कहानी- तकरार (Short Story- Takrar)

कभी-कभी उसको यह लगता कि चतुर जेठानी उसके भोलेपन को बख़ूबी पहचानती है और उसको बस पूरी चतुराई से इस नरक जैसे घर का चौकीदार ही बना रखा है. वो आज अपने भीतर घुमड़ रहे उन ख़ामोश बादलों को सुन पा रही थी, जिसे केवल उसका उदास बिस्तर सुन पाता है या यह तकिया.
ये वो पाषाण हृदय जेठानी भला समझ कैसे सकती हैं, जिसके दामन में कभी प्रेम का फूल ही नहीं खिला.

मीनू की अभी-अभी जेठानी से कुछ तकरार सी हो गई थी और कसमसाती हुई मीनू ने रसोई से कल ही लाया हुआ मक्खन का पैकेट और सूखे मेवे का डिब्बा उठाया, संभाला और भुनभुनाती हुई अपने कमरे मे ले आई. अपने शयनकक्ष में रखा हुआ छोटा फ्रिज खोला और मक्खन उसमें रख दिया. अब वो अपने ही कमरे में बड़बडा़ती हुई एक-दो चक्कर लगाने के बाद एक कपड़ा लेकर डस्टिंग करने लगी. लेकिन कमरा तो बिल्कुल ही साफ़ था. कामवाली अभी-अभी तो सब चमका कर गई थी, इसलिए वो तकिया लेकर पिलो कवर बदलने लगी और फिर अपने आप से ही बात करने लगी, ‘हद है जेठानी नौकरी भी करती है और घर पर रौब भी जमाती है. बस, मीनू ही रह गई है सबकी अकड़ झेलने को. वो तो रोज़ सज-संवर कर बाहर जाती हैं, लेकिन मीनू तो बस इस जेलखाने में क़ैद है. उसका तो काम ही यह हो गया है कि चपरासी जैसी बनकर बाहर से आनेवाले डाकिये, कुरियरवाले, धोबी आदि के घंटी बजाने पर गेट पर हाज़िर हो जाए. हद है…’ वो यह सोच-सोच कर बहुत ग़ुस्सा करने लगी.
उसके दबे-कुचले दिल का दर्द उसकी हर धड़कन को पता था. यूं ही तो वो बेचैन नहीं हो रही थी.
यह दुनिया क्या इस तरह उसको ग़ुलाम ही बनाकर रखेगी चोट पर एसिड की तरह उसके विचार उसको और दुखी कर रहे थे?
उसने एकाएक आईने में अपना मुरझाया हुआ उदास मुखड़ा देखा और सिसकते हुए सोचने लगी कि एक वो भी ज़माना था, जब वो हंसती, तो लगता कि दुनियाभर के मनमोहक फूल उसके चेहरे के आस-पास ही खिलते होंगे. कैसी आज़ाद ज़िंदगी थी और एक यह जीवन है.
कभी-कभी उसको यह लगता कि चतुर जेठानी उसके भोलेपन को बख़ूबी पहचानती है और उसको बस पूरी चतुराई से इस नरक जैसे घर का चौकीदार ही बना रखा है. वो आज अपने भीतर घुमड़ रहे उन ख़ामोश बादलों को सुन पा रही थी, जिसे केवल उसका उदास बिस्तर सुन पाता है या यह तकिया.
ये वो पाषाण हृदय जेठानी भला समझ कैसे सकती हैं, जिसके दामन में कभी प्रेम का फूल ही नहीं खिला.
मीनू के जेठजी शादी के एक महीने बाद से ही रूस में रमे हुए है और कितने साल से आने का नाम नहीं ले रहे और जेठानी भी मगन हैं, कहती हैं, “मेरे भीतर तो सच्चाई, स्पष्टता, पारदर्शिता, निष्कपटता है, तो संसार में सब अच्छा लगता है. काम में डूबी औरत को पता ही नहीं लगता कि पति देस में है या परदेस में. सारा दिन दफ़्तर काम में खपती हूं, गृहस्थी बसाने की सोच भी नहीं सकती…” हूंह.. कितनी नौटंकी, मीनू ने फिर ग़ुस्से से फुफकार भरी.
और भी तो प्रवचन देती रहती हैं. उसी को बहुत बड़प्पन दिखाती हैं कहती हैं, “मीनू, यह ज़िंदगी छोटी-बड़ी नहीं होतीं, न ही चीज़ें छोटी-बड़ी होती हैं. छोटा-बड़ा होता है जीवन देखना. ख़ुशी, सुकून या चीज़ें छोटी-बड़ी होती, तो देखना भी छोटा-बड़ा होता. दरअसल सोच का बड़प्पन कुछ और ही है.
मैं तो परिवार में तुम सबको होकर ख़ुद को देखती हूं. जो सब होकर सबको नहीं देख सकता, वह कुछ भी सही और पूरा नहीं देख सकता.” पता नहीं कहां-कहां से सुनकर आती हैं यह सब फिल्मी बातें… मीनू ने मुंह बनाया और मन ही मन कहा ख़ूब मक्खन खाती हैं ना, हां तो अब ख़ुद ख़रीद कर लाएंगी मक्खन, तब पता लगेगा कि आठ सौ रुपए किलो है. कमाती हैं, तो ख़र्च भी करें हद है. बस रौब मारना आता है, वो भी मासूम-सी मीनू पर…’ यही सोचते-सोचते मीनू ने कब तकियों के गिलाफ बदल डाले पता ही नहीं चला.
उसी समय टीवी पर कोई आध्यात्मिक गुरू बोल रहे थे- “भावनाओं का आना और मन में उठना स्वाभाविक है, लेकिन उनका मन में जम जाना रोग है. धीरे-धीरे ये भावनाएं वहीं अन्दर घर कर जाती हैं और मौक़ा पाकर, उभरकर दुख का निर्माण करने आ जाती हैं. यही ख़तरनाक है, हम कभी किसी से नफ़रत न करें. मन को बस वर्तमान में, “ओह हद है, अब ये भी मेरी जेठानी का एजेंट है…” कहकर बहुत ही फनफनाते हुए उसने रिमोट दबाया और वो गुरू अपनी आवाज़ सहित उसके सामने से गायब हो गए.

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अब फिर से कमरे मे शांति छा गई. आज उसने उसी समय बुखार का बहाना किया और बस ग़ुस्से में तकिया सिर पर रखकर लेट ही गई. मीनू के पति तो सुबह सात बजे ही बेटे विनू के साथ दफ़्तर को रवाना हो गए थे. उनको साइट पर काम देखते हुए जाना था, मगर अब इस समय जेठानी को दफ़्तर जाना था, वो ज़रूर मक्खन ही खोज रही होंगी… सोचकर मीनू ग़ुस्से में पड़ी रही. आधा घंटे बाद जेठानी थाली परोस कर लाईं और उसको उसी के कमरे मे नाश्ता थमाकर चाभी देकर चली गईं.
गरमागरम पोहे और पकौडे़ उससे जीत गए और वो बिस्तर से उठ बैठी.
“हद है..” कहकर मीनू ने गरमागरम नाश्ता मज़े लेकर खाया और अब पूरी तरह बुखार का त्याग कर दिया.
ऐसे ही सब बिल्कुल लाइन पर रहेंगे… वो अपनी विजय पर फूली नहीं समा रही थी.
‘उसी को पागल समझ रखा है सबने…’ वो जब रसोई में आई, तो यह देखकर बहुत ही ख़ुश हो गई कि रसोई पूरी साफ़ और जमी हुई थी. वाह!.. मन ही मन ऐसा बोलते हुए मीनू ने मक्खन का पैकेट और वो सूखे मेवे दोनों ही उनकी जगह पर वापस सलीके से रख दिए. घड़ी में समय देखा और गर्दन हिलाकर जुट गई. वो जानती थी आज बेटे का हाफ डे है और वो बस एक घंटे में ही लौटने ही वाला है, इसलिए मीनू ने स्वादिष्ट कढी-चावल तैयार किया.
कहीं किसी के घर रेडियो पर गुलज़ार बोल रहे थे- उम्र जाया कर दी लोगों ने औरों के वजूद में नुक्स निकालते-निकालते. इतना ख़ुद को तराशा होता, तो फ़रिश्ते बन जाते… वो गुलज़ार की आवाज़ मे खोई जा रही थी. मीनू आनंद से अपनी पाक कला में रमी रही. मन से पकाया और बेटे के साथ स्वाद लेकर खाया.
“बड़ी मम्मी ने पकौडे़ कितने अच्छे बनाए मम्मी. और ले लू्ं…”
“हां.. हां विनू ले लो. मैं तो सुबह ही गरमागरम खा चुकी.”
“कितने ज़ायकेदार बिल्कुल मेरी बड़ी मम्मी जैसे…” विनू खाता रहा और बोलता रहा.
खिड़की से शीतल हवा आ रही थी. आज मौसम बादलों से सराबोर था और दोपहर का एक बज रहा था. अचानक ही कुछ सिहरन-सी हुई और मीनू का दिल जेठानी पर उदार होने लगा था. जेठानी बस दो साल ही तो बड़ी थी उससे, मगर उनके हर स्पर्श में उनकी हर बात में कमाल की परिपक्वता लगती थी. उसे बार-बार महसूस होता कि जेठानी के बगैर वो एक उदास और सुनसान पोखर ही होती. वो ही तो अपने स्नेह से उसके समूचे उदास पानी में एक लहर पैदा कर देती है. वो सचमुच एक ऐसी महत्वपूर्ण शख़्स थीं, जो अभी मीनू से परिभाषित तो नहीं हो पा रही थी, पर वो कुछ ऐसी तो थी, जो उसके मर्म पर और आंतरिक इच्छा पर राज करने लगी थीं. उनके बिना यहां परिवार में इतना आराम पाना मीनू के लिए तक़रीबन असम्भव ही होता. सोचते-सोचते ही उसको यह भी याद आया कि उसकी जेठानी यहां पर बिल्कुल ही अकेली महिला हैं और करोड़पति और समर्थ हैं. चार नौकर रखकर ठाठ से अकेले रह सकती हैं. इतनी बेमिसाल हैं कि अमीर होकर भी कहीं अलग न रहकर कितने प्रेम से उन तीनों के ही साथ रहती हैं.
उन्होंने ख़ुद अपने लिए किसी भी मनपसंद जीवन की कभी कामना तक नहीं की. बस, ख़ूब किताबें पढ़ने का शौक और कुछ नहीं चाहतीं.
कितनी ही बार वो मीनू को पांच-पांच हज़ार रुपए ऐसे ही निकाल कर दे देती हैं, जैसे दस रुपए के चार नोट हों, जबकि उसके अपने भाई-भाभी निपट कंजूस हैं. उसको याद आया कि जेठानी ने विनू के जन्म पर उसकी कितनी सेवा की, जबकि उसके भाई-भाभी ने यह सब देखकर भी उनको बस एक जेठानी समझा, बाकी ख़ास महत्व नहीं दिया, पर उसकी जेठानी ने कभी शिकायत तक नहीं की. बख़ूबी जानती हैं वो कि बुद्धि और तर्क से बस मजमेबाजी ही होती है, तमगे तो ख़ूब जीते जा सकते हैं, पर ज़िंदगी कतई नहीं. ज़िदगी कई बार मनुष्य की बुद्धि और तर्क दोनों से परे चली जाती है. उसकी जेठानी तो अपने में मगन रहनेवाली सरल और सहज महिला है. कभी किसी बात की शिकायत नहीं और वो ख़ुद कितनी कपटी और लोभी है.
जेठानी सुबह से रात तक रविवार को अकेले घर पर रहती हैं. और मीनू अपने पति और विनू के साथ सैर-सपाटा, पिक्चर, पिकनिक…
उसने कभी नहीं सोचा कि उनकी भी कोई उमंग होगी. ‘मैं कितनी गिरी हुई सोच रखती हूं…’ यह सब सोच-सोचकर आंसू बहाती रही. बेटे की नज़र बचाकर उसने मुंह धोया और उससे कहा, “विनू, आज मौसम बहुत ही ख़ुशनुमा है, चलो तुम्हारी बड़ी मम्मी की पसंद के ताजे करेले लेकर आते हैं. आज शाम को उनके लिए भरवां करेले बना देती हूं और तुम्हारे लिए पनीर परांठा.”
“पनीरवाला परांठा, वाह मम्मा.”
आठ साल का विनू झूम-झूमकर नाचने लगा और रसोई से एक थैला लेकर आ गया बोला, “मम्मी, आपके सेवा के तैयार हूं.” मीनू हंस पड़ी और पर्स निकाल लिया. अब दोनों घर से निकल पड़े. पूरा आकाश ही काले घने बादल से घिरा हुआ था. लग रहा है कि शाम हो गई.
“मम्मी, आज तो ऐसा मन कर रहा है कि गाते-झूमते हुए जाएं, हैं ना?.. विनू ने उछल कर कहा,.तो मीनू ने कहा, “हां हां.. मगर बिल्कुल किनारे-किनारे चलो.” मीनू ने अपने बेटे को साथ लेकर ख़ुद भी अपने कॉलेज के ज़माने को याद कर मस्त-मगन अंदाज़ में ही चल रही थी और मन ही मन गुनगुना भी
रही थी- पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में… वो तो मन ही मन गुनगुना रही थी कि विनू ने उसकी कलाई छूकर कहा, “मम्मी मम्मी, देखो ना अभी पूरी सड़क खाली है. चलो ना हम दोनों गाएं पंछी बनूं उड़ती फिरूं मस्त गगन में…”


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वो खिलखिलाकर हंस पड़ी और गाने लगी. विनू भी गाने लगा. मौसम वाकई में बहुत ही ख़ुशनुमा था, इसलिए मीनू करेले और प्याज़ ख़रीदने के बाद विनू के साथ ज़रा और दूर निकल आई. उसने फलों का एक ठेला देखा और रूक गई. जामुन बहुत ताजा लग रहे थे.
मीनू ने पूछ लिया, “यह जामुन कैसे दिए?”
फलवाली ने कहा, “दो सौ रुपए किलो.”
मीनू, “अरे, बहुत महंगा है.”
फलवाली, “हां, यह ख़ास जामुन है और पेड़ पर चढ़कर तोड़ा है. उसकी भी मजदूरी लगती है. सब जगह यही भाव है. कहिए कितने तोलूं?”
मीनू ने कहा, “नहीं, रहने दो यह आम तोल दो.” इतनी देर में फलवाली ने मीनू के बेटे की नज़र को ताड़ लिया. वो बार-बार जामुन ही देख रहा था. फलवाली ने उसको मुट्ठीभर जामुन दे दिए. बेटा बहुत ख़ुश हो गया. उसने कमीज की श खाली जेब आगे बढ़ा दी. फलवाली हंस-हंसकर दोहरी हो गई. उसने जामुन से जेब भर दी.
मीनू सब देख रही थी. उसने आम का मूल्य चुका दिया था. अब उसने मुट्ठी और जेब देखकर मन ही मन कुछ
हिसाब लगाया कि कितने जामुन है और पचास का नोट आगे बढ़ा दिया.
फलवाली, “अरे, ना, बिल्कुल नहीं. भगवान होते हैं बच्चे.”
मीनू नोट वापस लेकर घर आ गई.
घर आकर उसने बेटे को मिल्क शेक बनाकर दिया और भरवां करेलों की तैयारी मे जुट गई. आज तो ठीक साढ़े पांच बजे ही पति और जेठानी दोनों ही दफ़्तर से लौट आए थे.
पता लगा कि पति और जेठानी दोनों का भी आज जल्दी आने का ही मन था. अब घर पर फिर से चहल-पहल और रौनक छा गई. मीनू ने वो जामुन फ्रिज मे रख दिए थे, जो अब ख़ूब ठंडे हो गए थे. विनू ने होमवर्क कर लिया था, वो चटपट रसोई में एक प्लेट लेकर जामुन स्वाद लेकर खाने लगा था.
मीनू ने देखा पति और जेठानी भी आज जामुन ले आए थे. उसके बेटे की आज लॉटरी लग गई थी. पूरा परिवार जामुन खा रहा था. थोड़ी देर बाद बेटा अपने किसी दोस्त के पास खेलने चला गया.
अब तो मीनू ने वो पूरा क़िस्सा सुना दिया और बोल पड़ी, “ये फलवाले.. ये छोटे लोग ना, बस गरीब ही रहेंगे. अपने अभिमान के लिए ऐसे मुफ़्त जामुन कौन देता है भला..”
सब ख़ुश थे, मगर मीनू की जेठानी, तो इसलिए ख़ुश थी कि रसोई में पक रहे पसंदीदा कड़वे करेले घरभर में मीठी ख़ुशबू बिखेर रहे थे. और मीनू के वो सुबह वाले तकरार और भयंकर ग़ुस्से के नामोनिशान इस समय बिल्कुल ही मिट चुके थे.

पूनम पांडे

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