कहानी- बड़े पापा 3 (Story Series- Bade Papa 3)

‘’मैं धीरे-धीरे दूर होता गया और सबने मुझे सहजता से दूर होने दिया. किसी ने मुझे खींचकर अपनी चौकड़ी में शामिल नहीं किया और अगर आज तुम भी मुझे मनाने नहीं आतीं, तो मैं पूरी तरह से टूट जाता.” मन की पीड़ा कहते-कहते बड़े पापा की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी, जो न जाने कितने बरस का जमा गुबार पिघलाकर बाहर ला रही थी.

बमुश्किल संभलकर बोले, “सुन बेटी, दिल छोटा मत कर, तू ख़ुशी-ख़ुशी जा. अगर ज़रूरी काम न होता, तो मैं भी आ जाता. ख़ैर, मेरा होना तेरे लिए ज़रूरी है, मैं तो यह सुनकर ही गदगद हो गया हूं. बाकी किसी ने तो मुझसे एक बार भी साथ चलने को नहीं कहा.”

“साथ चलने को तो मैं भी नहीं कह रही हूं बड़े पापा.” नम्रता का स्वर गंभीर था.

“तो फिर?” कृष्णचंद्र को नम्रता की बात कुछ समझ नहीं आई.

“मैं जानती हूं बड़े पापा, अगर मैं कहूंगी भी तो आप साथ नहीं आएंगे, इसलिए मैं आपको साथ चलने को कहने नहीं आई हूं. मैं तो यह कहने आई हूं कि आपके बग़ैर यह रोका नहीं होगा. उस समय, उस मुहूर्त पर आप जहां होंगे, मेरा रोका वहीं होगा. आप घर पर होंगे, तो घर में, ऑफिस में होंगे, तो ऑफिस में, कार में, शोरूम पर… आप जहां होंगे बस हमें पांच मिनट दे देना, हम वहीं रोका कर लेंगे.”

“पागल हो गई है क्या? सब व्यवस्थाएं हो चुकी हैं, आयुष के घरवाले क्या सोचेंगे.”

“वो कुछ भी सोचें, मुझे परवाह नहीं. मेरे लिए आप सबसे इंपॉर्टेंट हैं और इस बार मैं आपको यूं बच के नहीं जाने दूंगी.”

यह सब सुन कृष्णचंद्र पत्थर से जम गए. उन्हें यूं चुप खड़ा देख नम्रता जाने लगी, “चलिए ये ख़ुशख़बरी मैं बाकी सभी को भी दे आऊं कि रोका मसूरी में नहीं, बल्कि यहीं होगा, बड़े पापा के साथ.”

नम्रता को जाता देख कृष्णचंद्र पीछे से बोले, “रुक, सुन तो… मैं चलूंगा तेरे साथ.”

“क्या कहा, फिर से कहिए… मैंने ठीक से सुना नहीं.” नम्रता ने न सुनने की एक्टिंग की.

“मैंने कहा कोई ज़रूरत नहीं है किसी से कुछ कहने की, मैं साथ चलूंगा.”

“और आपके सो कॉल्ड ज़रूरी काम, उनका क्या होगा?”

“कोई ज़रूरी काम नहीं है. परिवार के आगे मेरे कभी कोई ज़रूरी काम नहीं रहे.”

“तो फिर ये न जाने का ड्रामा क्यों कर रहे थे?” नम्रता झूठा ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए बोली.

“इसलिए कि कोई तो मुझे भी पूछे, मेरे साथ ज़िद करे. मेरी मान-मनुहार करे. मैं इतने सालों से तुम सभी का दुख-दर्द बिन कहे समझता आया हूं. बिन मांगे सब देता आया हूं… क्यों? क्योंकि यह परिवार मेरे लिए बहुत मायने रखता है. इस परिवार के बिना मेरा वजूद अधूरा है, मगर क्या मैं भी इस परिवार के लिए कुछ मायने रखता हूं? क्या मेरी उपस्थिति भी इस परिवार के लिए ज़रूरी है?

मैंने जब भी तुम लोगों के साथ कहीं जाने को मना किया, तो बस यह जानने के लिए कि मेरे होने या न होने से तुम लोगों को कुछ फ़र्क़ पड़ता भी है या नहीं… पर हर बार मेरे हाथ बस निराशा ही लगी.” बड़े पापा की बातें सुनकर नम्रता स्तब्ध रह गई.

“ये क्या कह रहे हैं बड़े पापा. आप हम सभी के लिए बहुत मायने रखते हैं.”

“नहीं, सभी के लिए नहीं. वरना जब भी मैंने किसी फैमिली आउटिंग या फंक्शन पर आने में असमर्थता जताई, तो क्या किसी ने मुझे साथ चलने के लिए मनाया? किसी ने कहा कि आप नहीं जाएंगे, तो हम भी नहीं जाएंगे. नम्रता, मैं भले ही बूढ़ा होता जा रहा हूं, पर मेरे अंदर अभी भी एक बच्चा छिपा है, जो तुम सबकी आंखों में अपने लिए प्यार और अहमियत देखना चाहता है. जो चाहता है कि कोई उसके कामों को, उसके योगदान को सराहे, उसकी कमी को महसूस करे. उसे यक़ीन दिलाए कि वह उनके लिए कितना महत्वपूर्ण है, मगर अफ़सोस! इस घर में सबने मुझे हमेशा फॉर ग्रांटेड ही लिया.

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मैं धीरे-धीरे दूर होता गया और सबने मुझे सहजता से दूर होने दिया. किसी ने मुझे खींचकर अपनी चौकड़ी में शामिल नहीं किया और अगर आज तुम भी मुझे मनाने नहीं आतीं, तो मैं पूरी तरह से टूट जाता.” मन की पीड़ा कहते-कहते बड़े पापा की आंखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी, जो न जाने कितने बरस का जमा गुबार पिघलाकर बाहर ला रही थी.

उनकी पीड़ा से वाक़िफ़हो नम्रता की भी आंखें और दिल दोनों भर आए. सच ही तो कह रहे थे बड़े पापा, आज तक पूरे परिवार ने उन्हें पिता समान होने का तमगा पहनाकर एक सर्विस प्रोवाइडर ही तो बना कर रखा है, जो उनके बदले मर-खपकर उनके लिए धन और सुविधाएं जुटा रहा है. उनकी भावनाओं को कब किसी ने सुनने-समझने का प्रयास किया? पर अब ऐसा नहीं होगा, वह सबसे इस बारे में बात करेगी.

भारी हुए माहौल को हल्का करने के लिए नम्रता आंखें पोंछकर उनकी आलमारी खोलते हुए बोली, “चलिए, इमोशनल बातें बहुत हुईं, अब आपकी ड्रेस देखते हैं कि कल क्या पहन सकते हैं, आपने तो कोई नई ड्रेस बनवाई नहीं होगी.”

“क्यों नहीं बनवाई. ज़रूर बनवाई है. यह देख.” बड़े पापा ने एक बेहद सुंदर एंब्रॉयडरीवाला सिल्क कुर्ता-पायजामा आलमारी से निकालकर दिखाते हुए कहा. उसे देख नम्रता की आंखें खुली की खुली रह गईं.

“ओह, तो आप सारी तैयारी किए बैठे थे.”

“हां, क्योंकि मेरे दिल के किसी कोने में उम्मीद थी कि कोई और मुझे मनाए या न मनाए, मगर तू मुझे ज़रूर मनाकर संग ले जाएगी. तू मेरी प्यारी बिटिया जो है.” यह सुनकर नम्रता अपने बड़े पापा से किसी छोटे बच्चे की तरह लिपट गई. वह मन ही मन ऊपरवाले को शुक्रिया अदा कर रही थी कि अच्छा हुआ, जो उसे सही समय पर बुद्धि आ गई और वह उन्हें मनाने चली आई, वरना आज वे कितनी बुरी तरह टूटकर बिखर जाते और किसी को कानोंकान ख़बर भी न होती. खिड़की से कमरे में आ रही चांदनी गवाह थी कि आज नम्रता की एक पहल से बड़े पापा के दिल में पैठ किया अंधकार सदा के लिए दूर हो रहा था.

     दीप्ति मित्तल

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Usha Gupta

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