अब सबका ध्यान इस तरफ़ गया. घर में इतनी बड़ी वारदात हो गई और माली जगजीवन अभी तक कैसे सो रहा है. समर पीछे की तरफ़ जाकर जगजीवन को आवाज़ देने लगा. लेकिन कोठरी से उसकी कोई आवाज़ नहीं आई. सभी एकदम सकते में आ गए, तो क्या माली इतनी बड़ी वारदात करके भाग सकता है.
… “हमें पहले पुलिस को इत्तिला कर देनी चाहिए… देर करने से हत्यारा पकड़ से दूर हो जाएगा.” अभय बाजपेयीजी बोले.
“हां आप ठीेक कह रहे हैं… मेरे पास है उस एरिया की चौकी का नंबर…” पास ही में खड़े शादी में आए एक रिश्तेदार ने कहा.
समर उससे नंबर लेकर मिलाने लगा. थाना इंचार्ज को सारा डीटेल बता कर सब कार में बैठ कर घर की तरफ़ चल दिए. शादी की ख़ुशी व इतने शानदार जश्न के बाद पिता की हत्या की घटना ने सबको ख़ामोश कर दिया था. कार में बैठे शंकर के मन में पिछले दिनों से घटी घटनाएं किसी चलचित्र की तरह चल रही थी. ऐसा लगता था कि जैसे पिता की हत्या अचानक नहीं हुई, बल्कि यह एक सुनियोजित साजिश है. लेकिन यह साजिश आख़िर कौन कर सकता है. वे सभी परिवारजन तो साथ ही थे. तो क्या किसी ने पैसे देकर पिता की हत्या की साजिश रच डाली. क्या ऐसा हो सकता है. लेकिन इतना क्रूर कौन हो सकता है, आख़िर पिताजी तो मरणासन्न स्थिति में ही थे. कुछ महीने या सालभर में वह अपनी स्वाभाविक मृत्यु से भी संसार त्याग सकते थे.
आख़िर उनकी मृत्यु से किसको फ़ायदा हो रहा था या फिर मारने से पूर्व हत्यारे ने उनसे किसी काग़ज़ पर उनका अंगूठा लगवा लिया. अभी तक पिताजी की वसीयत के बारे में तो वह स्वयं भी नहीं जानता कि उन्होंने अगर वसीयत की है, तो किसके पास रख छोड़ी है. क्योंकि घर में तो कहीं नहीं मिली थी. आम्रपाली में होने का सवाल ही पैदा नहीं होता. पिताजी के नाम कोई लाॅकर भी नहीं था, न यहां और न दिल्ली में… फिर.
शंकर का दिमाग़ पिता के मर्डर की गुत्थी को सुलझा नहीं पा रहा था. तीनों कारों में सभी ख़ामोश व हतप्रभ बैठे थे. सारे राज़ भविष्य के गर्भ में छिपे हुए थे. तभी घर से नंदन का फोन दोबारा आ गया. शंकर ने फोन उठा लिया.
“हां बोलो, क्या बात है?”
“भैया, पुलिसवाले आए हैं. क्या करूं भैया?” नंदन बोला.
“मेरी बात कराओ ज़रा…” नंदन ने फोन पुलिस इंस्पेक्टर को दे दिया.
“येस, इंस्पेक्टर देव स्पीकिंग.”
“सर, हम बस पहुंचने ही वाले हैं… हमारे आने तक वेट कर लें प्लीज़.” शंकर बोला.
“ठीक है.”
इस हड़बड़ाहट व अर्तद्वंद के बीच सब भूल गए थे कि सरस व रचिता कहां है.
पांच मिनट में सब आम्रपाली के गेट पर पहुंच गए. पुलिस इंस्पेक्टर देव अपनी टीम के साथ खड़ा था. शंकर ने कार से उतर कर अपना व अपने सभी परिवारजनों का परिचय दिया. अभय बाजपेयीजी भी साथ थे. शंकर ने उनका परिचय भी दिया कि वे वकील हैं और पिताजी के बहुत पुराने जाननेवाले व दोस्त रहे हैं. सब अंदर आ गए. दरबान को घूरता इंस्पेक्टर देव शिवप्रसादजी के कमरे तक पहुंचा. शिवप्रसादजी बिस्तर पर अचेत पड़े थे. उन्हें देख कर सभी की आंखें एक बार छलछला गईं. शालिनी की तो सिसकियां ही निकल गईं. शंकर ने शामी को उसे चुप कराने को कहा.
“आम्रपाली में इतने ही लोग रह रहे थे या आप लोगों के अलावा भी कोई था…” देव सब तरफ़ ध्यान से देखते हुए बोला.
“हमारे अलावा वेडिंग प्लानर सरस व उसकी पत्नी इंटीरियर डेकोरेटर रचिता भी रह रही थीं और पीछे क्वार्टर में माली जगजीवन है.”
“जो यहां हैं… उन सबको बुला दो… सबके बयान लेने होंगे.”
“सर, क्या मैं पिताजी के पास जा सकता हूं.” शंकर बोला.
“नहीं, कमरे में किसी भी वस्तु को कोई हाथ नहीं लगाएगा… और न ही डेड बाॅडी को… मैंने फोरेंसिक डिपार्टमेंट में ख़बर कर दी है… वे आते ही होंगें.” कह कर इंस्पेक्टर देव अपने मोबाइल से कुछ तस्वीरें लेने लगा.
थोड़ी देर में फोरेंसिक डिपार्टमेंट से दो लोग व डाॅक्टर भी पहुंच गए. कमरे की हर कोने की तस्वीरे ली गईं, फिंगर प्रिंट्स व डाॅक्टर ने डेड बाॅडी को देखा. प्रथम दृष्टया ऐसा लग रहा था कि मुंह दबा कर सांस रोकी गई, क्योंकि गले पर उंगलियों के निशान नज़र नहीं आ रहे थे, जिससे लगे कि गला दबाकर हत्या की गई.
“बाॅडी के पोस्टमार्टम से ही असली कारण पता चलेगा.” डाॅक्टर देव से कह रहा था. सुनकर चारों भाई-बहन का हृदय कसक गया. वरूण बोला,
“सर, उनके शरीर में हैं ही क्या पोस्टमार्टम के लिए… शरीर की छीछालेदर हो जाएगी.”
“केस की छानबीन करने के लिए पोस्टमार्टम तो करना ही पड़ेगा… क्या यह बताने की ज़रूरत है.” वरूण चुप हो गया.
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इंस्पेक्टर देव हाॅल में कुर्सी पर बैठ गया और अपने अस्सिटेंट से सबके बयान लेने को कहा.
“घर में उस समय सिर्फ़ दरबान रामसिंह, नदंन व जगजीवन तीन ही लोग थे, इसलिए पहले इन तीनों के ही बयान ले लो.”
रामसिंह ने बताया कि सबके जाने के बाद रात गेट बंद कर अंदर से लाॅक कर दिया था और वह बगल में ही बने अपने केबिन में कुर्सी पर ही अधलेटा-सा बैठा था.
“तुम्हें नींद आ गई होगी… तब किसी ने गेट खोल दिया होगा.” देव का अस्सिटेंट पुरू बोला.
“नहीं मैं ऐसा नहीं सोया था कि कोई गेट खोल दे. गेट की एक ही चाबी है, जो हमेशा मैं अपनी जेब में रखता हूं.”
नंदन ने जो कुछ शंकर को बताया था. सब कुछ वैसा ही पुलिसवालों को बता दिया.
“जगजीवन को बुलाओ. वो कहां है.. सभी लोग यहां पर हैं फिर इतनी देर से यह शख़्स कहां नदारद है.” इंस्पेक्टर देव आश्चर्य से बोला.
अब सबका ध्यान इस तरफ़ गया. घर में इतनी बड़ी वारदात हो गई और माली जगजीवन अभी तक कैसे सो रहा है. समर पीछे की तरफ़ जाकर जगजीवन को आवाज़ देने लगा. लेकिन कोठरी से उसकी कोई आवाज़ नहीं आई. सभी एकदम सकते में आ गए, तो क्या माली इतनी बड़ी वारदात करके भाग सकता है. देव ने अपने साथ आई पुलिस टीम को पीछे जाकर सभी कमरों व पेड़ों के आसपास की जगहों की तलाशी लेने को कहा. पुलिस टीम सब जगह फैल गई. जगजीवन का कहीं अता-पता नहीं था.
देव भी इधर-उधर अपनी खोजी नज़रें दौड़ा रहा था कि एकाएक एक पुलिसवाला ज़ोर से चिल्लाया, “सर, यहां देखिए.” इंस्पेक्टर देव दौड़ कर वहां तक पहुंचा और साथ में शंकर, समर व वरूण भी.
“अरे, यह क्या?” दहशत से, सबके मुंह से एक साथ निकला.
पहले दिन रात को जब सब घर से विवाह स्थल के लिए चले गए, तब सारी व्यवस्था ठीक-ठाक करके जगजीवन 12 बजे अपने कमरे में पहुंचा, तो रंजीत को अपने कमरे में देखकर आश्चर्यचकित रह गया.
“तुम! यहां कैसे आ गए?”
“क्यों, ससुर के घर दामाद नहीं आ सकता क्या.” रंजीत धृष्टता से बोला. वह नशे में था.
“मेरा कोई दामाद नहीं है और फिर अब तो मेरी बेटी भी ज़िंदा नहीं है, तो तुमसे भी मेरा कोई नाता रह गया.” जगजीवन घृणा से बोला.
“बेटी न सही तुम्हारी नातिन का पिता तो मैं ही हूं.” रंजीत कुटिलता से मुस्कुराया, “बुढ़ऊ ने तुम्हारे नाम भी तो कुछ रुपया किया है, बस वही पूछने आया था.”
“यह सब तुम्हें कैसे पता?” जगजीवन अचानक बुरी तरह चौंक गया.
“तुम्हारा दामाद हूं आख़िर मेरा भी तो कुछ हक़ बनता है. अपना हक़ मांग लो.” रंजीत गंभीर होकर बोला.
“ख़बरदार जो ऐसी बात मुंह से निकाली. वर्षों सेवा की है इस परिवार की. जब कोई न था, तो मैं ही था मालिक के साथ… स्नेहवश उन्होंने उस समय कह दिया, मैं उस बात को भूल गया. तुम यहां से कृपा करके चले जाओ.” जगजीवन कातर स्वर में बोला.
“तुम भूल गए ससुरजी, पर मैं नहीं. तुम बुढऊ से अपना हिस्सा मांगो और मुझे दे दो. नहीं तो मेरी बेटी दे दो.” रंजीत का स्वर भयावह रूप से डरावना था.
”ताकि तुम उस मासूम को किसी के हाथ बेच दो.” जगजीवन ग़ुस्से में बोला.
”मेरी बेटी है, कमाकर खिलाएगी अपने बाप को. जैसे भी खिलाए या फिर तुम दो.” रंजीत हिस्टीरियाई अंदाज़ में बोला.
”रंजीत तुम चुपचाप यहां से चले जाओ. मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं हैं.”
बहुत देर तर्क-विर्तक के बाद भी जगजीवन रंजीत की बात मानने को तैयार नहीं हुआ.
”ठीक है फिर मैं बुढऊ से ही मांग लेता हूं.” कहकर रंजीत अंदर की तरफ़ चल दिया. जगजीवन ने उसे पकड़ लिया. दोनों गुत्थम गुत्था हो गए. रंजीत ने पास पड़ा डंडा ज़ोर से जगजीवन के सिर पर मारा. जगजीवन बेहोश हो गया. उसने नीचे गिरी चाबी उठाई, जगजीवन को वहीं छोड़, किचन के पीछे के दरवाज़े का ताला खोला और अंदर चला गया.
हाॅल में पहुंच कर उसने शिवप्रसादजी के कमरे की बाहर से टोह ली. अंदर नंदन तख़्त पर सो रहा था. रात के 3 बज रहे थे, उसे जल्दी से जल्दी अपना काम करना था. वह हाॅल के एक कोने में फर्नीचर के पीछे छिप कर बैठ गया. एक घंटा बीत गया. 4 बजे के क़रीब नंदन बाहर निकला और टाॅयलेट की तरफ़ चला गया. यह देखकर रंजीत कमरे में घुस गया.
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वह कमरे में चारों तरफ़ देखने लगा. शिवप्रसादजी के पास गया, तो वे जाग रहे थे और उसकी तरफ़ अजनबीयत से देख रहे थे. वह उनकी तकिए के नीचे चाबी खोजने लगा. उसे ख़बर थी कि तकिए के नीचे चाबी है और सब कुछ इस बड़ी आलमारी में रखा है. लेकिन उसे चाबी ढूंढ़ते देख शिवप्रसादजी में न जाने कहां से ताकत आ गई. उसकी बांह उनके मुंह पर चिपकी हुई थी. उन्होंने वहां पर अपने दांत गड़ा दिए और दांएं हाथ से कोशिश करके उसका हाथ पकड़ लिया. अचानक ज़ोर से दांत चुभने के कारण रंजीत ने दर्द से बिलबिला कर दूसरे हाथ से बिना सोचे-समझे ज़ोर से उनकी कनपट्टी पर दे मारा…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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