कहानी- आज भी कोई चोट लगे तो… 1 (Story Series- Aaj Bhi Koi Chot Lage To… 1)

‘…कहां ग़लती हो गई कि मेरी बेटी वो बन गई, जो मैं उसे सपने में भी नहीं बनाना चाहती थी… क्या उसे शिद्दत से वो सब देना ही ग़लत हो गया, जो मेरी ग़लतफ़हमी थी कि हमें न मिलना हमारे जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी थी? उसे बनाने के चक्कर में मैं ख़ुद को मिटाती गई, पर पलक के साथ बड़ी होती गईं उसकी ख़्वाहिशें, उसके नखरे, उसकी ज़िद और उसकी कड़वी ज़ुबान का कद. उसे सुंदर व्यक्तित्व में गढ़ने के हर निष्फल प्रयत्न के साथ याद आईं मां…

प्यास से हलक सूख रहा है. उठने की कोशिश की, तो एक टीस ने याद दिलाया कि डॉक्टर ने बिना किसी की मदद के करवट लेने को भी मना किया है. पलक दरवाज़े के पास दिखी, तो एक बार फिर ताक़त बटोरकर पुकारने की कोशिश की, “सुनो बेटा, मुझे प्या…” मगर उसने लापरवाही से कहा, “आती हूं न अभी.” और वहीं से मुड़ गई. पिछली बार जब उसके दरवाज़े पर आने पर मैंने पुकारा था और वो बिना कुछ कहे पलट गई थी, तो मुझे लगा था शायद मेरी आवाज़ उसने सुनी नहीं, लेकिन इस बार… क्या ये वही औलाद है, जिसके व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास को मैंने अपनी ज़िंदगी की तपस्या माना. अपनी ख़ुशी, अपना करियर, अपना हर सपना उसकी एक मुस्कान पर न्योछावर कर दरिया में डाल दिया.

वो औलाद मौत से लड़कर अस्पताल से लौटी अपनी मां को यूं बेबस छोड़कर फोन पर ठहाके मारकर अपने दोस्त से बातें कर रही है. इतनी संवेदनहीन? वो भी मात्र 14 वर्ष की उम्र में? प्यार तो छोड़ो इसके अंदर तो इतनी हमदर्दी भी नहीं, जिसके नाते पड़ोसी भी ऐसे व़क्त पर काम आ जाया करते हैं.  ऑपरेशन के टांकों के साथ एक टीस दिल में भी उठी और दर्द, बेबसी और निराशा में पगे दो आंसुओं के साथ दो लफ़्ज़ भी बेसाख़्ता ढुलक पड़े, “ओह मां!..” तकलीफ़ में आज भी सबसे पहले मां ही याद आती है.

पिछले एक साल में, जब से तबीयत ख़राब हुई है, शारीरिक सामर्थ्य के रेत की तरह हाथों से सरकने की ख़लिश से सामना हुआ है और साथ ही सामना हुआ है पलक के ग़ैरज़िम्मेदाराना और संवेदनहीन रूप का, तब से मां बहुत याद आने लगी हैं. छुट्टियां ख़त्म हो चुकी हैं इनकी. आज तो ये दवाइयां लेने गए हैं. कल से जब ये ऑफिस चले जाएंगे, तो दिन कैसे कटेंगे… कहा था इन्होंने कि पलक की छुट्टियां हैं, पर उसका कोई भरोसा नहीं. मां को बुला लो, पर मेरी ही हिम्मत नहीं पड़ी. किस मुंह से बुलाती. शादी के इन 18 सालों में कितनी बार मां-पिताजी की तबीयत ख़राब हुई. हर बार कोई न कोई दीदी उनकी सेवा के लिए गईं, पर मैं? मेरे पास हमेशा कोई न कोई बाध्यता रही. पहले नौकरी की, फिर पलक की. मम्मी कितना बुलाती रहीं, पर मैं तो पलक के किसी न किसी कोर्स के कारण गर्मी की छुट्टियों में भी कभी दो-चार दिन से ज़्यादा के लिए नहीं जा पाई. आज लग रहा है कि उन सब छुट्टियों का कर्ज़ उतारूं. पहले मां की गोद में सिर रखकर ख़ूब रोऊं, फिर ख़ूब सेवा करूं उनकी…

देवेश कमरे में आते ही सख़्त आवाज़ में चिल्ला पड़े, “पलक, मैं बताकर गया था कि मम्मा को हर 15 मिनट पर तीन-चार चम्मच पानी पिलाना है. ये ऐसे ही रखा है. कर क्या रही थीं तुम?”

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“क्यों, मुझे मम्मा को पानी पिलाने के अलावा और कोई काम नहीं है? स्कूल खुलते ही परीक्षाएं हैं, उनकी तैयारी कौन करेगा?”

देवेश का स्वर और सख़्त हो गया, “कितना समय लगता है पानी पिलाने में? और पढ़ाई का बहाना तो बनाना मत तुम. लगातार ऑनलाइन दिख रही थीं और फोन काट रही थीं, इसीलिए मुझे काम छोड़कर वापस आना पड़ा. समझ गया था कि तुम फोन लेकर दूसरे कमरे में हो.” ये चीख पड़े, मगर पलक के चेहरे पर रत्तीभर ग्लानि न आई. उतने ही आक्रामक अंदाज़ में बोली, “हां तो? फ्रेंड्स से बात करना क्या गुनाह है? एक हफ़्ते बाद फोन मिला है मुझे. ख़ुद तो सारे फोन लेकर अस्पताल में बैठे थे और यहां अपने सारे काम मुझे ख़ुद करने पड़ रहे थे.”

“पलक…” इनका हाथ उठने को आया, पर ध्यान मेरी ओर मुड़ा, तो रुक गया. मुझे पानी पिलाकर ये मेरे लिए कुछ बनाने रसोई में चले गए और मेरे मन में छोड़ गए चिंता और व्यथा का झंझावात.

‘…कहां ग़लती हो गई कि मेरी बेटी वो बन गई, जो मैं उसे सपने में भी नहीं बनाना चाहती थी… क्या उसे शिद्दत से वो सब देना ही ग़लत हो गया, जो मेरी ग़लतफ़हमी थी कि हमें न मिलना हमारे जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी थी? उसे बनाने के चक्कर में मैं ख़ुद को मिटाती गई, पर पलक के साथ बड़ी होती गईं उसकी ख़्वाहिशें, उसके नखरे, उसकी ज़िद और उसकी कड़वी ज़ुबान का कद. उसे सुंदर व्यक्तित्व में गढ़ने के हर निष्फल प्रयत्न के साथ याद आईं मां… मां की बातें, उनकी बेरुखी, उनके दंड, उनकी उपेक्षाएं, उनकी प्रताड़नाएं और इन सबके पीछे छिपा उनका प्यार. एक कुशल शिल्पी की तरह हमें आकार देने की उनकी योजनाएं, रूपरेखाएं…

अपने कंटीले प्रश्‍नों के उत्तर ढूंढ़ने आंसुओं के बादल पर सवार मैं उड़ती जा रही थी अतीत के गलियारों में. कानों में मां के स्वर गूंजते जा रहे थे, ‘ये काम करना है, मतलब करना है. जो दंड मिल गया, वो किसी हालत में कम नहीं हो सकता. आज मैं इन छोटी-छोटी लापरवाहियों पर दंड नहीं दूंगी, तो कल ज़िंदगी देगी और उसके दंड बहुत सख़्त होंगे…’

   भावना प्रकाश

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Usha Gupta

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