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कहानी- गुरूदक्षिणा (Story- Gurudakshina)

“प्रकाश, अगर मैं चाहती तो ज़िंदगीभर ख़ामोश रहती, लेकिन इससे प्रो. कुमार का हौसला बढ़ जाता. वे किसी दूसरे शिकार को पकड़ लेते और गुरू-शिष्य के पवित्र रिश्ते को कलंकित करते रहते. इसलिये मैंने सच्चाई उजागर करना ज़रूरी समझा. अगर हो सके तो मुझे माफ़ कर देना. मैं तुम्हारी ज़िंदगी से दूर जा रही हूं.”

लखनऊ विश्‍वविद्यालय के पीछे गोमती तट पर दीपा प्रकाश की गोद में सिर रख कर लेटी हुई थी. उसकी आंखों में अनगिनत सपने समाये हुए थे और चेहरे पर असीम शांति छायी हुई थी. प्रकाश के सानिध्य में उसे सुख के साथ-साथ सुरक्षा की अनुभूति भी होती थी.
अचानक आये तेज़ हवा के झोंके ने दीपा की लटों को बिखरा दिया. उसका पूरा चेहरा बालों से यूं ढंक गया जैसे बदली से चांद. प्रकाश ने हाथ बढ़ाकर उसकी बिखरी हुई लटों को संवारा, फिर उसके चेहरे को दोनों हाथों के बीच लेते हुए बोला, “दीप, हम लोग कब तक यूं छिप-छिप कर मिलते रहेंगे? आख़िर कब तुम इस प्रकाश के आंगन में प्रकाश बिखेरने के लिए राज़ी होगी.”
दीपा अपनी आंखें प्रकाश के चेहरे पर टिकाते हुए मुस्कुरायी, “प्रकाश तो दीप का अंतिम लक्ष्य होता है. प्रकाश के बिना उसका अस्तित्व अर्थहीन है, लेकिन…”
“लेकिन क्या?” प्रकाश अधीर हो उठा.
“तुम तो जानते हो, जो रिसर्च मैं कर रही हूं, वह कितना महत्वपूर्ण है. थीसिस पूरी करने के लिए मुझे 24 घंटे का समय भी कम पड़ रहा है. ऐसे में अगर मैं शादी कर लेती हूं तो अपने दायित्वों को पूरा नहीं कर पाऊंगी.” दीपा ने अपनी तर्जनी प्रकाश के होंठों पर टिकाते हुए कहा.
“हमारे घर में इतने नौकर हैं कि तुम्हें कोई काम करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. तुम आराम से अपनी थीसिस पूरी करना.” प्रकाश ने समझाने की कोशिश की.
दीपा खिलखिलाते हुए उठ बैठी और कपड़ों में लगी रेत को झाड़ते हुए बोली,?“जानती हूं बुद्धूराजा, लेकिन तुम भी ये जान लो कि मैं जो भी काम करती हूं, पूर्णता के साथ करती हूं. जब तक थीसिस लिख रही हूं स़िर्फ थीसिस लिखूंगी. जब प्यार करूंगी तो स़िर्फ प्यार करूंगी. उस समय मैं किसी नौकर को न तो तुम्हारे पास चाय की प्याली लेकर फटकने दूंगी और न ही किसी को तुम्हारे कपड़े छूने दूंगी. स़िर्फ मैं और तुम. हमारे बीच तीसरा कोई नहीं आने पाएगा. इसलिए फ़िलहाल थोड़ा-सा इंतज़ार और करो. मेरी थीसिस बस पूरी होने ही वाली है. उसके बाद हम अपने-अपने घरवालों को अपने प्यार के बारे में बता देंगे.”
“ठीक है भई, जैसी आज्ञा.” प्रकाश ने सिर झुकाते हुए इस अंदाज़ में कहा कि दीपा एक बार फिर खिलखिलाकर हंस पड़ी.
दीपा और प्रकाश बी.एससी. में सहपाठी थे. एम.बी.ए. करने के पश्‍चात् प्रकाश एक मल्टीनेशनल कंपनी में एक्ज़िक्यूटिव हो गया था. दीपा को एम.एससी के पश्‍चात् यू.जी.सी. से स्कॉलरशिप मिल गयी थी. एम.एससी में उसने सर्वोच्च अंक हासिल किये थे. इसलिए प्रो़फेसर कुमार सहर्ष उसे अपने अधीन रिसर्च कराने के लिए सहमत हो गए थे.
आकर्षक व्यक्तित्व के धनी प्रो़फेसर कुमार खानदानी व्यक्ति थे. पूरा विश्‍वविद्यालय उनकी योग्यता का कायल था. उनके अधीन रिसर्च करना सभी शोधार्थियों का सपना रहता था. सभी का मानना था कि प्रो. कुमार अगर मिट्टी पर भी हाथ रख देंगे तो वो सोना हो जाएगी.
दीपा पूरी मेहनत के साथ अपनी थीसिस लिखने में जुट गयी. दो वर्ष तक तो सब ठीक रहा. प्रो. कुमार उसका मार्गदर्शन करते रहे, किंतु तीसरे वर्ष जाने क्यूं वे उपेक्षा दिखाने लगे थे. विश्‍वविद्यायल की लायब्रेरी के साथ-साथ दीपा इंटरनेट के माध्यम से दूसरे देशों की लायब्रेरी को भी खंगाल डालती. रात-रात भर जाग कर पेपर्स तैयार करती, लेकिन प्रो. कुमार के पास उन्हें पढ़ने का समय ही नहीं रहता. महीनों वे उनकी अलमारी में अनछुए से पड़े रहते.
दीपा की समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उनके व्यवहार में परिवर्तन क्यूं आ गया है. उसने कई बार पूछने की कोशिश की, लेकिन प्रो. कुमार बात टाल जाते. तीन वर्ष पश्‍चात् स्कॉलरशिप मिलनी बंद हो गयी, लेकिन प्रो. कुमार की उपेक्षा के कारण दीपा की थीसिस पूरी नहीं हो पायी थी.
इसी बीच उसकी मुलाक़ात प्रकाश से हो गयी. दोनों एक-दूसरे को पहले से ही पसंद करते थे. शीघ्र ही दोनों में प्यार के अंकुर फूट गये. प्रकाश जल्दी ही शादी कर घर बसाना चाहता था, लेकिन दीपा थीसिस पूरी होने के बाद ही शादी करना चाहती थी.
प्रकाश का आग्रह देख उसने दिन-रात मेहनत कर थीसिस पूरी कर ली थी. उसे प्रो. कुमार को दिए हुए एक महीना हो गया था, लेकिन उन्होंने उसे अभी तक देखा भी नहीं था. इससे दीपा काफ़ी परेशान थी, क्योंकि उनकी संस्तुति के बिना दीपा को पी.एच.डी. की उपाधि नहीं मिल सकती थी.
उस दिन प्रकाश से मिलने के बाद दीपा ने प्रो. कुमार से स्पष्ट बात करने का निश्‍चय किया. अगले दिन मौक़ा देख कर उसने कहा, “सर, पिछले एक साल से मैं महसूस कर रही हूं कि आप मुझसे कुछ नाराज़ हैं.”
“ऐसी कोई बात नहीं है.” प्रो. कुमार ने उपेक्षा भरे स्वर में कहा.
“सर, अगर ऐसा नहीं है तो आप मेरी थीसिस को पढ़ क्यों नहीं रहे हैं? बताइये तो, क्या कमी है मेरी मेहनत में?” दीपा ने आग्रह किया.
“कमी बताने से क्या फ़ायदा?” प्रो. कुमार ने अपना चश्मा उतार कर मेज़ पर रख दिया.
“सर, आप आदेश करें. मैं उस कमी को हर हाल में पूरा करूंगी.” दीपा के स्वर में दृढ़ता झलक उठी.
प्रो. कुमार ने एक उचटती हुई दृष्टि दीपा के चेहरे पर डाली फिर बोले, “तुमने अपने गाइड को अभी तक गुरू दक्षिणा नहीं दी है.”
“बस इतनी-सी बात! अगर आप पहले बता देते तो मैं आपकी इच्छा कब की पूरी कर चुकी होती.” दीपा हल्का-सा मुस्कुरायी, फिर बोली, “बताइये, क्या गुरूदक्षिणा चाहिए आपको?”
“तुम अपने वादे से मुकर तो नहीं जाओगी?”
“सर, अगर आप आज्ञा करें तो मैं एकलव्य की तरह अपना अंगूठा काट कर आपके चरणों में अर्पित कर दूंगी.” दीपा की आंखों में सम्मान के चिह्न उभर आये.
“एकलव्य का अंगूठा…” प्रो. कुमार हल्का-सा मुस्कुराए फिर बोले, “यह उस ज़माने की बात थी. भावनाओं में बहकर एकलव्य ने अपना कैरियर बर्बाद कर डाला था. आज के युग में स़िर्फ कैरियर बनाने की बात सोची जाती है. आज गुरू और शिष्य दोनों ही प्रगतिशील विचारों के हैं. यदि गुरू कोई दक्षिणा लेता है तो बदले में शिष्य के कैरियर में चार चांद लगा देता है.”
“जानती हूं सर, आपके अधीन रिसर्च पूरी करने वाले को एक सम्मानजनक मुक़ाम अपने आप ही हासिल हो जाता है, इसीलिए तो मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिए तत्पर हूं.” दीपा के स्वर से श्रद्धा झलक उठी.
यह सुन प्रो. कुमार अपनी आंखें बंद कुछ पल सोचते रहे, फिर फुसफुसाते हुए बोले,?“मुझे ़ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए, स़िर्फ उतना ही चाहिए जितना आजकल के दूसरे सुयोग्य गाइड लेते हैं.”
“क्या?”
“मेरे घरवाले कल बाहर जा रहे हैं. स़िर्फ दो रातों के लिए तुम मेरे घर आ जाओ. तुम्हारी थीसिस क्लीयर हो जायेगी.” प्रो. कुमार ने कहा.
जैसे अनेकों ज्वालामुखी एक साथ धधक उठे हों. जैसे सैकड़ों बिजलियां एक साथ गिर पड़ी हों. जैसे संपूर्ण ब्रह्मांड में विस्फोट हो गया हो. हतप्रभ दीपा का मुंह खुला-का-खुला रह गया. पलकें जैसे झपकना भूल गयीं. उसकी संपूर्ण चेतना जड़ हो गयी. उसे विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि जो कुछ भी उसके कानों ने सुना है, वो सत्य भी हो सकता है. उसके कानों में पिघला हुआ शीशा खौलने लगा था. काश, ऐसे वाक्यों के स्वर ध्वनिहीन हो जाते या कान श्रवणहीन.
“तुमने कोई उत्तर नहीं दिया.” तभी प्रो. कुमार ने?उसकी तंद्रा भंग कर दी.
संज्ञाशून्य दीपा की आंखों से अविरल अश्रुधार बह निकली. बहुत मुश्किल से उसके कंपकंपाते होंठों से स्वर फूटे, “सर, मैं आपकी बेटी के समान हूं.”
“ओह, कम ऑन बेबी, बी प्रैक्टिकल. आजकल गुरू-शिष्य का रिश्ता दोस्ती का होता है.” प्रो. कुमार भद्दे ढंग से मुस्कुराये, फिर अचानक ही उनका स्वर सख़्त हो गया, ⁛फैसला तुम्हारे हाथ में है. अगर मेरे साथ दोस्ती निभा दोगी तो मैं तुम्हारी ज़िंदगी संवार दूंगा, वरना अपनी इतने सालों की मेहनत पर पानी फिरा समझना.”
दीपा ने कोई उत्तर नहीं दिया. मुंह पर हाथ रख वो दौड़ती हुई वहां से चली गयी. सारे आदर्शों की छवि एक झटके में खंडित हो गयी थी. पुरुषों ने सदैव से स्त्री को उपभोग की वस्तु समझा है. प्रो. कुमार ने भी उसे मात्र एक स्त्री ही समझा. उसकी प्रतिभा, लगन, योग्यता और मेहनत का कोई मूल्य नहीं उनकी दृष्टि में.
वो इतने वर्षों से एक आदर्श गुरू के रूप में उन्हें पूजती चली आ रही है, किंतु वे देवता नहीं वासना के पुजारी निकले. दीपा को अपना वजूद अस्तित्वहीन होता-सा प्रतीत हो रहा था. प्रो. कुमार की दृष्टि में वो सर्वोच्च अंक प्राप्त करने वाली प्रतिभा संपन्न छात्रा नहीं, अपितु ज़िंदा गोश्त मात्र थी. नारी नहीं अपितु पुरुषों के तन की ज्वाला शांत करने वाला यंत्र मात्र? यही मूल्यांकन है उसके आज तक के श्रम का? यही सम्मान है उसकी प्रतिभा का?
दीपा जितना सोचती, उसके मन की पीड़ा उतनी ही बढ़ती जाती. अपमान की अधिकता से उसकी आंखों के आंसू सूख चले थे. उसकी रगों में दौड़ रहा ख़ून ब़र्फ होने लगा था. जिस दुनिया में उसका कोई महत्व नहीं, उसमें जीना व्यर्थ है. ऐसे अपमान से मृत्यु श्रेयस्कर है. उसे अपने जीवन का अंत कर लेना चाहिए. शायद उससे प्रो. कुमार को कोई सीख मिले. अपनी करनी पर उन्हें शर्म आये, किंतु यदि ऐसा नहीं हुआ तो? क्या कुशल शिकारी की भांति वे किसी दूसरे को अपने जाल में नहीं फंसा लेंगे? दीपा की सोच को एक झटका-सा लगा.
उसे इस अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए. प्रो. कुमार को?उसकी करतूतों का दंड मिलना चाहिए. लेकिन कैसे? विश्‍वविद्यालय के प्रबंध तंत्र पर उनकी पकड़ इतनी मज़बूत थी कि वो चाहकर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी. उल्टे उसका कैरियर तबाह हो जाएगा. तो क्या उसे परिस्थितियों से समझौता कर लेना चाहिए? शोषण को नारी की नियति मान लेना चाहिए? दीपा चाह कर भी कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी.
वो रातभर करवटें बदलती रही. एक के बाद एक ख़याल आते रहे. अगले दिन जब वह उठी तो अपनी दिशा निर्धारित कर चुकी थी. उसने दोपहर में प्रो. कुमार को फ़ोन किया, “सर, आप मुझसे दो रात के लिए घर आने के लिए कह रहे थे, लेकिन मैं पूरी ज़िंदगी के लिए आपके घर आने के लिये तैयार हूं.”
“इसकी ज़रूरत नहीं है. तुम स़िर्फ दो रातों के लिए आ जाओ, इतना ही बहुत होगा.” प्रो. कुमार ने हंसते हुए कहा.
“ओ. के. सर, मैं शाम को पहुंच जाऊंगी.” दीपा ने कहा और फ़ोन काट दिया.
इसके बाद उसने प्रकाश के ऑफ़िस फ़ोन किया, “प्रकाश, मैं आज ही तुम्हारे घर वालों से मिलना चाहती हूं.”
“लेकिन आज तो मैं ऑफ़िस के काम से बाहर जा रहा हूं.” प्रकाश ने कहा.
“प्रकाश प्लीज़, अपना कार्यक्रम बदल लो, क्योंकि मैं आज ही अपनी ज़िंदगी के बारे में ़फैसला करना चाहती हूं.” दीपा ने ज़ोर दिया.
“लेकिन…..”
“क्या मेरे लिए तुम इतना नहीं कर सकते?” दीपा का स्वर कातर हो उठा.
“तुम्हारे लिए तो मैं अपनी जान दे सकता हूं. घरवालों का सामना करना तो बहुत मामूली बात है.” प्रकाश हंस पड़ा.
“ओ. के. मैं पांच बजे तुम्हारे ऑफ़िस के सामने पहुंच जाऊंगी.” दीपा ने कहा और तुरंत फ़ोन काट दिया.
दीपा ने अपनी भूमिका तो तय कर ली थी, किंतु उसके अंतर्मन में हलचल मची हुई थी. समय काटे नहीं कट रहा था. घड़ी की सूइयां भी आज कुछ ़ज़्यादा ही धीमे चल रही थीं. शाम पांच बजे वह तैयार होकर प्रकाश के ऑफ़िस के सामने पहुंच गयी. प्रकाश अपनी कार में बैठा उसी की प्रतीक्षा कर रहा था. उसे लेकर तुरंत अपने घर की ओर चल पड़ा. रास्ते भर दीपा मौन रही. प्रकाश ने भी उसे टोकना उचित नहीं समझा. सोचा शायद वो अपने आपको आने वाली स्थिति के लिए तैयार कर रही है.
अपने विशाल बंगले के प्रांगण में पहुंच प्रकाश ने कार रोकी और दीपा के कंधे पर हाथ रख स्नेह भरे स्वर में बोला, “दीपा, घबराना बिल्कुल नहीं. डैडी बहुत अच्छे हैं. मुझे विश्‍वास है कि वे तुम्हें अवश्य स्वीकार कर लेंगे.”
“मैं तुम्हारे डैडी को बहुत अच्छी तरह से जानती हूं.” दीपा ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को उठाकर प्रकाश की ओर देखा.
“जानोगी क्यों नहीं, उनकी स्टूडेंट जो रह चुकी हो.” प्रकाश मुस्कुराया.
“स्टूडेंट रह नहीं चुकी हूं, बल्कि आज भी हूं.”
“क्या मतलब?”
“मैं अपनी रिसर्च उन्हीं के अंडर पूरी कर रही हूं.” दीपा ने धीमे स्वर में बताया.
“तुम डैडी के अंडर रिसर्च कर रही हो?” प्रकाश उछल पड़ा. फिर दीपा को घूरते हुए बोला, “मैंने तुमसे कितनी बार गाइड का नाम पूछा था, लेकिन तुमने बताया क्यों नहीं?”
“मैं अपनी रिसर्च अपनी मेहनत और योग्यता के बल पर पूरा करना चाहती थी. अगर मैं तुम्हें गाइड का नाम बता देती तो तुम अपने डैडी से मेरी सिफ़ारिश अवश्य करते, फिर मेरे मन में ज़िंदगीभर ये एहसास बना रहता कि पी.एच.डी. की डिग्री मुझे अपनी योग्यता से नहीं, बल्कि सिफ़ारिश से मिली है.” दीपा का स्वर अचानक ही गंभीर हो उठा.
“यू आर ग्रेेट दीपा, रियली यू आर ग्रेट. आज डैडी तुम्हें नयी भूमिका में देख कर बुरी तरह चौंकेंगे.” प्रकाश ने स्नेह से दीपा के कंधे पर हाथ रख उसे नीचे उतरने का इशारा किया.
कार का दरवाज़ा बंद कर प्रकाश दीपा को लेकर घर के भीतर पहुंचा. दीपा के साथ प्रकाश को आता देख प्रो. कुमार बुरी तरह चौंक पड़े. उनकी समझ में ही नहीं आया कि ये दोनों एक साथ कैसे आये. बहुत मुश्किलों से उन्होंने अटकते हुए कहा, “प्रकाश, तुम तो आज ऑफ़िस से ही सीधे बाहर जाने वाले थे ना?”
“हां, लेकिन दीपा ने ज़िद की कि मैं आज ही उसकी मुलाक़ात आपसे करवा दूं.” प्रकाश ने मुस्कुराते हुए बताया.
“कैसी मुलाक़ात?” प्रो. कुमार का स्वर किसी अनहोनी आशंका से कांप उठा.
“सर, आप चाहते थे कि मैं केवल दो रातों के लिये आपके पास आ जाऊं, लेकिन आपका बेटा पूरी ज़िंदगी के लिये मुझे यहां लाना चाहता है.” दीपा ने एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा.
सड़ाक…. सड़ाक…. सड़ाक….. जैसे नंगी पीठ पर चाबुक पड़ रहे हों. प्रो. कुमार का सर्वांग कांप उठा. उन्होंने कभी स्वप्न में भी ऐसी स्थिति की कल्पना नहीं की थी. दीपा ने एक झटके में उनके चेहरे का नक़ाब नोंच डाला था. अपने बेटे के सामने ही उन्हें नंगा कर दिया था. उनका चेहरा स़फेद पड़ गया. ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने सारा ख़ून निचोड़ लिया हो.
अवाक् तो प्रकाश भी रह गया था. चंद क्षणों तक तो उसकी समझ में ही नहीं आया कि क्या करे. फिर उसने दीपा की बांहों को पकड़ झिंझोड़ते हुये कहा, “दीपा, तुम होश में तो हो. तुम्हें मालूम है कि तुम क्या कह रही हो?”
“अच्छी तरह मालूम है, लेकिन शायद तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारे डैडी रिचर्स पूरी कराने के लिये मुझसे क्या गुरूदक्षिणा मांग रहे थे.” दीपा ने सर्द स्वर में कहा.
दीपा की बांह छोड़ प्रकाश ने उलझन भरी दृष्टि से प्रो. कुमार की ओर देखा. उसे अभी भी विश्‍वास नहीं हो रहा था कि दीपा जो कुछ कह रही है, वो सत्य हो सकता है. प्रो. कुमार की आंखों में बेटे की दृष्टि का सामना करने की ताब नहीं थी. उन्होंने अपनी आंखें झुका लीं.
“डैडी….” अविश्‍वास से प्रकाश का स्वर कांप उठा.
“प्रकाश, अगर मैं चाहती तो ज़िंदगीभर ख़ामोश रहती, लेकिन इससे प्रो. कुमार का हौसला बढ़ जाता. वे किसी दूसरे शिकार को पकड़ लेते और गुरू-शिष्य के पवित्र रिश्ते को कलंकित करते रहते. इसलिये मैंने सच्चाई उजागर करना ज़रूरी समझा. अगर हो सके तो मुझे माफ़ कर देना. मैं तुम्हारी ज़िंदगी से दूर जा रही हूं.” दीपा ने प्रकाश की और देखते हुए कहा. उसकी आंखों में अश्रुकण झिलमिला उठे थे.
“तुम माफ़ी किस बात की मांग रही हो?” प्रकाश का स्वर भीग उठा. पलभर के लिये उसके चेहरे पर तूफ़ान के चिह्न छा गए. फिर वो दृढ़ स्वर में बोला, “दीपा, आज तक मैं तुमसे प्यार करता था, लेकिन आज मेरे मन में तुम्हारी इ़ज़्ज़त और बढ़ गयी है. मैं हर हालत में तुम्हें स्वीकार करना चाहता हूं.”
“अब यह संभव नहीं हो सकता.” दीपा ने फ़ैसला सुनाया.
“क्यों संभव नहीं हो सकता?” प्रकाश तड़प उठा.
दीपा ने स्नेह भरी दृष्टि से प्रकाश की ओर देखा, फिर शांत स्वर में बोली, “यदि सत्य उजागर किये बिना मैं तुमसे शादी कर लेती तब भी तुम्हारे डैडी ज़िंदगीभर मुझसे आंखें न मिला पाते. वे भले ही गुरू का धर्म भूल गये हों, लेकिन मैं शिष्या का धर्म नहीं भूली हूं. अपनी बहू के सामने आजीवन ज़लील होने की ज़लालत से मैं उन्हें मुक्ति देती हूं. यही मेरी गुरूदक्षिणा होगी.”
इतना कह कर वो तेज़ी से वहां से निकल गयी. किसी में उसको रोक पाने का साहस न था.

संजीव जायसवाल ‘संजय’
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Meri Saheli Team

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