कहानी- आओ दीये जलाएं… 2 (Story Series- Aao Diye Jalayen… 2)

रात को पूजा के समय तक उत्सव घर नहीं पहुंचा था. घर में पूजा हो गई. दीये भी लग गए, तो सहसा उर्मिला ने अन्विका को घर का ख़्याल रखने को कहकर वेदांत को सुदीप्ता के पीजी चलने को कहा.

सुदीप्ता से मिलकर वह उत्सव के चेहरे पर मुस्कान देखना चाहती थी. वेदांत को पत्नी के इस सद्प्रयास पर संतुष्टि का अनुभव हुआ. पत्नी की पहल का स्वागत करते हुए वे अपनी होनेवाली बहू से मिलने उसके पीजी पहुंचे.

फोन के दूसरी तरफ़ से, “हैप्पी दिवाली.” कहती सुदीप्ता की चहकती आवाज़ पर कुछ ठंडेपन से उर्मिला ने कहा, “और बताओ, दिवाली में क्या ख़ास कर रही हो? मिठाई-रंगोली वगैरह बनाई या नहीं…”

यह सुनकर सुदीप्ता हड़बड़ाकर बोली, “मम्मीजी, रंगोली तो मुझे बनानी नहीं आती, मार्केट से रेडीमेडवाली लाई हूं, वही लगा दूंगी. कल मेड से ढेर सारी मिठाई बनवाई थी.”

“ढेर सारी क्यों…?” उर्मिला के पूछने पर वह उत्साह से बोली, “पार्टी है न आज घर में.”

“ओह! त्योहार के दिन पार्टी… फिर तो तुम्हें यहां आने का समय नहीं मिलेगा… ख़ैर आज त्योहार के दिन कुछ तो अपने हाथ से बनाओगी.” यह सुनकर वह, ‘हां, हां, बिल्कुल बनाऊंगी.’ बोलते हुए यकायक अटकी, फिर बोली, “दरअसल आज अपनी मेड को छुट्टी दी है. दिवाली है न… लेकिन मेरी मकान मालकिन आंटी किचन में मेरी मदद कर रही हैं…”

“क्या बन रहा है किचन में…?”

“आलू की जीरेवाली सब्ज़ी और हलवा अच्छा बना लेती हूं, इसलिए वह मेरे जिम्मे… छोले और पूरी आंटी बनाएंगी.”

सुदीप्ता से बात करके उर्मिला ने फोन उत्सव को पकड़ा दिया. उत्सव टहल-टहलकर मुस्कुराते हुए देर तक बात करता रहा. उर्मिला का मन सहसा वितृष्णा से भरकर रंगोली बनाती अन्विका पर टिका, तो डूबता मन रंगोली के चटख रंगों में यह सोचकर और डूब गया कि काश! उत्सव अन्विका के आगे-पीछे घूमता. काश! अन्विका घर में बहू बनकर आ जाती.

“हैप्पी दिवाली आंटीजी.” बड़ी अदा से अपनी रंगी हुई उंगलियों से रंगोली की ओर संकेत करती अन्विका बड़ी प्यारी लग रही थी. भावुक उर्मिला ने भावातिरेक में उसे गले से लगा लिया.

लंच के बाद अन्विका आराम करने अपने कमरे में चली गई, तो उत्सव बोला, “मम्मी, सुदीप्ता रात को आप सबको खाने पर बुलाना चाह रही थी, पर मैंने मना कर दिया, क्योंकि आज शाम को घर में पूजा होगी और खाना आप ट्रेडीशनल और स्पेशल बनाती हो.”

उत्सव की बात पर उर्मिला तल्ख़ लहज़े में बोली, “अच्छा किया, जो उसे मना कर दिया. अभी मेरे रहते ऐसे दिन नहीं आए हैं, जो शाही पनीर, पूरनपोली, दहीभल्ले, कचौरी, पुलाव, फिरनी जैसे पकवान छोड़कर जीरा-आलू व हलवा खाएं. उसका जीरा आलू व हलवा भई, तुम्हें मुबारक…”

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मम्मी के मुंह से सुने रूखे शब्द और सख़्त लहज़े में सुदीप्ता के प्रति उनके मन की भावनाओं को भांपकर अवाक उत्सव संभलकर बोला, “मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि आप अभी भी सुदीप्ता को स्वीकार नहीं कर पाई हो…”

यह सुनकर उर्मिला गंभीरता से बोली, “अब तुमने पूछ ही लिया है, तो त्योहार के दिन झूठ नहीं बोलूंगी. तेरी दोस्त के रूप में मन भले स्वीकारे, पर बहू के रूप में उसे मन स्वीकारे, ऐसा उसमें कुछ भी नहीं.” उर्मिला की दो टूक पर आहत उत्सव बोला, “तो एक सास के रूप में आपकी नज़रों में आदर्श बहू कौन है? ज़रा मैं भी सुनूं…”

“अब पूछ ही लिया है, तो सुन ले, हर सास ऐसी गुणी बहू पसंद करती है, जिसके होने से घर का कोना-कोना मुस्कुरा दे.”

यह सुनकर उत्सव चिढ़कर ‘मैं सुदीप्ता के पास जा रहा हूं.’ कहते हुए घर से निकल गया. वेदांत उर्मिला पर बरस पड़े.

“ये तुम ठीक नहीं कर रही हो, जो सच है उसे स्वीकारो. उत्सव सुदीप्ता को पसंद करता है, उससे शादी करना चाहता है, यही सच है.

सुदीप्ता को देखने का उसका अपना नज़रिया है. वह तुम्हारी नज़र से अपनी जीवनसंगिनी को नहीं देख सकता, इस सच को तुम नहीं स्वीकारोगी, तो दुख को आमंत्रण दोगी देख लेना…”

पति  की बातों से आहत उर्मिला बोली, “क्या करूं, मां हूं. अपने बेटे के ग़लत निर्णय पर उसे टोकना कैसे छोडूं.”

“तो ठीक है, जैसा मर्ज़ी है करो. अपनी बातों से बेटे को दुखी करो. शायद उससे ही तुम्हें तसल्ली मिले…”

दुखी मन से वेदांत भी चले गए, तो उर्मिला का मन भर आया. त्योहार के दिन पति-बेटे दोनों के मन को दुखा दिया.

रात को पूजा के समय तक उत्सव घर नहीं पहुंचा था. घर में पूजा हो गई. दीये भी लग गए, तो सहसा उर्मिला ने अन्विका को घर का ख़्याल रखने को कहकर वेदांत को सुदीप्ता के पीजी चलने को कहा.

सुदीप्ता से मिलकर वह उत्सव के चेहरे पर मुस्कान देखना चाहती थी. वेदांत को पत्नी के इस सद्प्रयास पर संतुष्टि का अनुभव हुआ. पत्नी की पहल का स्वागत करते हुए वे अपनी होनेवाली बहू से मिलने उसके पीजी पहुंचे. घर के बाहर ही सुदीप्ता और उत्सव कुछ बच्चों के साथ पटाखे जलाते दिखे. उर्मिला और वेदांत को देखकर दोनों उत्साहित हो गए. सुदीप्ता उत्साह से उर्मिला के गले लग गई. जींस और साधारण टी-शर्ट पहनी सुदीप्ता को देख उर्मिला के मन-मस्तिष्क में एक बार फिर सजी-संवरी सलीकेदार अन्विका छा गई. शोरगुल करते बच्चों की ओर इशारा करती सुदीप्ता बोली, “पास की बस्ती से आए ये बच्चे आज हमारे मेहमान हैं.”

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उत्सव-सुदीप्ता, वेदांत-उर्मिला को लेकर घर के भीतर आए, तो घर का हाल देख उर्मिला विस्मय में पड़ गई.

        मीनू त्रिपाठी

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