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कहानी- डोर का धागा (Short Story- Dor Ka Dhaga)

उसे अपने शरीर में एक लिजलिजाहट-सी महसूस हुई. अलग होने पर दुखी होने की बजाय ये सब भद्देपन का प्रदर्शन कर रही हैं. क्या अभय से तलाक़ लेकर वह भी ऐसी बन जाएगी. नहीं, वह तो कतई ऐसी नहीं बनना चाहती… घर-परिवार, बच्चे… सब उसे चाहिए. पुरुष के अपने जीवन में होने के सच को वह सुखद मानती है, कोई नफ़रत थोड़े ही है उसे अभय से या पुरुष सत्ता से…

अग्नि के समक्ष सात फेरे लेने से ही स्त्री-पुरुष क्या जन्म-जन्म के बंधन में बंध जाते हैं और फिर सात जन्मों तक उनका साथ हो जाता है… नहीं मानती मैं इन बातों को. सब बकवास है कि मन का मेल होने के लिए सात फेरे लेने ज़रूरी हैं और अब तो व़क्त इतना बदल गया है कि तन का मेल होने के लिए भी सात फेरे लेने की ज़रूरत ख़त्म हो गई है… जानती हूं कि मेरी सोच और बातें समाज विरोधी हैं और न जाने कितने धर्म के ठेकेदार यह सुनते ही मुझे समाज से बहिष्कृत करने को आतुर हो उठेंगे, पर यही सच है. तुम चाहो तो किसी का भी मन टटोलकर देख लेना.”

मनस्वी की बातें सुन हैरान सुधा के मुंह से केवल इतना ही निकला, “क्यों ऐसी बातें कर रही है. जो नियम है उसका पालन तो हमें करना ही होगा, चाहे इच्छा से, चाहे अनिच्छा से.” पर उसकी बात को अनसुना कर मनस्वी अपनी ही रौ में बोलती जा रही थी.

“देख न सुधा, कैसी विडंबना है यह भी कि भारतीय विवाह की परंपराओं में सात फेरों का चलन है. हिंदू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्में पूरी होती हैं. सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं. ये सात फेरे ही पति-पत्नी के रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं. हर फेरे का एक वचन होता है, जिसमें पति-पत्नी जीवनभर साथ निभाने का वादा करते हैं. इसका मतलब तो यह हुआ कि विदेशों की शादियां सात जन्मों के लिए नहीं होती हैं. वहां तो वे फेरे लेते ही नहीं हैं. अच्छा ही है एक जन्म में ही पीछा छूट जाता है.” मनस्वी के स्वर में कड़वाहट थी.

“अरे वहां तो जब चाहे पीछा छूट जाता है, फिर शादी हुए दो दिन या दो महीने ही क्यों न हुए हों. वहां न समझौता करने की ज़रूरत है, न निभाने की मजबूरी. झट से डिवोर्स लिया और हो गए अलग.” सुधा ने माहौल को थोड़ा हल्का करने के ख़्याल से मज़ाकिया अंदाज़ में कहा.

“वही तो मैं कह रही हूं कि वहां जब सात फेरे और सात वचन लिए ही नहीं जाते, तो क्या जो लोग अलग नहीं होते, वे क्या एक-दूसरे का ख़्याल नहीं रखते! वे भी तो प्यार करते ही हैं एक-दूसरे को, फिर क्यों परंपरा निभाने के नाम पर हमारे यहां रिश्तों की ज़ंजीरों में बंधे रहने को बाध्य किया जाता है. क्या ज़िंदगीभर समझौता करते रहना जीने का सही तरीक़ा है?”

“देख मनस्वी, समझौता करने में कोई बुराई तो नहीं है, क्योंकि अलग होकर ज़िंदगी जीना भी आसान नहीं है. मैं यह नहीं कह रही कि तू सक्षम नहीं है और अकेले जीवन नहीं काट सकती, पर मुझे लगता है कि डिवोर्स लेने जैसा क़दम तभी उठाना चाहिए, जब तुम किसी और के साथ बंधने को तैयार हो. क्या तूने और कोई साथी ढूंढ़ लिया है, जो अभय से अलग होने का ़फैसला ले रही है? जो भी करना, बहुत सोच-समझकर करना. बात न फेरे लेने की है, न सात वचनों या सात जन्मों की, बात तो कमिटमेंट, विश्‍वास और समर्पण की है.”

सुधा की बात सुन मनस्वी सोच में पड़ गई. वह बेशक अभय के साथ नहीं रहना चाहती, पर किसी और की अपने जीवन में कल्पना तक नहीं कर सकती है. उसके मन में ऐसा ख़्याल तक कभी नहीं आया. अभय के सिवाय कोई और… नहीं, नहीं… मनस्वी सिहर उठी. वह बेशक एक मॉडर्न, एजुकेटेड और वर्किंग वुमन है, पर कहीं न कहीं भीतर परिवार और संग-साथ की इच्छा रखती ही है. अभय में बहुत सारी बुराइयां हैं, पर यह सच है कि जब भी उसके साथ होती है, वह सुरक्षित महसूस करती है. बस, यही शिकायत है कि अभय उसे समझने की कोशिश नहीं करता. उसकी काम की परेशानियों को उसके देर से आने का बहाना कह मज़ाक उड़ाता है और उसका दूसरे पुरुषों से बात करना उसके अंदर शक पैदा करता है. आख़िर क्यों नहीं वह उसे एक स्पेस देना चाहता.

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उसने कहीं पढ़ा था कि औरत भी पतंग की तरह होती है, जब तक उसकी डोर किसी के हाथ में होती है, वह इठलाती, इतराती आसमान में उड़ती रहती है. जब वह आसमान में लहरा रही होती है, तो सबकी नज़रें और सिर उसकी ओर होते हैं. सम्मान भाव होता है सबके मन में. हर कोई उसे संभालने के प्रयास में लगा रहता है. पूरा परिवार उसे संभालने के लिए एकजुट हो खड़ा रहता है, जैसे वह मानो उनकी ख़ुशियों का आधार हो, लेकिन जैसे ही वह पतंग कटती है, सबके चेहरे लटक जाते हैं और फिर वह या तो कट-फटकर इधर-उधर गिर जाती है या किसी के पैरों के नीचे आ जाती है. जाने-आनजाने हर कोई उसे रौंदता आगे बढ़ जाता है.

औरत भी जब तक एक डोर से बंधी रहती है, तो उसका मान-सम्मान बना रहता है, लेकिन डोर के टूटते ही उसके भटकाव की कोई सीमा नहीं रहती है.

“क्या सोचने लगी मनस्वी, बता न जो तू अभय से तलाक़ लेने की ज़िद कर रही है, क्या तू फिर से दूसरी शादी करेगी?”

“दूसरी शादी करने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता सुधा.” मनस्वी धीरे-से बोली. वह अंदर ही अंदर स्वयं को मथ रही थी जैसे.

“फिर क्या सारी ज़िंदगी अकेले काटने का इरादा है. माना तुझे फाइनेंशियली कोई प्रॉब्लम नहीं है, पर अकेलेपन को भरने कौन आएगा तेरे पास. तेरे भाई-बहन तो तुझे उकसा रहे हैं कि अभय से अलग हो जा, तो क्या वे तेरा साथ देंगे. याद रख, उनका अपना घर-संसार है. कुछ दिन तो वे तेरा साथ देंगे, पर फिर अपनी दुनिया में मस्त हो जाएंगे. ऐसा ही होता है. बेशक वे तुझसे प्यार करते हैं, पर उनकी अपनी भी ज़िम्मेदारियां हैं. इस कठोर सत्य को जितनी जल्दी तू स्वीकार लेगी, उतना अच्छा होगा. अभी पैंतीस साल की है तू. पूरी ज़िंदगी पड़ी है.”

“तो तू ही बता मैं क्या करूं? अगर मैं मां नहीं बन सकती, तो इसमें मेरा क़सूर है. अगर मैं अभय से ज़्यादा कमाती हूं, तो क्या इसमें मेरा कसूर है… अगर मैं उससे ज़्यादा कामयाब हूं, तो मेरा कसूर है… क्यों नहीं वह चीज़ों को सहजता से लेता, बस हमेशा मानसिक रूप से प्रताड़ित करता रहता है. हम साथ ख़ुश रह सकते हैं, पर वह तो जैसे ख़ुश रहने को कोई बड़ा क्राइम मानता है.” मनस्वी के आंसू बह निकले थे.

सुधा उसकी पीठ सहलाती हुई बोली, “चल मान लिया कि अभय में लाख बुराइयां हैं और तू कहती है कि वह तुझे नहीं समझना चाहता, पर क्या तूने कभी उसे समझने की कोशिश की है. शायद उसके मन में भी दुविधाओं के अनगिनत जाले हों.”

“सुधा, उसकी तरफ़दारी मत करो. सारे जाले उसने ख़ुद बुने हैं. मैंने उसे कभी ऐसा करने को मजबूर नहीं किया. उसके छोटे शहर की मानसिकता उसे यह सब करने के लिए उकसाती रहती है. शहर आना तो अच्छा लगता है, पर शहर के तौर-तरी़के और शहर की बीवी न जाने क्यों कुछ समय बाद आंख की किरकिरी बन जाती है.”

“तेरे सारे तर्क क़बूल… पर ज़रा सोच तो, उसके साथ बंधी तो हुई है, अभय नाम की डोर जिस दिन कट गई तो क्या होगा.”

“तो उसकी ज़्यादतियां सहन करती रहूं?”

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“मैं नहीं कहती कि तू ज़्यादतियां सहे, पर हो सकता है, जो तुझे उसकी ज़्यादतियां लग रही हों, वह उसका स्वभाव हो. ठोस ज़मीन पर पैर रखकर एक बार सोच मनस्वी. ये ज़्यादतियां तेरी उस ज़िंदगी से अच्छी होंगी, जो तुझे तलाक़ लेने के बाद झेलनी पड़ेंगी. आसान नहीं होता अकेले रहना… सुनने और पढ़ने में बेशक अच्छा लगे कि पति के ज़ुल्मों को सहने से इंकार करके, फलां ने विद्रोह किया और उसे कोर्ट में घसीटकर सबक सिखाया… औरत होने के हक़ की लड़ाई की… पर वास्तव में सच्चाई इसके विपरीत होती है. क्या किसी ने कभी यह ख़बर छापी है कि उस फलां औरत ने तलाक़ के बाद किस तरह ज़िंदगी काटी… यह औरतों की मर्दों के ख़िलाफ़ लड़ाई… कुछ तथाकथित फेमिनिस्टों की साज़िश है और तू इसका शिकार बन रही है.”

सही कह रही थी क्या सुधा… मनस्वी की आंखों के आगे अपनी ऑफिस की कुछ कलीग्स के चेहरे घूम गए. स्वयं को गर्व से फेमिनिस्ट कहनेवाली रीमा, तो अक्सर ही उसे तलाक़ लेने के लिए उकसाती आ रही है, वरना मनस्वी के दिमाग़ में इससे पहले कभी अभय से अलग हो जाने की बात आई ही नहीं थी.

अगले दिन जब वह ऑफिस गई, तो रीमा उसे देखते ही बोली, “क्या सोचा तूने. तलाक़ ले रही है न… मैं तो कहती हूं जूते की नोक पर रखना चाहिए इन मर्दों को. अरे, तू क्या किसी से कम है. मुझे देख, शादी के एक साल बाद ही अलग हो गई थी और अब अपनी मर्ज़ी से जीती हूं. कोई रोक-टोक नहीं है. मस्त लाइफ है अब यार.”

पूजा जो तीन साल से अलग रह रही थी, बोली, “मैंने तो बच्चा भी उसके पास ही छोड़ दिया. कस्टडी के लिए हल्ला कर रहा था, तो मैंने सोचा चलो ज़िम्मेदारी से छुट्टी मिल गई. हफ़्ते में एक दिन मिलने चली जाती हूं बेटी से.”

“मेरा एक्स हस्बैंड तो आज भी मेरे पीछे घूमता है, पर मैं घास नहीं डालती.” नैना ने आंखें मटकाते हुए कहा था.

“तुम भी हमारे फेमिनिस्ट क्लब का हिस्सा बन जाओ मनस्वी.” बेशर्मों की तरह हंसी थी रीमा उसे आंख मारते हुए.

उसे अपने शरीर में एक लिजलिजाहट-सी महसूस हुई. अलग होने पर दुखी होने की बजाय ये सब भद्देपन का प्रदर्शन कर रही हैं. क्या अभय से तलाक़ लेकर वह भी ऐसी बन जाएगी. नहीं वह तो कतई ऐसी नहीं बनना चाहती…

घर-परिवार, बच्चे… सब उसे चाहिए. पुरुष के अपने जीवन में होने के सच को वह सुखद मानती है, कोई नफ़रत थोड़े ही है उसे अभय से या पुरुष सत्ता से… अभय, समझो तो मुझे एक बार… नहीं कटने देना चाहती वह डोर को. थाम लेगी अब की बार वह डोर के धागे को…

देर ही हो गई थी उसे ऑफिस से निकलने में. फाइनेंशियल ईयर एंडिंग था… सारे डेटा दुरुस्त करने थे. वह टैक्सी लेने के लिए चलते-चलते ऑफिस के पास ही बने होटल तक आ गई थी. उसका एक कप कॉफी पीने का मन हो रहा था. वैसे भी सवारियों को छोड़ने आने के कारण टैक्सी यहां से तुरंत ही मिल जाती थी. वह होटल के अंदर घुसने ही वाली थी कि तभी एक जाना-पहचाना स्वर उसके कानों से टकराया.

“ओह, करण, तुम नहीं जानते कि मुझे तुम्हारी कितनी ज़रूरत है. अपने पति से अलग हो जाने के बाद खालीपन भर गया है ज़िंदगी में. मुझे अपनी ज़िंदगी में किसी पुरुष की ज़रूरत है. मैं जानती हूं कि तुम शादीशुदा हो, पर प्लीज़ मुझसे अलग मत हो…” नशे में धुत रीमा, एक पुरुष के कंधे का सहारा लेकर लड़खड़ाती हुई टैक्सी में बैठ रही थी.

   सुमन बाजपेयी

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