरू हुआ, वो मुहब्बत के इज़हार पर आकर ही अपने अंजाम तक पहुंचा. लेकिन इस प्यार का अंजाम न कभी मैंने सोचा, न देव ने.
“देव, तुम जानते हो न कि हम क्या कर रहे हैं? तुम शादीशुदा हो. दो बच्चे हैं तुम्हारे. ऐसे में हमारा यह रिश्ता? क्या भविष्य होगा इस रिश्ते का?” मैंने एक दिन घबराकर पूछा.
“रश्मि, क्या स़िर्फ इतना काफ़ी नहीं कि हम दोनों एक-दूसरे को बेइंतहा चाहते हैं? क्यों भूत-भविष्य की चिंता में प्यार के इन ख़ूबसूरत पलों को बर्बाद करें? वैसे भी हमने अब तक अपनी मर्यादाओं को नहीं तोड़ा है और तुम यह भी जानती हो कि रेखा से मेरी शादी किन हालात में हुई.” देव ने बड़े आराम से जवाब दिया.
“तुम्हारा मतलब क्या है देव? कहीं तुम इस ग़लतफ़हमी में तो नहीं हो कि मैं ज़िंदगीभर यूं ही तुम्हारे साथ रहूंगी और तुम एक तरफ़ अपनी गृहस्थी भी चलाते रहोगे और मुझसे प्यार भी करते रहोगे? और मर्यादाएं कब तक रहेंगी? क्या पता किन्हीं कमज़ोर पलों में हम अपनी सीमाएं भूल जाएं?”
“तुम ठीक कह रही हो, लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं?”
“तुम रेखा से तलाक़ क्यों नहीं ले लेते, जब हम प्यार करते हैं, तो हमें शादी करके साथ रहना चाहिए.” मैंने गंभीरता से कहा.
“रश्मि, तुम जानती भी हो कि क्या कह रही हो? रेखा तो हमारे बारे में जानती तक नहीं और इसमें उसका क्या दोष? सारी परिस्थितियों को जानने के बाद भी हमने प्यार किया, तो अब इस प्यार के जो भी साइड इफेक्ट्स हैं, वो हम
झेलेंगे, रेखा क्यों सहे? उसके प्रति मेरी ज़िम्मेदारी व जवाबदेही बनती है.”
“देव, अगर इतनी ही सहानुभूति हो रही है रेखा से, तो मुझसे अभी रिश्ता तोड़ दो, क्योंकि मैं किसी साइड इफेक्ट में विश्‍वास नहीं रखती. फैसला तुम्हें करना है.” मैंने अपना निर्णय देव को सुना दिया और चली गई.
बहुत बेचैन हो गई थी मैं देव की बातों से. पूरी दुनिया में क्या देव ही बचे थे प्यार करने के लिए? आख़िर क्यों मुझे ऐसे इंसान से प्यार हुआ, जिसके साथ मैं चाहकर भी रह नहीं सकती…? ख़्वाहिशों, चाहतों, हसरतों की तो हदें नहीं होतीं… मुहब्बत इन तमाम इंसानी दायरों से बेफ़िक्र होती है… आज़ाद होती है… स्वच्छंद होती है… पूरी तरह से अल्हड़ और अपनी शर्तों पर जीनेवाली. ख़ैर, अगले दिन देव को टूर पर जाना था. उसने स़िर्फ फोन पर इतना ही कहा कि मैं शांत मन से सोचूं और सही समय का इंतज़ार करूं. लेकिन मैं कहां माननेवाली थी. मैंने मौ़के का फ़ायदा उठाया और फ़ौरन रेखा से मिलने चली गई. रेखा को मैंने बिना झिझके सब कुछ साफ़-साफ़ बता दिया. रेखा भावशून्य होकर सब सुनती रही और मैं वहां से चली आई.


अगले दिन रेखा मुझसे मिलने आई और अपनी तरफ़ से उसने मुझे समझाने की हर मुमकिन कोशिश की.
मैंने उससे यही कहा, “मुझे इन सब बातों से बोर मत करो और इस सच को मान लो कि देव और मैं एक-दूसरे से बहुत प्यार करते हैं.”
“मैं आपके और उनके प्यार को समझ सकती हूं, क्योंकि मेरी उनसे शादी उनकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हुई थी, लेकिन शादी के बाद उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारियों से कभी भी मुंह नहीं फेरा. वो एक नेक इंसान हैं. लेकिन फिर भी आज की हक़ीक़त तो यही है न कि वो शादीशुदा हैं और आप एक शादीशुदा आदमी से कैसे प्यार कर सकती हैं?” रेखा ने नम आंखों से आहतभरे स्वर में कहा.
“प्यार शादीशुदा या कुंवारा देखकर तो नहीं किया जाता. बस, हो जाता है. सो हो गया.” मैंने भी दृढ़ता से कहा.
“पर आप जो करना चाहती हैं, वो प्यार नहीं, स्वार्थ है.”
“अगर आपकी नज़रों में यह स्वार्थ है, तो स्वार्थ ही सही. मैं जिससे प्यार करती हूं, उसके साथ रहना चाहती हूं. आप ख़ुद सोचिए कि जो आदमी आपसे प्यार तक नहीं करता, आप उसे बांधे रखना चाहती हैं, तो स्वार्थी कौन हुआ? आप या मैं?” मैंने बड़े गर्व से इतराते हुए तर्क दिया.
“मेरे बच्चों के बारे में तो सोचिए, आप भी एक औरत हैं. प्यार तो त्याग का ही दूसरा नाम है.”
“ये त्याग-व्याग के इमोशनल चक्कर में मुझे न ही फंसाएं, तो अच्छा होगा. आप यहां से जा सकती हैं.” मुझ पर न उसके आंसुओं का असर हो रहा था, न उसकी मिन्नतों का.
आज सोचती हूं, तो घृणा होती है ख़ुद से. कैसे मैं इतनी स्वार्थी हो सकती हूं.
ख़ैर, देव जब लौटे, तो सब कुछ जानने के बाद मुझ पर ग़ुस्सा भी हुए. लेकिन रेखा ने ख़ुद ही अलग होने का फैसला कर लिया था. मैं रेखा का फैसला जानकर बेहद ख़ुश थी और मुझे अपनी जीत पर बड़ा ही फ़ख्र महसूस हो रहा था.
लेकिन देव ने एकदम से मुझसे दूरी बना ली थी. मुझे न जाने क्यों वो नज़रअंदाज़ करने लगे थे. इसी बीच रेखा मुझसे मिलने आई. ज़्यादा कुछ नहीं कहा उसने, बस एक लिस्ट थमा दी कि देव को क्या पसंद है, क्या नापसंद… घर पर किस तरह से रहना अच्छा लगता है, किस बात से उन्हें चिढ़ होती है, किस बात से ख़ुशी आदि…
मैं हैरान हुई कि भला रेखा मेरी मदद क्यों करना चाहती है, पर मैंने उसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया.
मैंने सोचा देव को थोड़ा स्पेस देना ज़रूरी है. शायद मुझसे नाराज़गी दूर हो जाए, तो वो ख़ुद-ब-ख़ुद हमारी शादी की बात करें. इसी बीच मुझे और देव को बिज़नेस ट्रिप पर जाना पड़ा. मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, सोचा इसी बहाने हम क़रीब रहेंगे, तो देव मान जाएंगे. स्विट्ज़रलैंड की ख़ूबसूरत वादियां और देव का साथ. मुझे इससे अच्छा मौक़ा और कोई नहीं लगा देव को शादी के लिए प्रपोज़ करने का.
मौक़ा पाकर मैं देव को कैंडल लाइट डिनर पर ले गई और वहीं उनसे पूछा, “देव, मुझसे शादी करोगे?”
“नहीं रश्मि, कभी नहीं.”
मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई थी देव के इस जवाब से. ख़ुद को संभालते हुए मैंने कारण जानना चाहा, तो देव ने जो कुछ भी कहा उस पर मैं विश्‍वास नहीं कर पाई, “रश्मि, यह सच है कि हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन यह भी सच है कि मैं शादीशुदा हूं. मेरी पत्नी और बच्चे मेरी ज़िम्मेदारी हैं. उन्हें मझधार में छोड़कर तुम्हारे साथ नई ज़िंदगी की मैं कल्पना तक नहीं कर सकता. मैंने तुम्हें पहले भी कहा था कि मेरे लिए प्यार का मतलब निस्वार्थ भाव, त्याग और समर्पण है.”
ख़ैर, हम बिज़नेस टूर से वापस आए. देव और मैं काम में बिज़ी हो गए थे. दिनभर हम ऑफिस में साथ रहते, बातें करते, पर कहीं न कहीं अंदर से देव टूट रहे थे. उनकी हंसी कहीं खो गई थी जैसे. इसी बीच मुझे याद आया कि रेखा ने एक लिस्ट और चिट्ठी दी थी. मैंने उसे अब तक खोलकर पढ़ा तक नहीं था. घर जाकर वो लिस्ट देखी, तो मैंने अगले ही दिन से देव को कभी उनका मनपसंद खाना बनाकर, तो कभी छोटा-सा सरप्राइज़ देकर ख़ुश रखने की कोशिश की. मैं हैरान थी कि वो सारी चीज़ें सच में काम कर रही थीं. लेकिन कुछ पल के लिए. बाद में फिर से एक अजीब-सी उदासी उन्हें घेर लेती.
मैंने लाख कोशिश की, तो एक दिन वो बोले. “रश्मि, बच्चों की बहुत याद आती है. मैं उनसे मिलना चाहता हूं. न जाने रेखा मुझे उनसे मिलने देगी या नहीं.”
देव की उदासी देखकर मैं रेखा के पास गई और उससे इजाज़त लेकर बच्चों को ले आई. रेखा ने बिना आनाकानी किए बच्चों को मेरे साथ भेज भी दिया. देव उस दिन बहुत ख़ुश हुए. उनके चेहरे की रौनक़ देखकर ही मैं बेहद हैरान थी. अगले दिन भी खिले-खिले, चहकते रहे. बच्चों के साथ पूरा दिन बिताया हमने, देव तो जैसे ख़ुद ही बच्चे बन गए थे बच्चों के साथ.
मुझे लगा कि ये देव न जाने कहां खोया हुआ था इतने समय से. मेरे साथ तो जैसे स़िर्फ उनका शरीर रह रहा था, उनकी आत्मा तो शायद अपने बच्चों में बसी थी. और मैं जिस देव से प्यार करती थी, वो ऐसे ही थे. हंसते हुए, मुस्कुराते हुए. शायद पहली बार मेरे मन में कुछ मर-सा गया था. न जाने क्यों यह एहसास हो रहा था कि कहीं कुछ ग़लत तो नहीं हुआ? आख़िर देव को पाने की कोशिश में क्या हासिल हुआ मुझे? मैंने तो उन्हें पाकर भी खो दिया.
पर इसमें मेरा क्या दोष? ये तो ख़ुद उन्हें सोचना चाहिए था. शादीशुदा होकर मुझसे प्यार क्यों किया? लेकिन फिर अपना ही तर्क याद आ गया, जो मैंने रेखा को दिया था कि प्यार शादीशुदा या कुंवारा देखकर तो नहीं किया जाता.
उस रात मुझे नींद नहीं आई. सारी रात सोचती रही. ये क्या हाल कर दिया मैंने देव का? उनके बच्चों की वो मासूम मुस्कान बार-बार मुझे कटघरे में खड़ा कर रही थी. वापस लौटते व़क्त उनके बच्चों ने कहा था, “पापा, आप घर वापस कब आ रहे हो? मम्मी रोज़ कहती है कि आप जल्दी आओगे, पर आप आते ही नहीं…” देव की आंखें भर आईं थीं तब. मैं ख़ुद को पहली बार अपराधी महसूस कर रही थी. मासूम बच्चों को उनके पिता से दूर करके अपना सुख देखा? क्या यही प्यार होता है?
अगले दिन सुबह-सुबह ही रेखा से मिलने चली गई. रेखा ने आराम से मुझे अंदर बुलाया और बेहद शांत मन से बातें करने लगी.
“कैसी हो रश्मि? सब कुछ ठीक तो है न? आज अचानक मेरी याद कैसे आ गई.”
रेखा को देखकर मैं हैरान थी. बेहद शांत-सौम्य चेहरा. भीतर से इतनी ज़ख़्मी होकर भी कोई कैसे इतना शांत रह सकता है भला?
“आपको मुझ पर ज़रा भी ग़ुस्सा नहीं आ रहा?”
“ग़ुस्सा किसलिए? अपने नसीब से कौन लड़ सका है भला.”
“मैंने आपके पति को छीन लिया, बच्चों से उन्हें दूर कर दिया. फिर भी आपको कोई शिकायत नहीं?”
“अगर मेरे पति अपने प्यार को पाकर ख़ुश हैं, तो मैं क्यों शिकायत करूं? आप भी उनसे प्यार करती हैं और मैं भी, दोनों में से एक को तो त्याग करना ही था. और फिर आपने ही कहा था कि मैं उन्हें ज़बर्दस्ती बांधकर रख रही हूं. सो छोड़ दिया. अब आप दोनों आज़ाद हैं. शादी कर सकते हैं और अपने तरी़के से जी सकते हैं.”
उस व़क्त मैंने रेखा से कुछ नहीं कहा. कशमकश और गहरी सोच के साथ वापस चली आई. कहीं न कहीं मुझे लगा कि रेखा कितनी समझदार और परिपक्व है, बिल्कुल देव की तरह. और दूसरी तरफ़ मैं… कितनी स्वार्थी और नासमझ. क्या मैं देव के क़ाबिल हूं? क्या मैं उन्हें ज़िंदगीभर ख़ुश रख सकूंगी? और उन मासूम बच्चों का क्या, जो आज भी रोज़ अपने पापा के आने का इंतज़ार कर रहे हैं और उनकी मां उन्हें नई-नई कहानियां सुनाकर उनका दिल बहलाने की नाकाम कोशिश करती है.
बस, अब मैं कुछ नहीं सोचना चाहती थी. मेरा मन ठोस निर्णय पर पहुंच गया था. अब न कोई दुविधा थी, न दुख, न स्वार्थ, न ही ग़ुस्सा… बस, प्यार ही प्यार था, जिसका न कोई दायरा होता है, न सीमा… प्यार आज़ाद होता है हर बंदिश से. सच पूछो तो आज मुझे सच में प्यार हुआ है… आज मैं प्यार का अर्थ जान पाई हूं. देर होने से पहले ही मैंने ठोस, लेकिन सही क़दम उठाया, इसीलिए अब देव हमेशा के लिए मेरे हो गए.
आज मैं विदेश में पापा का बिज़नेस संभाल रही हूं. बेहद ख़ुश हूं कि समय रहते सही निर्णय लेने का साहस कर पाई. देव का मेल वापस पढ़ रही हूं… बार-बार पढ़ने का मन कर रहा है… ‘प्रिय रश्मि, तुम यूं ही अचानक मुझे छोड़कर चली गईं, पर मुझे तुमसे शिकायत नहीं, बल्कि तुम पर गर्व है कि मेरी रश्मि आख़िर प्यार की सही परिभाषा को समझ गई. मुझे गर्व है तुम पर. तुम्हें बेहद मिस करता हूं, लेकिन अपने बच्चों की मासूम हंसी और रेखा के प्यार व दिलासे में तुम्हें ढूंढ़ लेता हूं. सच कहूं, तो जाते व़क्त तुमने जो चिट्ठी मेरे नाम रखी थी, उसके शब्दों ने मुझे तुम्हारा कृतज्ञ बना दिया… आज भी एक-एक शब्द मुझे याद है उस नोट का…
‘प्यारे देव, मुझे माफ़ कर देना. मैं शायद प्यार को सही मायनों में समझ ही नहीं पाई. तुम जैसा साथी मिलने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि प्यार में धैर्य और सुकून बेहद ज़रूरी है. मैं तुम्हारे शरीर को तो पा सकी, लेकिन तुम्हारी रूह को छू सकने में अब तक असमर्थ रही. मुझसे ज़्यादा तुम पर तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे बच्चों का हक़ है और ज़रूरत भी. मैं भला अपने देव को अपने ही बच्चों और अपनी पत्नी का अपराधी कैसे बना सकती हूं? इसीलिए मैं जा रही हूं, ताकि तुम अपने कर्त्तव्यों को
निभाओ और मैं अपने प्यार को व प्यार के फ़र्ज़ को… तुम्हें पाकर खोया है मैंने, लेकिन अब तुम्हें खोकर हमेशा के लिए पा लूंगी मैं… तुमने मुझे प्यार करना सिखा ही दिया आख़िर… आज जान गई कि दिल को दायरों में भी जीना पड़ता है कभी-कभी अपने प्यार की ही ख़ातिर… थैंक्यू और शुभकामनाएं!… तुम्हारी रश्मि.’

           गीता शर्मा

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