कहानी- खोया हुआ-सा कुछ 1 (Story Series- Khoya Hua-Sa Kuch 1)

“ऐ स़फेद सूट…!” मैं ठिठक गई. समीर मेरी ओर ही आ रहे थे. मैं डर गई कि पता नहीं क्या बात है? उन्होंने मेरे पास आकर कहा, “तुम जूनियर हो न?” मैंने कांपते हुए कहा, “जी सर!” “क्या नाम है तुम्हारा?” “पीहू गुप्ता…”

“पीहू… अच्छा नाम है. पीहू थोड़ी देर में पेंटिंग कॉम्पिटिशन है, तुम ज़ल्दी से वहां पहुंचो, आज मैं तुम्हारा पोट्रेट बनाऊंगा. “ठीक है?” मैंने चौंककर उनकी ओर देखा, “जी… जी सर!” और समीर चला गया. मैं हक्की-बक्की-सी उसे जाता देखती रह गई.

“पीहू… ओ पीहू…” नील ने अख़बार पढ़ते हुए तीसरी बार आवाज़ लगाई, तो मुझे काम छोड़ कर आना ही पड़ा.

“क्या है…? क्यों शोर मचा रहे हो?”

नील ने उत्साहित होते हुए कहा, “तुम्हारे काम की ही बात बता रहा हूं, शहर में एक बहुत बड़े पेंटर की पेंटिंग एग्ज़िबिशन लगी है, चलोगी देखने?”

“नेकी और पूछ-पूछ… आज ही चलते हैं, पेंटर का नाम तो बताओ?”

“समीर ठाकुर….अच्छा सुनो मैं शाम को जल्दी आ जाऊंगा, तुम तैयार रहना.”

“समीर ठाकुर… समीर…!” मैंने दोहराया, तो नील बोले, “क्या हुआ?”

“कुछ नहीं… नील, मैं आज न चल सकूंगी. अभी याद आया, आज मुझे मिसेज़ शर्मा के साथ कहीं और जाना है.”

“ठीक है तो कल चलेंगे.” मैंने जल्दी से कहा, “नहीं… मेरा मतलब तुम अपना प्रोग्राम मत ख़राब करो, तुम हो आना.”

“जैसी आपकी मर्ज़ी सरकार, हम अकेले ही चले जाएंगे.” नील के ऑफ़िस निकलते ही मैंने अख़बार उठाया.

‘समीर ठाकुर की पेंटिंग एग्जिबिशन…’ समीर… मेरे समीर की एग्ज़िबिशन… तुमने मेरा सपना पूरा कर दिखाया समीर…’ अख़बार हाथों में लिए मेरा मन अतीत की ग़लियों में खो गया.

तब मैं एम. कॉम प्रीवियस में पढ़ती थी. मेरे एक सीनियर थे-समीर ठाकुर, बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व, लंबी क़द-काठी और बेहद हंसमुख. हमारी क्लास की सारी लड़कियों की तरह वे मुझे भी बहुत अच्छे लगते थे, पर वे कभी हम पर ध्यान नहीं देते थे. मुझे याद है, उस रोज़ हमारे कॉलेज में आर्ट कॉम्पिटिशन था. मैंने स़फेद रंग का सूट पहना था, मैं उनके सामने से होकर थोड़ी दूर ही गई थी कि उन्होंने मुझे पुकारा, “ऐ स़फेद सूट…!” मैं ठिठक गई. समीर मेरी ओर ही आ रहे थे. मैं डर गई कि पता नहीं क्या बात है? उन्होंने मेरे पास आकर कहा, “तुम जूनियर हो न?” मैंने कांपते हुए कहा, “जी सर!”

“क्या नाम है तुम्हारा?” “पीहू गुप्ता…”

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“पीहू… अच्छा नाम है. पीहू थोड़ी देर में पेंटिंग कॉम्पिटिशन है, तुम ज़ल्दी से वहां पहुंचो, आज मैं तुम्हारा पोट्रेट बनाऊंगा. ठीक है?” मैंने चौंककर उनकी ओर देखा, “जी… जी सर!” और समीर चला गया. मैं हक्की-बक्की-सी उसे जाता देखती रह गई. समीर ने मेरा बहुत सुंदर पोट्रेट बनाया. मैं उनके इस रूप को देखकर चकित थी. कुछ देर बाद जब कविताओं की प्रतियोगिता में भी समीर का नाम पुकारा गया, तो मैं फिर चौंकी थी. वह मेरे बगल से निकला, तो मैंने उससे धीरे से पूछा, “पोट्रेट तो मेरा बनाया था आपने, कविता किस पर लिख डाली है?” उसने मुस्कुराकर मेरी ओर देखकर कहा, “उसी पर… जिसका पोट्रेट बनाया था.” मुस्कुराने से उसके गालों पर पड़े भंवरों में मैं अपना मन खो बैठी थी. धीरे-धीरे हमारी बातों-मुलाक़ातों का सिलसिला चल पड़ा था.

व़क़्त के बीतते-बीतते हम कब एक-दूसरे से प्यार कर बैठे, हम ख़ुद नहीं समझ पाये. पर न कभी उसने अपने प्यार का इज़हार किया था, न मैंने इकरार किया था. देखते-देखते एक साल बीत गया. उसकी पढ़ाई पूरी हो गई थी और मैं जूनियर से सीनियर हो गई थी. इसके साथ ही उसकी नौकरी की तलाश तेज़ हो गई और मेरे घर में मेरे लिए योग्य वर की. मैं समीर के सिवा किसी और को अपने जीवनसाथी के रूप में सोच भी नहीं पाती थी. मैं समीर से इस बारे में बात करना चाहती थी, पर उसका खिलंदड़ स्वभाव मुझे कुछ भी कहने से रोक देता था. मैं उसे कितना समझाती कि समीर कभी तो सीरियस हुआ करो, कहीं ऐसा न हो कि इस लापरवाही के कारण एक दिन तुम्हें बहुत बड़ा नुक़सान उठाना पड़े. पर वह मेरी इस बात को भी मज़ाक मान कर हंस देता था. एक रोज़ कुछ लोग मुझे देखने आने वाले थे. मैं कॉलेज से निकली ही थी, कि समीर आता दिखा, “इतनी जल्दी कहां जा रही हो पीहू?”

“आज कुछ लोग शादी के लिए मुझे देखने आनेवाले हैं.”

वह चौंक पड़ा, “ऐसा मज़ाक मत किया करो पीहू, मुझे पसंद नहीं.”

“मज़ाक…? मज़ाक तुम करते हो समीर, मैं नहीं!”

वह तड़पकर बोला, “तुम किसी और से शादी नहीं कर सकती पीहू!”

मैंने अनजान बनते हुए कहा, “क्या मतलब, मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती?”

“पीहू, तुम जानती हो कि मैं तुमसे… तुमसे…”

मैं झुंझला कर बोली, “मुझसे… क्या समीर?” समीर एक लंबी सांस लेकर, आंख बंद करके, जल्दी-जल्दी बोला, “मैं तुमसे प्यार करता हूं पीहू, तुमसे शादी करना चाहता हूं, क्या तुम मुझसे शादी करोगी?” इतना कहकर उसने आंखें खोलीं, मुझे मुस्कुराता देखकर उसने चैन की सांस ली. फिर तुनककर बोला, “जब सब जानती थी तो इस तरह अनजान क्यों बनी?”

“सब जानती थी, पर तुम्हारे मुंह से सुनकर इस पर सच की मोहर लगवाना चाहती थी. अब चलो मेरे घर… मेरे घरवालों से बात करने.” समीर ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, “आऊंगा… ज़रूर आऊंगा, पर उस दिन जिस दिन कुछ बन जाऊंगा. प्लीज़ पीहू, थोड़ा-सा व़क़्त दो मुझे.” मुझे भी उसकी बात सही लगी थी, सो मैं मान गई. छ: माह बीतने को आए थे, पर उसे तब तक कोई नौकरी नहीं मिली थी.

– कृतिका केशरी

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