कहानी- आज्ञा चक्र 1 (Story Series- Aagya Chakra 1)

प्रेरणा उसके ट्रूज़ों में इतनी सारी बिंदियां देखकर बोली थी, “ओ हो! क्या पूरे मोहल्ले में बांटेगी या शहर के नुक्कड़ पर अपनी बिंदियों की दुकान खोलेगी?

“नहीं-नहीं प्रेरणा, पर मैं चाहती हूं बिंदी कम नहीं होनी चाहिए. पूरा संसार बिंदीमय हो… ये ले…” और उसने बिंदी के कार्ड से गुलाबी रंग की बिंदी निकालकर प्रेरणा के माथे पर रख दी. प्रेरणा झल्ला उठी, “ना…ना… मुझे नहीं लगानी ये बिंदी-विंदी. बहनजी लुक देता है और हर समय ध्यान भी आंखों के बीच रहता है. इरिटेशन-सा लगता है.”

ओजस्वी चेहरा… हिरणी-सी आंखें… तेजस्वी माथा और उस पर गोल मैरून बिंदी दीपा को हमेशा आकर्षित करती थी. दीपा के कॉलेज में बॉटनी की प्रोफेसर वालिया जब पढ़ाते हुए अपने चेहरे के भाव व्यक्त करती थीं, तो उनके माथे पर कभी आड़ी सिलवटें, तो कभी खड़ी शिकन पड़ती और उसका असर उनकी गोल बिंदी पर पड़ता, जो आड़ी सिलवटों से ऊपर-नीचे हिंडोले लेती, तो कभी खड़ी शिकन के साथ दाएं से दबकर बाएं तरफ़ खड़ी हो जाती. ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं इस पूरे खेल में दीपा को महसूस होता कि वह बिंदी कहीं गिर ना जाए और वो अपनी चुन्नी की झोली फैलाए उनके चेहरे के नीचे उनकी बिंदी लपक ले और गिरने न दे. क्लास में प्रोफेसर वालिया के आते ही दीपा की नज़रें सबसे पहले उनकी बिंदी पर जातीं. वो अपने नोट्स लेने से पहले कॉपी के दाईं तरफ़ बिंदी का निशान बना लेती. एक दिन क्लास में उसके पास बैठी दीपा की सबसे ख़ास सहेली प्रेरणा ने पूछ ही लिया, “तू क्या बनाती है ये गोल-गोल.” वो बोली, “बिंदी, ये बिंदी कभी नहीं उतरनी चाहिए.” और वो दोनों हंस पड़ीं.

कॉलेज की पढ़ाई पूरी हुई, तो दीपा के माता-पिता ने उसका विवाह रचाकर अपना दायित्व पूरा कर दिया. विवाह की ख़रीददारी में उसने ढेर सारी बिंदियां ख़रीदीं. हर साड़ी के साथ मैचिंग बिंदियां हरी, नीली, पीली, लाल, बैंगनी उसकी कलेक्शन में सब रंग थे. कोई जगमगाती, तो कोई स्टोनवाली, कोई मोतीवाली तो कोई दोहरे रंगवाली, कोई गोल तो कोई लंबी तिलक के आकार में, कोई सितारा, तो कोई चांद के आकार में दीपा को तो बाज़ार में उपलब्ध हर वेरायटी चाहिए थी.

प्रेरणा उसके ट्रूज़ों में इतनी सारी बिंदियां देखकर बोली थी, “ओ हो! क्या पूरे मोहल्ले में बांटेगी या शहर के नुक्कड़ पर अपनी बिंदियों की दुकान खोलेगी?

“नहीं-नहीं प्रेरणा, पर मैं चाहती हूं बिंदी कम नहीं होनी चाहिए. पूरा संसार बिंदीमय हो… ये ले…” और उसने बिंदी के कार्ड से गुलाबी रंग की बिंदी निकालकर प्रेरणा के माथे पर रख दी. प्रेरणा झल्ला उठी, “ना…ना… मुझे नहीं लगानी ये बिंदी-विंदी. बहनजी लुक देता है और हर समय ध्यान भी आंखों के बीच रहता है. इरिटेशन-सा लगता है.”

“ना लाड़ो ना. ऐसा नहीं कहते. बिंदी तो सुहाग की निशानी होती है और कुंआरी लड़कियों के लिए अच्छे सुहाग की आशा भी. देख, तेरा चेहरा बिंदी लगाते ही कितना दमक उठा है.” दीपा की मां चाय लेकर कमरे में आई और दोनों सहेलियों की बातचीत में दख़ल देते हुए बोली. और ना जाने क्या सोचकर प्रेरणा ने अपने माथे की बिंदी नहीं हटाई.

वरमाला के समय जब दीपा तैयार होकर आई, तो उसकी नगवाली बिंदी लशकारे मार रही थी और उसके दोनों ओर कमानीदार भौंहों के सहारे लाल और स़फेद बिंदियों की कतार कनपटी पर जाकर समाप्त हो रही थी. प्रेरणा ने दीपा के कान में फुसफुसाते हुए कहा, “आज तो तेरी बिंदिया की इच्छा ख़ूब पूरी हुई.” दीपा लाज के मारे गुलाबी हो गई.

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दिव्यांश भी दीपा के बिंदी के शौक़ से जल्दी ही वाक़िफ़ हो गए थे, क्योंकि जब भी दिव्यांश दीपा को मोटरसाइकिल पर लॉन्ग ड्राइव पर ले जाते, वो वापसी में तंग गलियोंवाले बाज़ार में चलने की इच्छा ज़रूर प्रकट करती, क्योंकि तंग गलियों में बिंदी के कार्ड अच्छे मिलते हैं. कभी नुक्कड़ पर खड़े अस्थायी दुकान, तो कभी रास्ते पर सजी-धजी दुकानें, तो कभी राह से गुज़रनेवाले ठेले… दीपा कहीं भी बिंदी की ख़रीददारी करने से नहीं चूकती.

कभी-कभी तो दिव्यांश दीपा के इस शौक़ पर चिढ़ जाते, “अरे भाई! बिंदी का इतना भी क्या शौक़. आख़िर बिंदी का ये झंझट पालती ही क्यों हो.” दीपा पहले तो हंसने लगी, फिर आंखें मटकाते हुए बोली, “दिव्य! ये जो मस्तक पर आंखों के बीच और नाक के ऊपर का जो स्थान है ना, इसे आज्ञा चक्र कहते हैं और आज्ञा चक्र के पीछे हमारी ध्यान इन्द्रिय होती है. यहां लगाई गई बिंदी हमें हमेशा अपने इष्ट का ध्यान करवाती है. पुजारीजी भी अपने माथे पर गोल या लंबी बिंदी लगाते हैं ना. उनका इष्ट ईश्‍वर होता है और हमारे इष्ट मालूम है कौन हैं? हमारे इष्ट हैं आप.” और दीपा ने दिव्यांश का नाक पकड़कर अपने समीप खींच लिया. दिव्यांश दीपा के दर्शन पर स्तब्ध थे.

“दीपा, तुम कब से ये दर्शन बघारने लगी?”

हां! दीपा का ये बचकाना आकर्षण अब गहरे दर्शन में बदल गया था और दिव्यांश जब-तब इस दर्शन को छेड़ने लगे थे. यूं कभी तो दीपा का माथा बिंदी के बिना सूना नहीं रहता था, पर कभी अलसायी सुबह दीपा के सोकर उठने से लेकर नहाने तक कभी बिंदी से महरूम माथा देखकर दिव्यांश कहते, “भई, आज तो हम कहीं गिर गए…” तो दीपा हंस पड़ती. कभी लंबे तिलक की दिशा बदल जाती तो दिव्यांश कह उठते, “भई, आज तो हम टेढ़े हो गए हैं…” और कभी उल्टी बिंदी को देखकर दिव्यांश कह उठते, “भई, आज हम उल्टे कैसे लगे हैं.” और कभी-कभी तो दिव्यांश बिंदी के कार्ड से एक बिंदी निकालकर दीपा के माथे पर रखकर चुंबन लेते हुए कहते, “अरे भाई, हम यहां हैं.” और दोनों एक साथ ठहाका मारकर हंस पड़ते.

 संगीता सेठी

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