मानसी ने मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब वो कठपुतली की ज़िंदगी नहीं जीएगी. उसने जैसे अपने आपसे कहा, ‘अगर सूत्रधार की मज़बूत पकड़ से डोर नहीं खींच सकती तो क्या हुआ… अपने साथ जुड़ी डोर तो तोड़कर फेंक सकती हूं न… बस बहुत हो गया… अब मैं वही करूंगी, जो मुझे करना है. अपनी अस्मिता… अपने अस्तित्व… और बकौल प्रभात के मेरे भीतर समाहित ‘मैं’ का भी तो कोई मूल्य है न.’
मां मानसी का नीरस और एकाकी जीवन देख कर मन ही मन जैसे अंगारों पर लोटती रहती. कल ही तो विह्वल होकर मानसी से कहा था मां ने, “मेरे बाद पहाड़ जैसा एकाकी जीवन कैसे जीएगी मेरी बेटी. सच कहती हूं, कभी-कभी तो जी करता है तेरा दूसरा ब्याह रचा दूं… टकरा जाऊं समाज की बनाई सारी रीतियों से.”
मानसी की आंखें पीड़ा की अधिकता से भर आयीं. उसने धीमे स्वर में कहा, “पहले ये तो बताओ मां, समाज मुझे क्या दर्ज़ा देता है? ब्याहता का, परित्यक्ता का या विधवा का..? मेरी तो कोई पहचान ही नहीं. कभी-कभी सोचती हूं, माथे पर बिंदिया, मांग में सिंदूर क्यों लगाती रही हूं वर्षों से…? क्यों जीती रही हूं दोहरी ज़िंदगी? विवाहिता के छद्म आवरण में लिपटे अपने कौमार्य को, अपने सपनों को क्यों छलती आयी हूं आज तक..?”
कहते-कहते वो बिलख-बिलख कर रो पड़ी थी. परित्यक्ता शब्द जब किसी नारी के साथ जुड़ जाता है, तो वो किसी नासूर से कम पीड़ा नहीं देता. लाख जतन कर लिए जाएं, पर समाज एक नश्तर की तरह इस घाव को कभी भरने नहीं देता. क्या-क्या नहीं भोगा है मानसी ने. आज… पंद्रह वर्षों के बाद… ज़िंदगी के इस मोड़ पर प्रभात पुनः उसके जीवन में साधिकार प्रवेश चाहता है? और वो भी ऐसी स्थिति में, जब वो एक दुर्घटना में अपनी पत्नी और बच्चे को खो चुका है. आज जो सामाजिक संवेदना प्रभात के साथ है, वो वर्षों पहले मानसी के साथ नहीं थी. मां ने कहा था, “बेचारा…”
कल रात पहली बार मानसी ने घरवालों के सामने मुंह खोला, “मैं प्रभात के साथ नहीं जाऊंगी… अब बहुत देर हो चुकी है.” सब की आंखें हैरत से फटी रह गयीं. बड़े भैया ने क्रोध से कहा- “कुछ भी हो, तुम्हें उसके साथ जाना ही होगा… आख़िर वो तुम्हारा पति है.”
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मानसी के परिवार वाले उसकी चुप्पी को स्वीकृति समझकर ख़ुशी-ख़ुशी प्रभात के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे, पर मानसी ने मन ही मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब वो कठपुतली की ज़िंदगी नहीं जीएगी. उसने जैसे अपने आपसे कहा, “अगर सूत्रधार की मज़बूत पकड़ से डोर नहीं खींच सकती तो क्या हुआ… अपने साथ जुड़ी डोर तो तोड़कर फेंक सकती हूं न… बस बहुत हो गया… अब मैं वही करूंगी, जो मुझे करना है. अपनी अस्मिता… अपने अस्तित्व… और बकौल प्रभात के मेरे भीतर समाहित ‘मैं’ का भी तो कोई मूल्य है न.”
“मानसी, नीचे आओ न… क्या कर रही हो इतनी देर से?” बड़ी भाभी ने पुकारा तो उसकी तंद्रा भंग हुई. न जाने कब से वो ख़यालों में गुम थी. उसने अपनी सूनी मांग को देखा, फिर कुछ सोचकर ड्रेसिंग टेबल की दराज से सिंदूर की डिबिया निकाली और थोड़ा-सा सिंदूर मांग में भर लिया.
कितना आसान होता है पुरुष के लिए बंधन तोड़ देना, पर स्त्री का तो सारा वजूद ही सिंदूर की लाल रेखा के साथ बंध जाता है. सिंदूर और भावना का बड़ा गहरा नाता है. भावना कोई खर-पतवार नहीं, जिसे सहज ही उखाड़ कर फेंक दिया जाए. भावना तो विशाल वट वृक्ष की तरह होती है, जिसकी जड़ें गहरे तक मन में जमी होती हैं.
मानसी तैयार होकर नीचे हॉल में चली आयी और नौकर से कहा, “ऊपर जाकर मेरा सामान नीचे ले आ… और हां, एक टैक्सी भी ले आना.”
“अच्छा… जाने की इतनी उतावली? अभी तक तो प्रभात आया भी नहीं है.” छोटी भाभी ने चुहल की तो मानसी ने निर्विकार भाव से कहा, “मां… मैं जा रही हूं… कॉलेज कैम्पस में ही मुझे एक क्वार्टर मिल गया है, अब मैं वहीं रहूंगी… मैं जानती हूं, न तो ये घर मेरा है और न प्रभात का… मैं अपने घर जा रही हूं. और हां बड़े भैया, प्रभात आएं तो कह दीजिएगा, मैंने तो उनके लिखे पत्र का अक्षरशः पालन किया है. अपने भीतर समाहित ‘मैं’ का मूल्य ज्ञात है मुझे…. कभी उन्होंने जिस बंधन से मुझे आज़ाद करने की बात कही थी, आज उसी बंधन से मैं उन्हें मुक्त कर रही हूं.”
“तेरा दिमाग चल गया है क्या? लोग क्या कहेंगे?” बड़े भैया चीख पड़े.
“बेटी, सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते.” मां ने समझाना चाहा तो मानसी बिफर कर बोली, “सुबह का भूला? सुबह और शाम के बीच पंद्रह वर्षों का अंतराल नहीं होता मां. उस अंतराल की वेदना, उसकी चुभन, उसकी कसक का हिसाब मुझे कौन देगा मां? ये समाज..? परिवार..? या खुद प्रभात? प्रभात तो एक पुरुष है, अच्छी तरह जानता है कि वो चाहे जिस तरह से नारी की अस्मिता को रौंद डाले, नारी हर परिस्थिति में उसे अंगीकार करने पर विवश ही होगी. मां, आज तक मैंने आपके, भैया-भाभी के, समाज के और अपने मन में उठे हर प्रश्न का उत्तर दिया है, पर आज एक आख़री सवाल पूछती हूं… आख़िर स्त्री कब तक सहेगी? कभी तो विद्रोह का स्वर मुखर होगा ही… फिर शुरुआत मुझ से ही क्यों नहीं..? बोलो मां, शुरुआत मुझसे ही क्यों नहीं..?”
अपने आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश करती हुई मानसी तेज़ क़दमों से घर की दहलीज़ लांघ बाहर चली आयी. टैक्सी में बैठी तो न चाहते हुए भी अब तक अवरुद्ध अश्रु प्रवाह सारे बांध तोड़कर बह निकला. आंसू की हर बूंद एक ही सच्चाई को बयान कर रही थी कि नारी किसी भी बंधन को तोड़ना नहीं चाहती. हर बंधन में समा जाना ही तो नारीत्व है. पर आज की नारी अपनी अस्मिता और अपने
वजूद को अहमियत देती हुई हर बंधन निभाना चाहती है, इनकी क़ीमत पर नहीं.
डॉ. निरूपमा राय
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