बचपन में मेरी सारी सहेलियां अपने चाचा, मामा, ताऊ आदि के यहां छुट्टियों में रहने जाती थीं या उनके हमउम्र भाई-बहन उनके घर आते थे, पर तुमने न मुझे कहीं जाने दिया, न किसी को अपने यहां आने दिया. मेरा पूरा जीवन बिना नाते-रिश्तों, भाई-बहनों के सूना और अकेला ही बीत गया.” सौम्या का स्वर अब सौम्य नहीं रह गया था.
“मैंने तो जो किया, तुम्हारे भले के लिए किया. आख़िर में पैसा ही काम आता है.” माया ने सूखे स्वर में कहा.
“रिश्तों और भाई-बहनों के लिए तड़पते हुए अकेला बचपन देकर कौन-सा भला किया है. मेरा मां?
“अरे नहीं, ये तो तेरा हार है, इसे मैं कैसे…” बुआ असमंजस में कुछ कहने ही जा रही थीं कि मिताली ने उनका हाथ खींचकर बाहर ले जाते हुए कहा, “अरे मालती, यह समय व्यर्थ के सोच-विचार में पड़ने का नहीं है. सौम्या ठीक कहती है, चल यह हार रूपाली को पहना दें.” मिताली की आंखों में सौम्या के लिए प्रशंसा और आभार के भाव थे.
उनके जाने के बाद माया सौम्या पर फट पड़ी. “यह क्या पागलपन मचा रखा है तूने सौम्या! ऐसे ही चीज़ें लुटाती रही, तो कंगाल हो जाएगी. सास-ससुर को अपने साथ रहने का आग्रह करना, क़ीमती गहने-कपड़े बांटते रहना और अब तो हद ही हो गई, तूने अपना शादी का क़ीमती हार ही उठाकर दे दिया.”
“तो क्या हुआ मां, शादी के बाद परिस्थिति बताकर रूपाली का हार उसे देकर मुझे अपना हार वापस मिल जाएगा. अभी का समय संभालना ज़रूरी था.” सौम्या लापरवाही भरे स्वर में बोली.
“तुझसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी. मैंने तुझे हमेशा चीज़ें संभालकर रखने की सीख दी है और तू इन्हें ही लुटा रही है.” माया ग़ुुस्से से बोली.
“बस करो मां, मैं अच्छी तरह से समझ रही हूं, पहले ही दिन से कि आप क्या कहना चाह रही हो. आपने ख़ुद तो कभी रिश्तों की कद्र नहीं की. हमेशा भौतिक वस्तुओं और पैसों की ही परवाह की. आपकी नज़रों में हमेशा पैसे, गहने-कपड़े यही धरोहर हैं. आपने पापा को दादा-दादी के पास नहीं रहने दिया. आपने बेटे को तो माता-पिता से दूर रखा ही, मुझे भी दादा-दादी के प्यार-दुलार से वंचित रखा. उनकी कहानियां, डांट-अपनेपन व संस्कारों से अलग कर दिया.
बचपन में मेरी सारी सहेलियां अपने चाचा, मामा, ताऊ आदि के यहां छुट्टियों में रहने जाती थीं या उनके हमउम्र भाई-बहन उनके घर आते थे, पर तुमने न मुझे कहीं जाने दिया, न किसी को अपने यहां आने दिया. मेरा पूरा जीवन बिना नाते-रिश्तों, भाई-बहनों के सूना और अकेला ही बीत गया.” सौम्या का स्वर अब सौम्य नहीं रह गया था.
“मैंने तो जो किया, तुम्हारे भले के लिए किया. आख़िर में पैसा ही काम आता है.” माया ने सूखे स्वर में कहा.
“रिश्तों और भाई-बहनों के लिए तड़पते हुए अकेला बचपन देकर कौन-सा भला किया है. मेरा मां? पड़ोस व मुहल्ले के बच्चों को अपने बुआ, चाचा व मौसी के बच्चों के साथ खेलते देख कितना अकेलापन लगता था मुझे. मैं कितना रोती थी. मन की बातें किसी के साथ बांटने को तरसती रहती. रूठती तो कोई प्यार से मान-मनुहार करके मनानेवाला भी न था.
और अपने स्वभाव की वजह से आपने क्या कम परेशानियां उठाई हैं. याद है, जब एक बार पापा टूर पर गए थे और मैं बीमार पड़ गई थी. कितनी परेशान हो गई थीं और कितना कोसा था आपने मुझे कि तुम्हें भी उसी व़क़्त बीमार पड़ना था.” सौम्या दुखी स्वर में बोली.
“परेशानियां तो आती ही रहती हैं, पर तेरे जन्म से लेकर धूमधाम से तेरी शादी तक सब कुछ मैंने अकेले और व्यवस्थित तरी़के से किया था.” माया गुरूर के साथ बोली. “ये तुम्हारी ग़लतफ़हमी है मां. तुम्हें तो विवाह के रस्म-रिवाज़ों के बारे में कुछ पता ही न था. वो तो पापा के प्यार की वजह से बुआ, दादी और चाचा ने बिना तुम्हें पता चले पापा के साथ चुपचाप बाहर ही बाहर सभी तैयारियां करवा दीं, इसीलिए मेरी शादी आराम से हो गई.” सौम्या ने मानो पलभर में ही सच्चाई बताकर माया का गुरूर भंग कर दिया. माया निरुत्तर रह गई.
“हार-कपड़े तो जीवन में कभी भी ख़रीदे जा सकते हैं, इन्हें सहेजने की ज़रूरत नहीं. ये यदि खो भी गए, तो फिर से ख़रीदे जा सकते हैं, लेकिन यदि रिश्ते खो गए, तो वापस नहीं मिल सकते. जीवन की अनमोल धरोहर भौतिक वस्तुएं नहीं, रिश्ते-नाते हैं. मेरी दौलत तो यही है. मैं बस, इन्हें ही सहेजना चाहती हूं और सबके स्नेह की छांव में रहना चाहती हूं. सौवीर के माता-पिता को भी मैं अपने साथ ही रखूंगी, ताकि मेरे आनेवाले बच्चों को भरे-पूरे परिवार का सुख मिले, जो मुझे तुम्हारी वजह से कभी नहीं मिला.” सौम्या दृढ़ स्वर में बोली.
“मुझे गर्व है अपनी बेटी पर कि उसने अपने जीवन की सच्ची धरोहर को पहचान लिया है. मुझे तसल्ली हुई कि इस पर अपनी मां के संस्कारों और प्रवृत्ति का साया नहीं पड़ा. आज मैं बहुत ख़ुश हूं. बेटी, सदा इस अनमोल धरोहर को सहेजकर रखना और सुखी संतुष्ट रहना, यही मेरा आशीर्वाद है.” मनीष ने अंदर आकर सौम्या के सिर पर हाथ रखते हुए कहा. उनकी आंखों में ख़ुशी के आंसू थे. माया ठगी-सी पिता-पुत्री को देखती रह गई.
डॉ. विनीता राहुरीकर
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