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कहानी- वारिस (Story- Waris)

     भावना प्रकाश
 
“वारिस शब्द का मतलब है- ‘वहन करनेवाला’. बच्चों को माता-पिता का वारिस इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे उनके संस्कारों का, अधिकारों का, कर्त्तव्यों का वहन करते हैं. ये सब काम लड़कियां भी कर सकती हैं और मैं एक दिन यह साबित करके दिखाऊंगा.” मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता.

विमान ने गति पकड़ी और एक झटके के साथ ज़मीन छोड़ दी. कुछ ही पलों में बादलों के ऊपर पहुंचकर स्थिर हो गया, पर मेरा मन इतनी आसानी से स्थिर कहां होनेवाला था? रह-रहकर पापा का कुछ कहने को आकुल चेहरा आंखों के आगे घूम जाता. तबीयत तो पापा की दो महीने से ख़राब थी, पर पिछले चार-पांच दिनों से जब फोन करो, तब यही जवाब मिलता कि पापा बात करने की स्थिति में नहीं हैं. कल फोन पर दीदी ने कहा, “पापा को आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया है. डॉक्टरों ने शरीर को प्रयोगशाला बना दिया है, पर वो कोई भी ट्रीटमेंट स्वीकार ही नहीं कर रहा. डॉक्टर कह रहे हैं, जिसे बुलाना हो बुला लीजिए, दुआ कीजिए. पापा बार-बार कहे जा रहे हैं कि तुझसे कुछ कहना है…” उनके आगे के शब्द सिसकियों में खो गए. मेरे दिल में एक हूक-सी उठी, पति सोमेश ने देखा, तो तुरंत हिम्मत बंधाई, “मुझे तो किसी भी हालत में छुट्टी नहीं मिल सकेगी, पर तुम पहली फ्लाइट लेकर निकल जाओ.”
मैंने पीठ सीट पर टिकाकर पलकें मूंद लीं और मन को बादलों की तरह यादों के आसमान में खुला छोड़ दिया. मैं जानती थी कि वे मुझसे क्या कहना चाहते थे और वो मैं उनके मुंह से सुनना नहीं चाहती थी, इसीलिए उनको मौक़ा ही नहीं देती थी. शादी के बाद पांच सालों में स़िर्फ दो बार गई थी मायके. शादी की धूमधाम में चाचा किसी से बातें कर रहे थे और सुन लिया था मैंने कि मम्मी ने मुझे जन्म नहीं दिया था. अंत में वे बोले थे, “वैसे भाईसाहब हैं तो क़ाबिल-ए-तारीफ़. अब उसे एक ग़लती कहो या दो पल की भावुकता, पर उसे सारी ज़िंदगी निभा दिया उन्होंने.” टूट-सी गई थी मैं सच्चाई जानकर. ‘जिस पापा को मैंने आदर्श के रूप में देखा, एक समाजसेवक और सुधारक के रूप में जाना, मैं उनकी दो पल की भावुकता का नतीजा थी? उनकी एक ग़लती?’ पापा से कह तो कुछ नहीं पाई, पर उसके बाद से वो ख़ामोश पीर दिल में पर्वत-सी जमकर उनसे एक दूरी बनाती गई. वो पीर पिघलती भी कैसे? कुछ कहती भी तो किससे? मेरी सुनता ही कौन था पापा के अलावा?
बचपन से ही मैंने बाकी लोगों का प्यार दीदी के पलड़े में और पापा का प्यार अपने पलड़े में कुछ ज़्यादा पाया. पापा की यादें मिश्री की तरह मन में मिठास बनकर घुली थीं, चिड़ियों की चहचहाहट-सी कानों में संगीत बनकर घुली थीं, परी देश के सुंदर सपनों-सी आंखों में घुली थीं… मेरे जन्मदिन के लिए कुछ अलग-सी पोशाक या मेरा कोई फ़रमाइश किया हुआ खिलौना ढूंढ़ने के लिए बाज़ार खंगालते पापा, विज्ञान के प्रयोगों के लिए मॉडल बनाते और उनका प्रयोग सिखाते पापा, मेरी पुस्तकों की रुचि को बढ़ावा देने के लिए हर पुस्तक मेले में उंगली पकड़कर घुमाने ले जाते पापा, चलते-फिरते, उठते-बैठते कहानियां सुनाते या विज्ञान की पहेलियां बुझाते पापा, साइकिल सिखाने के लिए मुझे उस पर बिठाकर उसके पीछे भागते पापा.शहर के एक छोर पर दादी की बड़ी-सी हवेली थी. पहले वो गांव के छोर पर थी, पर जब शहर ने गांव को ख़ुद में समेट लिया, तो शहर में आ गई थी. उसमें रहता था दादी और उनके तीन बेटों का परिवार, जिसमें दादी का ही वर्चस्व चलता था. घर के मामले में छोटे-बड़े फैसले वही लेती थीं. बैठक या रसोई ही नहीं, नाती-पोतों के जीवन भी वही नियंत्रित करतीं. लड़कों के लिए महंगा पब्लिक स्कूल और लड़कियों के लिए पास का सरकारी स्कूल. लड़के पास के पार्क में या स्टेडियम में क्रिकेट खेलने जाते और लड़कियों के लिए पीछे किचन गार्डन में आम के पेड़ पर झूला था. यों तो सभी लड़कियां उनके लिए दूसरे दर्जे की नागरिक थीं, पर मुझसे उन्हें विशेष चिढ़ थी. उनसे यदि कोई बहस करने की हिम्मत रखता था, तो वे थे पापा. हालांकि मैंने सुना था कि दादी पापा को सबसे ज़्यादा प्यार करती थीं. उन्होंने अपने कुछ गहने बेचकर बाबा की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ पापा को शहर पढ़ने भेजा था, पर उनकी पढ़ाई से सबसे ज़्यादा नाराज़ भी वही थीं. पढ़ाई ने उन्हें तर्क करना और सभी औरतों की, पत्नी और बेटियों की भी इज़्ज़त करना सिखा दिया था. पढ़-लिखकर वो गांव के सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गए थे और सारे गांव में शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने का काम शुरू कर दिया था. जो लोग कल तक हवेली का गेट छूने की भी हिम्मत नहीं करते थे, वो बेख़ौफ़ पापा से मिलने दालान में आने लगे थे. ऐसी शिक्षा का फ़ायदा उनकी समझ से बाहर था, जो अपने से ज़्यादा दूसरों के बारे में सोचना सिखा दे. मुझे दादी से बहस करने की इजाज़त तो पापा ने कभी नहीं दी, पर मेरा उनसे सदा शीत युद्ध चलता रहा.
दादी किसी न किसी बहाने से मुझे भाइयों से कमतर साबित करने की कोशिश करतीं और मैं ख़ुद को उनसे बेहतर साबित करने के लिए जूझती रहती. पापा बड़े प्यार से समझाते, “मुझे यक़ीन है कि मेरी बिटिया ख़ूब पढ़ेगी और एक दिन साबित कर देगी कि वो लड़कों से कम नहीं है. मैं उस दिन का इंतज़ार करूंगा.” पापा के वो वाक्य मेरी प्रेरणा बनते गए और मैं पापा की परछाईं बनती चली गई. मैं पापा के साथ ही खाती, खेलती और उनकी पढ़ाई की मेज़ पर बैठकर पढ़ती रहती. निस्वार्थ भाव से अनपढ़ों की, पर्यावरण की, ग़रीबों की सेवा और सहयोग करना मैंने उनसे सीखा.
उनकी मेहनत से गांव में पक्का स्कूल, अस्पताल, पुस्तकालय आदि बने और मैं सरकारी कार्यालयों के चक्कर लगाने, अर्ज़ियां लिखने, तरह-तरह के लोगों से मिलने के दौरान हमेशा उनके साथ रही. पर सबसे ब़ड़ी चीज़ जो उन्होंने मुझे विरासत में दी थी, वो थी ज्ञान की भूख, जिसने मुझे संघर्ष करना सिखाया, इतने ऊंचे पद पर पहुंचाया. उन्हें स्वाध्याय का बहुत शौक़ था. वो पुस्तकालय जाते, तो मुझे भी उंगली पकड़ाकर साथ ले जाते. सारे रास्ते मैं उनसे तरह-तरह के सवाल पूछती जाती और लौटते समय वहां की पत्रिकाओं में पढ़ी कहानियां सुनाती. मुझे मंच की हर गतिविधि में भाग लेने का बहुत शौक़ था. वाद-विवाद हो, भाषण हो, मोनो ऐक्टिंग या कुछ और- पापा मेरे लिए एक दिन में इतना अच्छा आलेख तैयार करते कि अध्यापिका उसे देखते ही मेरा चुनाव कर लेतीं. मेरे लिए बचपन की सबसे सुनहरी यादों में हैं वे दिन, जब पुस्तकालय के रास्ते में पापा अक्सर मुझे किसी प्रतिस्पर्धा का आलेख भाव-भंगिमा के साथ याद करा रहे होते और राह चलते लोग उन्हें ऐसे बोलते देखकर अजीब-सी निगाहों से घूरते या हंसते. पर पापा किसी की परवाह न करते. समय ही नहीं था उनके पास किसी की परवाह करने का.
मैं छोटी थी, तो अक्सर मम्मी का आंचल पकड़कर उनके पीछे-पीछे चलती रहती कि वो मेरी ओर ध्यान दें, पर वो ध्यान न देतीं. पापा मुझे देख लेते, तो तुरंत गोद में उठाकर लॉन में ले आते और किसी पौधे के बारे में बताकर मेरा ध्यान बंटाने लगते.
जब मैं कोई ट्रॉफी लेकर आती, तो पहले बैठक में लगे शोकेस में रखने की कोशिश करती. दादी सख़्ती से मना कर देतीं. मम्मी के कमरे में रखती, तो मम्मी उसे स्टोररूम में डाल देतीं. एक दिन जब मैं ट्रॉफी लेकर आई, तो पापा घर में नहीं थे. मैं मम्मी से लिपट गई और ट्रॉफी उन्हें पकड़ा दी. मम्मी ने उसी समय स्टोररूम खोला और ट्रॉफी उसमें डालते हुए कहा, “अब बस भी करो, पूरा स्टोररूम तुम्हारे कूड़े से भर गया है.” मेरी आंखें छलछला आईं. मुझे देखकर दीदी भी रो पड़ीं. पापा आए, तो उन्होंने उन्हें पूरी बात बताई. दूसरे दिन पापा लकड़ी ख़रीद लाए. सारी रात अपने हाथों से एक शेल्फ बनाया. दूसरे दिन दालान में बने उस कमरे में दीदी मुझे आंख पर पट्टी बांधकर ले गईं, जहां मैं और पापा ग़रीब बच्चों को पढ़ाते थे. पट्टी खोली, तो शेल्फ पर मेरी ट्रॉफियां सजी थीं. ऊपर एक तख्ती टंगी थी, जिस पर लिखा था-‘संवेदना- लड़कियों की प्रेरणा’ मेरी आंखें एक बार फिर छलछला आई थीं, पर इस बार ख़ुशी से.
जीवन के हर क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट करने के लिए, ख़ुद को साबित करने के लिए मेरे अंदर एक जुनून था. ये जुझारूपन पापा की प्रेरणा और सहयोग से, दादी की प्रताड़ना और मम्मी की बेरुखी से बढ़ता ही गया. मैं पांचवीं कक्षा में थी, जब मैं एक प्रदेश स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने प्रसिद्ध कॉन्वेंट स्कूल गई. प्रथम पुरस्कार लेकर लौटी, तो पापा से लिपट गई. “मेरी परी पापा से क्या इनाम लेगी?” मेरी बड़ी-सी ट्रॉफी कुछ देर निहारने के बाद पापा ने पूछा था. “मुझे उसी कॉन्वेंट स्कूल में एडमिशन चाहिए पापा.” यह कहकर मैं बड़ी देर तक उस स्कूल की ख़ूबसूरती और सुविधाओं के बारे में बताती रही और पापा अपलक मुझे देखते रहे. फिर जैसे मेरे एक बार किसी खिलौने या कपड़े के लिए कहने पर वो आ जाता था, वैसे ही दूसरे दिन उस स्कूल का फॉर्म आ गया.
नए स्कूल की फीस महंगी थी और उससे ज़्यादा महंगे थे उसके नखरे. कभी वार्षिकोत्सव, तो कभी स्टडी टूर, तो कभी किसी कार्यक्रम के लिए मंच की पोशाक. कभी किसी प्रतियोगिता के लिए क़िताबें, तो कभी किसी प्रतिस्पर्धा के लिए मॉडल. ये तो बहुत बड़ी होने पर पता चला था कि मेरी छोटी-बड़ी फ़रमाइशें पूरी करने के लिए पापा रात-रातभर जागकर अनुवाद कार्य करते थे. जब दीदी की शादी तय हुई, तो दादी मेहंदीवाले दिन अपने गहनों का एक सेट लेकर आईं, तो दीदी ने पूछा, “इसमें से कौन-कौन-से संवेदना के हैं और कौन-से मेरे?”
“ये सारे तेरे हैं.” दादी ने उत्तर दिया. तीनों लड़कों के लिए एक-एक सेट बना रखा है मैंने. जिसकी जितनी छोरियां उतने हिस्से कर देवे हूं. तू अकेली है, तो…” ‘अकेली???’ उस दिन मेरी आंखों से सैलाब बह निकला. गहनों का मुझे शौक़ न था मगर… “तू चिंता मत कर, मैं चुपके से आधे गहने तुझे दे दूंगी.” दादी के जाने के बाद ये कहकर दीदी मेरे आंसू पोंछते-पोंछते मुझसे लिपटकर रो दी थीं. उन्होंने पापा को बताया, तो उन्होंने हंसकर मुझे समझाया था, “तू सारे काम लड़कोंवाले करती है न? इसीलिए दादी तुझे लड़की गिनतीं ही नहीं.”
समय का पहिया घूमता रहा. मैंने दसवीं में ही तय कर लिया था कि मुझे डॉक्टर बनना है. मेडिकल की कोचिंग का ख़र्चा दादी के कान में पड़ा, तो उन्होंने बखेड़ा खड़ा कर दिया. पापा ने साफ़ कह दिया कि जब ख़र्च मैं कर रहा हूं, तो आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. मैंने प्रवेश परीक्षा की तैयारी में दिन-रात एक कर दिए. मैं सुबह पांच बजे उठती, पापा साढ़े चार बजे उठकर गीज़र ऑन कर देते. मैं नहा-धोकर पूजा करके पढ़ने बैठती, तो पापा गरम कॉफी और अंकुरित सलाद के साथ स्टडी टेबल पर मेरा स्वागत करते. हमारी तपस्या प्रखरतर होती गई और वरदान बड़े. पहले मैंने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में टॉप किया, फिर मेडिकल में, फिर सर्जन की विशेष योग्यता में और अंतिम वर्ष कैम्पस इंटरव्यू में ही मेरा चयन दिल्ली के प्रख्यात हॉस्पिटल में हो गया.
पहली कमाई पापा के हाथ पर रखकर मैं ख़ुशी के आंसू ख़ूब रोई थी. उनके कहने पर ही उन पैसों से सारे परिवार के लिए उपहार लाई. पर महंगी पशमीना शॉल को देखकर दादी ठंडी सांस भरकर बोलीं, “चार दिनों की चांदनी है, नहाय लो, शादी के बाद तो अपने ससुरालवालों को ही देवेगी. छोरी तो छोरी ही ठहरी.”
कॉन्वेंट स्कूल ने मुझे ज्ञान के साथ वो स्मार्टनेस भी दे दी थी, जिसके कारण मेडिकल कॉलेज में बहुत से लोगों ने मुझे प्रशस्ति भरी नज़रों से देखा. बहुत से हाथ मेरी ओर बढ़े, पर यहां पापा के साथ की गई समाजसेवा के दौरान कमाया व्यावहारिक ज्ञान बहुत काम आया. हर तरह के लोगों के संपर्क में आकर मेरी नज़रें पैनी और पारखी हो गई थीं. वो दिखावे और प्रेम के बीच का फ़र्क़ पहचानती थीं, इसीलिए मैंने साधारण रूप-रंग और सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले संवेदनशील सोमेश को चुना. हमारे स्वभाव और जीवन के प्रति नज़रिए के अलावा हममें कुछ भी समान न था. भाषा, जाति, प्रांत कुछ भी नहीं. मैंने उन्हें अपने दहेज न लेने के संकल्प के बारे में बताते हुए यह भी कह दिया कि पापा की परीक्षा में उन्हें पास होना पड़ेगा. सोमेश से पापा क़रीब दो घंटे बातें करते रहे और उनके जाने के बाद मुझे गले लगाकर रो पड़े, “मेरी परवरिश सफल हो गई. शाबाश बेटा, तुझे इंसान पहचानना आ गया. ये लड़का तेरी रूह का सुकून और हमक़दम बन सकेगा. इंसान को जीवनसाथी से बस यही तो चाहिए होता है.”
“मम्मी, मेरी बेल्ट बांध दो.” बेटी ने झिंझोड़ा तो मेरी तंद्रा भंग हुई. विमान लैंड होने का एनाउंसमेंट हो रहा था. मैंने एयरपोर्ट से सीधे हॉस्पिटल के लिए टैक्सी कर ली.
आईसीयू के शीशे से पापा को देखा और आंखों से सैलाब उमड़ पड़ा. दीदी वहीं थीं. वो एक पल के लिए भी पापा को अकेला नहीं छोड़ती थीं. पापा ने मुझे देखा, तो उनके चेहरे पर चमक आ गई. मुझे इशारे से अंदर बुलाया, तो दीदी भी मेरे साथ अंदर आ गईं. पापा मुझसे बोले कि मुझे तुझसे कुछ कहना है, तो दीदी बोल उठीं, “आपको डॉक्टर ने ज़्यादा बोलने से मना किया है. मैं आपके सामने बताती हूं, कुछ ग़लत हो, तो आप बोलिएगा.” पापा चुप हो गए और दीदी ने कहना शुरू किया.
“मेरे पैदा होने के समय ही मम्मी का ऐसा ऑपरेशन करना पड़ा था कि फिर वो कभी मां नहीं बन सकती थीं. पापा का वारिस पाने के लिए दादी ने उन पर दूसरी शादी का दबाव डालने की कोशिश की, पर सफल नहीं हुईं. बहुत लड़ाई के बाद उन्होंने कहा कि पापा एक लड़का गोद ले लें. ये सुझाव पापा को पसंद आ गया. अनाथाश्रम गए, तो पता चला कि लड़की तो तुरंत मिल सकती है, पर लड़के के लिए अर्ज़ी देकर
दो-तीन साल प्रतीक्षा करनी पड़ेगी. अभी कई लोगों की अर्ज़ी पड़ी है.
अर्ज़ी डालनेे के बहुत समय बाद अनाथाश्रम से फोन आया. अनाथाश्रम के आंगन में मंदिर था. तू वहीं खड़ी थी. यही कोई दो-तीन साल की. पापा ने हाथ जोड़े, तो तू पापा कहकर उनसे लिपट गई और सुबककर रोने लगी. पापा ने तुझे चुप कराने के लिए गोद में ले लिया, “पापा, अब आप मुझे कभी नहीं छोड़ना, मैं आपकी गोदी से नहीं उतरूंगी, नहीं तो आप फिर खो जाओगे.” कहकर तूने बांहें उनके गले में कस दीं. “नहीं उतारूंगा बेटा, रो मत.” कहते हुए पापा की आंखों में आंसू आ गए. वॉर्डन ने बताया कि कोई औरत एक हफ़्ते पहले यह कहकर छोड़ गई है कि पापा आकर ले जाएंगे. तब से हर आनेवाले के पैरों में पापा कहकर लिपट जाती है. “कोई बात नहीं, समझ जाएगी कुछ दिन में.” कहकर वॉर्डन ने जितना तुझे छुड़ाने की कोशिश की, तू उतने ही करुण क्रंदन के साथ उनसे और लिपटती गई. पापा को तुझ पर द…” दीदी इतना बोली थीं कि पापा ने हाथ के इशारे से उन्हें रोक दिया.
“आगे की बात मैं ख़ुद बताऊंगा. मैं तुझे ये सब अपने मुंह से ही इसीलिए बताना चाहता था कि कोई और बताएगा तो एहसान लगेगा, दया लगेगी, पर तू मेरी दया या भावुकता नहीं, जीवन दर्शन है. मेरे दिल ने तो उसी दिन से लड़की गोद लेने का इरादा कर लिया था, जिस दिन वॉर्डन ने कहा था कि लड़कों के लिए लोग प्रतीक्षारत हैं और लड़कियां… तेरी मम्मी को कई बार समझाने की कोशिश कर चुका था कि अगर लड़कों का भविष्य सुरक्षित है ही, तो क्यों न हम लड़की ही ले लें?”

“हम बच्चा गोद लेने नहीं, अपने वारिस की कमी पूरी करने जा रहे हैं.” तेरी मम्मी का जवाब होता.
“वारिस शब्द का मतलब है- ‘वहन करनेवाला’. बच्चों को माता-पिता का वारिस इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे उनके संस्कारों का, अधिकारों का, कर्त्तव्यों का वहन करते हैं. ये सब काम लड़कियां भी कर सकती हैं और मैं एक दिन यह साबित करके दिखाऊंगा.” मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता.
अनाथाश्रम जाने के लिए निकला, लेकिन मन अनमना-सा था. अनाथाश्रम से एहसान जताते हुए फोन आया था और जो हाथ हमेशा देने के लिए उठे थे, वो लड़का मांगने के लिए उठना ही नहीं चाहते थे. वहां मंदिर देखा, तो हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद जुड़ गए और ईश्‍वर ने तुरंत मेरी समस्या का समाधान कर दिया व मैंने एक निर्णय ले लिया. तुझे गोद लेकर लौटा, तो तेरी दादी आरती लेकर इंतज़ार कर रही थीं. उन्होंने पूछा कि लड़का कहां है, तो मैंने कहा, “उसे कोई ज़रूरतमंद ले गया और मैं किसी और ज़रूरतमंद को ले आया हूं. जो बच्ची श्रद्धा भरे मन से हाथ जोड़ते समय पापा बोलकर लिपट गई, वो ईश्‍वर का वरदान है. मैं इसे नहीं छोड़ सकता था. हां, अगर किसी दिन कोई बेसहारा लड़का मिल गया, तो मैं उसे भी अपना लूंगा.” पापा बोल रहे थे और मेरी आंखों से हिमालय-सी जमी पीर पावन गंगा बनकर बह चली थी.
काश! मैं पापा की बात पहले सुन लेती, तो इतने साल इस टीस के साथ तो न बिताती कि मेरे पापा के चरित्र में कभी खोट आई थी. ईश्‍वर का लाख-लाख शुक्र था कि पापा को पता नहीं चला कि मैंने कभी उन पर संदेह किया था.
तभी डॉक्टर आ गए और मैं आंसू पोंछते हुए डॉक्टर को अपना परिचय देकर उनसे विचार-विमर्श करने लगी. उनके जाने के बाद दीदी मुझे एक किनारे ले गईं, “इन रिपोर्ट्स से कुछ पता नहीं चलेगा. मैं तुझे असली बात बताती हूं. दोनों चाचा को अपना हिस्सा चाहिए, इसलिए हवेली बिक रही है और पापा से ये बर्दाश्त नहीं हो रहा. तू तो जानती ही है कि पापा ने लॉन, किचन गार्डन, बगीचा सब अपने खून-पसीने से सींचा है. दालान में उनका साक्षरता मिशन चलता है. उनकी जान बसती है हवेली में. दादी ने सारी ज़िंदगी सबको दबाकर रखा, अब उनकी ताक़त कमज़ोर पड़ने लगी है और सब चढ़ने लगे हैं. दादी भी इसे बेचना नहीं चाहतीं, इसीलिए दादी ने अपनी बाकी सारी ज़मीनें बेच दीं और मम्मी ने सारे गहने, फिर भी दोनों का हिस्सा पूरा करने में पचास लाख रुपए कम पड़ गए.” ये कहकर दीदी रो पड़ीं.
“मतलब, अगर पचास लाख का बंदोबस्त हो जाए, तो ये हवेली पापा के नाम हो जाएगी?”
“जो नहीं हो सकता, उसकी न सोच, ये सोच कि पापा को सदमे से कैसे बचाया जाए?”
मुझे लगा कि ये मेरे जीवन की सबसे कठिन परीक्षा की घड़ी है, पर सोमेश पर भी पूरा विश्वास था कि वो मुझे इस परीक्षा में अनुत्तीर्ण नहीं होने देंगे और वही हुआ. पैसे तो मेरे ही थे, पर उनकी सहमति भी तो ज़रूरी थी.
मैं और दीदी, मम्मी के साथ गए. वकीलों की उपस्थिति में सारी औपचारिकताएं पूरी करके ले आए और काग़ज़ात उनके हाथ पर रख दिए.
पापा ने एक बार काग़ज़ देखे, फिर मुझे देखा और ग़ुस्से से बोले, “ये सब क्या है? ये मैं नहीं ले सकता. आख़िर बेटी हो तुम!”
“स़िर्फ बेटी? वारिस नहीं? आपने अपनी शिक्षा, जीवन-दर्शन और संस्कारों की विरासत मुझे सौंपने में कभी कंजूसी नहीं की, तो कर्त्तव्य की विरासत में कंजूसी क्यों? आज अगर आपने ये नहीं लिया, तो मैं ये मान लूंगी कि आप मुझे अपना वारिस नहीं मानते और मां ठीक कहती थीं, मेरी जगह आपको वारिस ही लेकर आना चाहिए था.”
निरुत्तर पापा ने मुझे गले लगा लिया. उनकी आवाज़ भर्रा गई, “फिर कभी ये मत कहना. तू मेरी वारिस ही नहीं, मेरा गुरूर, मेरी पहचान है.”

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Meri Saheli Team

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