“जिनमें जुनून होता है, वो अध्ययन के लिए ज़रूरी समय निकाल ही लेते हैं. तू भी चुनौती मान ले ज़माने की पाबंदियों को. साबित करके दिखा कि लड़कियां लड़कों से कम नहीं और हां, जो काम तुम लोगों को सौंपे गए हैं, अच्छा
नागरिक बनने के लिए, सुखी और स्वस्थ जीवन जीने के लिए ज़रूरी हैं. उनसे पीछा कभी नहीं छूटेगा, ये जान लो.” मम्मी ‘बहस नहीं’ की सख़्त मुद्रा में आ जातीं और मेरे पास नए सिरे से समय-नियोजन के सिवा कोई चारा नहीं बचता.
व़क्त सच में कितनी ख़ामोशी से इतने ख़ूबसूरत जवाब लिखता गया था, जो अब पढ़ने में आते थे.
पहला दंड शायद सात साल की उम्र में पाया था. दो हफ़्ते तक टीवी बंद. तीसरी रात भूख हड़ताल कर दी थी मैंने. मां ने मेरा खाना थाली में लगवाकर दीदी से कहा, “अब ये थाली फ्रिज में रख दो. भूख लगेगी, तो खा लेगी.” पापा ने कहा भी कि जाने दो, बच्चा है, पर मां टस-से-मस नहीं हुईं. मां का मानना था कि हर संस्कार की तरह ग़लती पर सज़ा पाकर उसे सुधारने या सज़ा से डरने के संस्कार भी बचपन में ही पड़ते हैं. आदत न पड़ी, तो सीधे कैशोर्य में मिली सज़ा ग्लानि नहीं आक्रोश जगाती है.
चौथे दिन मेरे फूटकर रोकर ‘सॉरी’ बोलने पर बेरुखी का मुलम्मा उतारकर प्यार तो कर लिया था, पर तय दंड कम नहीं किया था. दादी के पानी मांगने पर इतना ही तो कहा था मैंने कि कार्यक्रम ख़त्म होने पर दे दूंगी. तब लगा था इतनी-सी बात की इतनी बड़ी सज़ा! ये तो समय के साथ समझ में आया था कि सज़ा पानी न देने की नहीं, मनोरंजन को कर्त्तव्य से ऊपर रखने की थी.
ऐसा था छोटे-से शहर में बड़ा-सा घर. दादी-बाबा, पापा-मम्मी, चाचा-चाची, उनके तीन बेटे, मेहमानों का हर समय का आना-जाना. सबके सुख-दुख, उत्सव-बीमारी में अनिवार्य भागीदारी के बीच हम तीन बहनों का संघर्षपूर्ण जीवन. मैं देखती कि चाची सारा दिन भइया लोगों की पढ़ने की मेज़ पर ही समय-समय पर नाश्ता, दूध आदि पहुंचातीं, उनका कमरा व्यवस्थित रखतीं, रिश्तेदारों और परिचितों से हर समय उनकी अच्छी-से-अच्छी कोचिंग और आगे की पढ़ाई के बारे में जानकारी प्राप्त करतीं. उन्हें पढ़ाई से संबंधित हर सामग्री मुहैया करातीं. जबकि हमारी मम्मी हर समय परिवार की तीमारदारी में लगी रहतीं. हम सब बहनें न केवल अपने सभी काम ख़ुद करते, बल्कि मिलकर घर का भी सारा काम निपटाते. सबका काम निश्चित था.
कोई घर में आता, तो नाश्ता-पानी कराने के लिए सबकी बारी बंधी थी. रिश्तेदारी में किसी की बीमारी या शादी हो, तो सहयोग के लिए मां के साथ किसी के वहां जाने की बारी बंधी थी. मैं देखती कि लड़कों के ऊपर कोई दबाव नहीं था, सिवाय पढ़ाई के, पर हम पर हर काम नियम से करने का दबाव था, सिवाय पढ़ाई के. भइया लोगों को एक बार कहने पर स्टेडियम में क्रिकेट जॉइन करा दिया गया और हमें कोई भी चीज़ सीखनी हो, तो मां चौकस चौकीदार की तरह जगह के माहौल, रास्ते का मुआयना करके अगर ठीक समझतीं, तो इजाज़त देतीं.
बुआ कहतीं, “भाभी, तुम्हारी बेटियां तो साक्षात् लक्ष्मी का रूप हैं. देखना मांगकर ले जाई जाएंगी.” चाची के यहां कोई एक दिन न टिकता. सब कहते, “इतने उधमी लड़के हैं कि घर कबाड़खाना लगता है और निर्मोही इतने कि किसी के आने-जाने से कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता.” तब दादी भाइयों का ही पक्ष लेतीं, “लड़के तो निर्बंध हवा होते हैं. आंधी के पांवों में बेड़ी कौन डाल सका है! लड़कियों की नाक में तो नकेल डालकर रखना ही पड़ता है, घर की इज़्ज़त हैं वो! लड़कियों के पर कतरते रहना ज़रूरी है, नहीं तो पतंग बनते देर नहीं लगती, जिसे कोई भी काट सकता है.” चाची भी इसमें शामिल हो जातीं, तो मेरा ग़ुस्सा भड़क उठता, पर मां मुझे चुप रहने का इशारा करके कहतीं कि जब हम चुप रह जाते हैं, तो हमारी ओर से व़क्त जवाब देता है.
दादी का सारा काम हम करते, फिर भी वो हममें ग़लतियां निकालती रहतीं. सारे परिवार का ध्यान रखने और रिश्ते निभाने का काम मम्मी करतीं, पर फिर भी वो हर समय लड़कियों को लड़कों से कमतर साबित करने में लगी रहतीं और चाची को मम्मी से भाग्यशाली, पर मम्मी ने मुझे कभी जवाब देने की अनुमति नहीं दी. वो अकेले में समझातीं, “बेटा, ससुराल हो या कार्यस्थल, हर जगह इंसान को अपनी जगह बनाने के लिए प्रतिभा और कर्मठता के साथ धैर्य और सहनशीलता की भी ज़रूरत पड़ती है. बुज़ुर्गों की ये वजह-बेवजह की टोका-टोकी उन्हीं गुणों को विकसित करने का अभ्यास-कार्य मान ले. मुझे अपनी बात रखने का मौक़ा मिल जाता, “पर मां, प्रतियोगिताओं के अभ्यास-कार्य के लिए समय मिलेगा, तब तो ये अभ्यास काम आएगा.” पर मां पढ़ाई के नाम पर मेरे लिए निश्चित किए गए किसी भी काम में छूट देने की बजाय किसी महापुरुष की कहानी सुनाकर बोलतीं, “जिनमें जुनून होता है, वो अध्ययन के लिए ज़रूरी समय निकाल ही लेते हैं. तू भी चुनौती मान ले ज़माने की पाबंदियों को. साबित करके दिखा कि लड़कियां लड़कों से कम नहीं और हां, जो काम तुम लोगों को सौंपे गए हैं, अच्छा
नागरिक बनने के लिए, सुखी और स्वस्थ जीवन जीने के लिए ज़रूरी हैं. उनसे पीछा कभी नहीं छूटेगा, ये जान लो.” मम्मी ‘बहस नहीं’ की सख़्त मुद्रा में आ जातीं और मेरे पास नए सिरे से समय-नियोजन के सिवा कोई चारा नहीं बचता.
व़क्त सच में कितनी ख़ामोशी से इतने ख़ूबसूरत जवाब लिखता गया था, जो अब पढ़ने में आते थे. जैसे-जैसे हम सब बड़े होते गए, मम्मी की बनाई कठिन दिनचर्या से पनपा जुझारूपन हम में स्वाध्याय का जुनून जगाता गया. सबके सुख-दुख में सौंपी गई अनिवार्य ज़िम्मेदारी हम में संवेदनशीलता जगाती गई. हमारे लक्ष्य उच्चतर होते गए और संघर्ष बड़े. हमने स्कूल, कॉलेज की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने के साथ प्रतियोगी परीक्षाएं भी निकालीं.
भावना प्रकाश
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