सोचती हूं, इस चेहरे, इस यौवन को नष्ट कर दूं, लेकिन मुझसे यह भी नहीं हो पाता. लड़की हालात से कितनी लाचार होती है, आप नहीं समझ सकते. मेरी पीड़ा, मेरी व्यथा भी आपके गले नहीं उतरेगी, क्योंकि आप एक पुरुष हैं. आप क्या, कोई भी पुरुष किसी नारी का दर्द नहीं समझ सकता. आज लग रहा है, दुनिया में अकेली हूं, एकदम तन्हा. पता नहीं अब हवसियों से लड़ पाऊंगी भी या नहीं. हे प्रभु, मेरी रक्षा करना. अब मैं कहां जाऊं, कहां मिलेगा सहारा और संरक्षण…?”
वह तेज़ी से कमरे से बाहर निकल गई. मैं एकदम जड़वत, चेतनाशून्य. कोई जवाब ही नहीं सूझा. ऐसा क्यों किया उसने…? मैं तब से लगातार सोच ही रहा था कि क्या मैं उसे बहुत बुरा आदमी लगा या मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर ग़लती की? जब मुझसे इतना ही परहेज़ था, तो क्यों आती थी मेरे पास… ? क्यों बैठती थी दिनभर…? मैं फिर से बड़बड़ाने लगा… जो भी हो, वह मेरे बारे में ग़लत धारणा बनाकर गई है.
शाम हो गई थी. हादसे को पूरे सात घंटे. ग़लती तो मेरी ही थी. मेरे अंतःकरण से आवाज़ आई. हां, किस हक़ से मैंने उसका हाथ पकड़ा. आख़िर मेरी भी मंशा तो ग़लत ही थी. मुझे उसके घर जाकर माफ़ी मांगनी चाहिए. मैं सोचता रहा. उसके घर जाऊं या नहीं. फिर महसूस किया कि मेरे पांव ख़ुद उसके घर की ओर बढ़ रहे हैं.
मैंने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी. क़रीब पांच मिनट तक खड़ा रहा. मुझे लगा कि दरवाज़ा नहीं खोलेगी. लौट रहा था कि दरवाज़ा खुल गया. उसका चेहरा बुझा था. मुझे देख रही थी. मैं उसके बगल से घर में दाख़िल हो गया. उसने दरवाज़ा बंद किया और मेरे पास आ गई.
अचानक फिर बोल पड़ी, “प्लीज़, मुझे पाने की कोशिश न करो! दहेजलोभी पति ने तलाक़ दे दिया. अब मेरे पास कोई और ठिकाना नहीं, सो मुझे अपनी ही नज़र में मत गिराओ. दुनिया की नज़र में पहले ही गिर चुकी हूं. जब लोग मेरे बारे में ऊलजुलूल बकते हैं, तो मेरी आत्मा, मेरा चरित्र मुझे दिलासा देते हैं कि लोग झूठ बोल रहे हैं. यही मेरा आत्मबल है, जो मुझे तमाम अपमान और ज़िल्लत झेलने की ताक़त देता है, इसीलिए दुनिया की परवाह नहीं करती. किसी को सफ़ाई नहीं देती. मुझे लोगों से चरित्र प्रमाणपत्र नहीं चाहिए. जिनका चरित्र ख़ुद संदिग्ध है, वे क्या दूसरों को चरित्र प्रमाणपत्र देंगे. आपके घर में मुझे सुरक्षा का एहसास होता रहा है. आपसे एक अटूट रिश्ता-सा बन गया था. आपका स्वभाव मुझे आकर्षित करता था. भावनात्मक संबल मिलता था आपसे. ओह… कितना पाक था हमारा रिश्ता. स्त्री-पुरुष संबंधों से बहुत ऊपर. मुझे लगा था इस बस्ती में एक इंसान भी है, जिसकी आत्मा निष्पाप है, अकलुष है, पर मैं यहां भी छली गई. आपसे दोस्ती का भ्रम पाल बैठी. पता नहीं इस शरीर में ऐसा क्या है कि हर पुरुष ललचाई नज़र से देखता है. सोचती हूं, इस चेहरे, इस यौवन को नष्ट कर दूं, लेकिन मुझसे यह भी नहीं हो पाता. लड़की हालात से कितनी लाचार होती है, आप नहीं समझ सकते. मेरी पीड़ा, मेरी व्यथा भी आपके गले नहीं उतरेगी, क्योंकि आप एक पुरुष हैं. आप क्या, कोई भी पुरुष किसी नारी का दर्द नहीं समझ सकता. आज लग रहा है, दुनिया में अकेली हूं, एकदम तन्हा. पता नहीं अब हवसियों से लड़ पाऊंगी भी या नहीं. हे प्रभु, मेरी रक्षा करना. अब मैं कहां जाऊं, कहां मिलेगा सहारा और संरक्षण…?”
मुझसे रहा नहीं गया और मैं उसकी ओर बढ़ गया. “सॉरी… मुझसे ग़लती हो गई. तुम्हें समझ ही न पाया. प्लीज़ माफ़ कर दो. मैं तो तुम्हारा दोस्त बनने के भी क़ाबिल नहीं. हो सके, तो मुझे माफ़ कर दो प्लीज़…” कहना चाहा कि आओ जीवन का आगे का सफ़र साथ मिलकर तय करें, अगर तुम्हें मंज़ूर हो, तो… तुम्हें सहारा और संरक्षण देने में मुझे गर्व महसूस होगा, लेकिन ये वाक्य ज़ुबान से निकले ही नहीं.
वह चुप हो गई थी. मैं उसे सामान्य होने का मौक़ा देना चाहता था. सो वापस हो लिया. इस बार मैंने ख़ुद को हल्का महसूस किया.
हरिगोविंद विश्वकर्मा
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