कहानी- अभी मंज़िल दूर है 3 (Story Series- Abhi Manzil Door Hai 3)

नारी को वस्त्रों और अपने संस्कारों से नहीं, मानसिक दासता से मुक्ति चाहिए, अपनी बेचारगी से मुक्ति चाहिए. उसके बढ़े हुए क़दमों की सही दिशा चाहिए. हमारे आंदोलन को एक ऐसी ज्योति चाहिए जो एक-एक कर हर घर में जल उठे, जो हमें एक-दूसरे का अकेलापन बांटना सिखाए, जो हमें दूसरे के दर्द का सहचर बनना सिखाए.

“क्या ऽ ऽ ऽ” मैं बुरी तरह चौंक गयी थी.

“विश्‍वास नहीं हो रहा न? मेरी पीड़ा कोई नहीं समझ सकता, इसीलिए मैंने निर्णय लिया है, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.” विद्रुप हंसी के साथ वह बोली.

“तुम होश में नहीं हो अनु.”

“मुझे तो अब होश आया है दीदी.”

“पागल मत बनो. आत्महत्या तो पलायन है. जीवन में दुख-सुख तो लगा ही रहता है.”

“सब बातें क़िताबों में लिखी अच्छी लगती हैं, परंतु जब जीवन में भुगतना पड़ता है तो ख़ैर, मैंने पलायन का मार्ग ही चुना है.” उसने अपनी बात स्वयं ही काट कर समाप्त कर दी. शायद कोई सफ़ाई नहीं देना चाहती थी.

“नहीं अनु, तुम्हारे जैसी प्रतिभावान लड़की पलायन नहीं कर सकती.”

“कौन-सी प्रतिभा? जिसे जंग लग जाए, उसे आप प्रतिभा कहेंगी? छोड़िए दीदी, मेरी चेतना को जगाने का व्यर्थ प्रयास मत कीजिए. मैंने अपनी मंज़िल चुन ली है.”

“अरे अनु, तुम्हारे इस आत्महत्या के चक्कर में मैं तो असली बात भूल ही

गई, जिसके लिए मैंने तुम्हें बुलाया था.” मैंने चौंकने का अभिनय किया.

लेकिन उसने किसी प्रकार की कोई उत्सुकता नहीं जताई.

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“अनु, मेरी एक सहेली है, वह अपना बुटीक खोल रही है. उसे कुछ सहयोगी चाहिए. मुझे तुम्हारा ध्यान आया कि तुम खाली भी रहती हो. इस काम के लिए तुम्हें घर से बाहर भी नहीं निकलना पड़ेगा. इसलिए घरवालों को भी कोई ऐतराज़ नहीं होगा. सिलाई-कढ़ाई तुम्हें आती ही है. कपड़े बना-बना कर उसकी बुटीक पर रखती रहना, उसकी मदद हो जाएगी और तुम्हारी आमदनी.”

“सच दीदी, क्या यह संभव है?” उसकी आंखों में पल भर को चमक आ गई.

“हां! क्यों नहीं? बस तुम्हें थोड़ी-सी ट्रेनिंग लेनी होगी.”

“नहीं! ट्रेनिंग कैसे ले पाऊंगी? घर वालों को तो आप जानती ही हैं.” वह पुनः बुझ गई थी.

“अरे, पड़ोस की कॉलोनी की श्रीमती खन्ना को तो जानती हो न? उनके पति ने उन्हें एक-एक पैसे के लिए तरसा दिया था. उन्होंने भी तो पत्राचार के द्वारा ही सीखा है, अब पास-पड़ोस के कपड़े सिलती हैं और देखो अपनी मेहनत से कितना बढ़िया घर चला रही हैं.

“दीदी… मैं… क्या मैं यह कर सकूंगी?” उसकी उत्सुकता आंखों में छलक उठी थी.

“हां अनु, तुम ज़रूर कर लोगी. बस एक फॉर्म भर कर भेजना होगा. लेकिन तुम अब कोई ग़लत क़दम नहीं उठाओगी.”

“नहीं दीदी, अब जब आप जैसा मार्गदर्शक मिल गया है तो मैं अपनी राह स्वयं बना लूंगी.”

एक नई आशा की डोर थामे अनुश्री मेरे घर से वापस अपने घर चली गई. परंतु मैं चिंतित थी. उसे आशा का दीप तो थमा दिया था, परंतु ऐसी सहेली कहां से लाऊंगी जो बुटीक खोल रही हो या जिसका बुटीक हो. फिर भी मैं अपने त्वरित झूठ पर प्रसन्न थी, जिसने एक कोमल कली के जीवन को मृत्यु का ग्रास बनने से बचा लिया था. यह आशा भी मन के किसी कोने में दबी बैठी थी कि ट्रेनिंग के बाद बने अच्छे वस्त्र कोई भी बुटीकवाला अपने यहां रख लेगा. अनु का हुनर तो मैंने अपनी आंखों से देखा है. बिना सीखे वो इतना अच्छा बनाती है तो सीख कर उसकी कला और निखर जाएगी.

अतीत में मैं पूरी तरह डूब चुकी थी. अनुश्री की ट्रेनिंग अच्छी चल रही?थी. श्रीमती खन्ना ने ख़ुद भुगता था, सो दूसरे का दर्द समझती थीं, वह भी मदद कर लेती थीं. अनु यह जान चुकी थी कि मेरा किसी बुटीक में कोई परिचय नहीं है, फिर भी वह आशावान थी. अपनी मेहनत और हुनर पर भरोसा था उसे. उसके साथ अनेक बुटीक के चक्कर मैं भी काट चुकी थी. आशा-निराशा के झूले में हम झूल रहे थे, तभी मेरे पति का स्थानांतरण महजगंराज हो गया और हम अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर नए

परिवेश और नए लोगों के बीच आ कर बस गए. और मैं नारी मुक्ति मंच की उपाध्यक्षा का गरिमामय पद संभालने पर भी विचार करने लगी.

परंतु बनारस की इस बार की यात्रा से मेरे विचारों को गहरा झटका लगा था. अनुश्री का अकेलापन और उसके जीवन में आई शून्यता ने मेरी चेतना को हिला दिया था. हम नारी मुक्ति तक सीमित होते रहे हैं, जबकि पूरे समाज को ही अपनी बुराई से मुक्ति की आवश्यकता है. अपने एकाकीपन से निपटने की ज़रूरत है.

अतीत से बाहर आकर अब मुझे अपनी अंतरात्मा की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी. नारी ही क्या, हर इंसान को जीने के लिए एक सहृदय समाज की आवश्यकता होती है. जब तक पनघट पर रहकर कोई प्यासा रह जाए, पनघट का होना सार्थक नहीं. नारी को ही क्या पूरे समाज को सामाजिक चेतना की आवश्यकता है.

मैं धीमी चाल से आगे बढ़ी और मेज़ पर रखे नारी मुक्ति मंच की उपाध्यक्षा पद का नियुक्ति पत्र मैंने हाथ में उठा लिया. एक गहरी नज़र उस पर डाल कर मैं उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में बदलने लगी. नारी को वस्त्रों और अपने संस्कारों से नहीं, मानसिक दासता से मुक्ति चाहिए, अपनी बेचारगी से मुक्ति चाहिए. उसके बढ़े हुए क़दमों की सही दिशा चाहिए. हमारे आंदोलन को एक ऐसी ज्योति चाहिए जो एक-एक कर हर घर में जल उठे, जो हमें एक-दूसरे का अकेलापन बांटना सिखाए, जो हमें दूसरे के दर्द का सहचर बनना सिखाए. मैं सधे हुए क़दमों से खिड़की तक पहुंची और उन नन्हें टुकड़ों को खिड़की के बाहर हवा में उछाल दिया. हवा में तैरते श्‍वेत पत्रों के बीच मुझे अपना लक्ष्य स्पष्ट दिख रहा था.

       नीलम राकेश

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