सुरभि मेरा हाथ पकड़ लो. आओ मेरी गोद में लेट जाओ. मैं तुम्हारे बालों में हाथ फेर दूं. आज कितनी उदास हो तुम, कितनी थकी लग रही हो. तुम भूल गई किस तरह जब मैं अकेला उदास और निराश था तुमने मेरा हाथ थाम लिया था और मैं ज़िंदगी की उलझनों से बाहर निकल फिर से चल पड़ा था इक नई राह पर रोशनी की खोज में. मैं यह कैसे कह दूं कि तुम्हारा उदास होना ग़लत है, तुम जैसी कर्मचारी की प्रमोशन न हो, तो मानी बात है तुम्हारा क्या किसी का भी दिल उदास हो जाएगा. लेकिन यक़ीन मानो यह ज़िंदगी किसी भी प्रमोशन किसी रिकॉग्निशन से बहुत बड़ी है…
ओह! हो सके तो मेरी बात मानो. मुझे समझो मैं ग़लत नहीं हूं. यह अलग बात है कि वक़्त के दायरे में ग़लत ठहरा दिया गया हूं. सिर्फ़ इसलिए कि मेरी सोच एक आम इंसान की सोच नहीं है. मेरी क्या तुम भी तो लीक से अलग हट कर सोचती हो… हम दोनों शायद कहीं ना कहीं एक सा सोचते हैं, तभी तो तुमने कठिन वक़्त में मेरा हाथ थामा था. आज वक़्त आ गया है कि मैं हाथ बढ़ा कर तुम्हारा हाथ थाम लूं.
यक़ीन मानो हम जैसे लोगों को समझना आम लोगों की बात नहीं है और इसीलिए वो हमें ग़लत समझ लेते हैं. मगर नहीं हम क्यों किसी को ग़लत कहें हम सही हैं इतना यक़ीन क्या कम है हमारे होने के लिए. तुम्हें याद है जब भी मैं दर्द के एहसास से गुज़रता हूं, तब पिछले कितने सालों से मैं ख़ामोशी से तुम्हारे बदन की ख़ुशबू और नाभि की कस्तूरी गंध में उतर जाता हूं. कितनी बार तो तुम्हें एहसास दिलाया है कि मैं तुम्हारे होंठों का रस पी रहा हूं. धीरे-धीरे लिपट रहा हूं. तुम्हारे बदन से उतर गया हूं तुम्हारे जिस्म के भीतर. पी रहा हूं तुम्हारे बदन से टपकते महुए का रस.
तुम भी तो मुस्कुरा रही हो… उतर रही हो अपने भीतर मदहोशी के आलम में ख़ुद को मेरे भीतर खोती हुई. मुझ से लिपट कर ख़ुद के अस्तित्व को मिटा देने को बेताब. याद है तुम्हें, किस तरह हम एक-दूसरे में खो कर हर दर्द भूल जाते थे. हम एक-दूसरे की चाहत में इस ज़िंदगी को एक नशे सा जीने लगे थे. मेरे लिए तुम किसी आसमान से उतरी एक परी हो गई थी.
तुम्हारा चाहत कहूं या फिर इसे तुम्हारे भी दिल में उठे प्यार का एहसास कि तुमने भी कभी मेरे इस जुनून, मेरी इस चाहत, इस प्यास को ग़लत नहीं समझा. इसे ग़लत नहीं माना. तुम भी तो इस रूमानियत भरे एहसास को जी उठी थी अपने भीतर, जैसे बरसों की अधूरी तमन्ना, ज़िंदगी की अधूरी ख़्वाहिश मेरी बांहों में सिमट कर पूरी हो रही हो.
हम दोनों यह बात बख़ूबी जानते थे कि दोनों ही एक-दूसरे के लिए बने हैं, मगर एक-दूसरे के हो नहीं सकते… तुम किसी और की अमानत हो और मैं किसी और का हो चुका था. मेरी और तुम्हारी ढेरों ज़िम्मेदारी हैं. परिवार के प्रति, समाज के प्रति बच्चों के प्रति और फिर इन सब के बीच नैतिक ज़िम्मेदारी कि कहीं कोई चरित्र पर उंगली न उठा दे.
हां, यह सब जानते-समझते मैं तुम्हारे साथ ख़्वाबों में जी रहा था और मेरे ख़्वाब की अप्सरा बन गई थी तुम. बस इतना फ़र्क़ था कि हम वह सब कर रहे थे, एक-दूसरे को बता रहे थे, जो एक हद से गुज़रते हुए कर गुज़रते हैं. मगर सिर्फ़ बातों में सिर्फ़ एहसास में बिना एक-दूसरे को छुए एक-दूसरे के भीतर हो कर गुज़र जाते थे. यह एहसास ही तो हमें दिन दुनिया के दुख-दर्द से दूर कर देता था. बिना छुए एक-दूसरे को पा लेना, उसे जी लेना, गुनाह कहां है… मैं इसे तुम्हें कह सका था और तुम इसे महसूस कर पाई थी. हक़ीक़त में कोई भी सामाजिक वर्जना नहीं टूटी थी, मगर हम अपने भीतर बसी ढेर सारी फैंटेसी की दुनिया एक-दूसरे के एहसास के साथ जी गए थे.
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यह ज़िंदगी एक है और इंटरनेट के ज़माने में यह दुनिया बहुत छोटी है. इसलिए आज जब तुम दर्द में हो गुज़र रही हो इस एहसास से कि मुझसे कम क्षमता और अयोग्य लोगों का प्रमोशन हो गया है मेरा नहीं हुआ, तो मेरा दिल कहता है आगे बढ़ू और तुम से कहूं- सुनो इस दर्द की घड़ी में मेरा हाथ पकड़ लो. मैं तुम्हें ले चलूंगा इस छोटी सी संकीर्ण दुनिया से बाहर. तुम्हें एहसास की उस दुनिया में जहां एक बार फिर तुम मुझे महसूस कर उठोगी, क्योंकि प्यार कभी मरता नहीं है… बस समाज में जो प्यार करना नहीं जानते वे लोगों को कठघरे में खड़ा कर देते हैं. यह हमारे और तुम्हारे दिलों की प्यास ही तो है, जो हमें दरिया और समंदर सा जोड़ती है.
हा़, हमें ख़ामोश होना था इस दुनिया की निगाहों में गुनहगार होने की इबारत से बचने के लिए सो यह जो तुम्हारे भीतर उतर जाने की क़वायद को मैं चैट में तुम्हें भेजता और तुम्हें ख़ुद के एहसास में पता नहीं क्यों वह गुनाह हो उठाता, हमारे जानने वालों की निगाह में… उनके दिल इतने बड़े नहीं हैं कि किसी को सोचने और सपने में भी आज़ादी की सांस लेने दें. हमारे समाज में शादी तो एक ग़ुलामी है जैसे एक शादीशुदा इंसान किसी दूसरी स्त्री से या फिर एक शादीशुदा महिला किसी दूसरे पुरुष से हंस-बोल भी नहीं सकती… अपने एहसास में जी भी नहीं सकती… एक-दूसरे को बिना छुए भी किसी के एहसास में गुज़र जाने की तमन्ना भी हमारे समाज में हमें कैरेक्टर लेस बना देती है…
जाने दो घर-परिवार और समाज को बचाने के लिए हमें अपने दायरे में क़ैद होना था, हम हो भी गए. मगर आज मैं इस वक़्त तुम से कहता हूं मेरा हाथ पकड़ लो, मैं तुम्हें इस दर्द की दुनिया से बाहर किसी ख़ूबसूरत ज़िंदगी के एहसास की दुनिया में ले चलने को खड़ा हूं. उस कस्तूरी गंध के एहसास की दुनिया में कि जहां एक बार फिर सिर्फ़ हम और तुम होंगे. बिना एक-दूसरे को छुए बस ख़्वाबों में लिपट कर एक हो जाने को ज़माने की हद से गुज़र जाने को… उस एहसास में जीने को जिसे हमारे सो कॉल्ड अपने हर वक़्त साथ रह कर भी जीना नहीं जानते.
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उठो सुरभि, अपना हाथ मुझे दे दो. मेरे भीतर हाथ मिलते हुए तुम्हारे हाथ छू लेने का एहसास अभी भी ज़िंदा है कि जिस के सहारे मैं तुम्हारे भीतर उतर जाता हूं. हो सके तो एक बार फिर अपने दर्द को भूल कर तुम भी मेरे भीतर उतर जाओ. मेरी रूह में समा जाओ. यह दुनिया नहीं जानती की इंसान का दर्द क्या होता है. वह तो बस सफलता और असफलता के बीच अपनों को व्यंग्य की निगाह से देखने की आदी है. ताने और उलाहने की इबारत में जीती है. तुम उस दुनिया को छोड़ कर मेरे प्यार के एहसास की दुनिया में आ जाओ. देखो मेरी उंगलियां तड़प रही हैं तुम्हारा चेहरा छूने को… तुम्हारे बालों से खेलने को… तुम्हारा हो जाने को..!
– शिखर प्रयाग
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