कहानी- बंधन और मुक्ति 5 (Story Series- Bandhan Aur Mukti 5)

“प्रेम का अविरल झरना तेरे आंगन में बह रहा है और अपने मन को सूखा रखना उसके साथ अन्याय नहीं है. जब प्रेम लगातार दस्तक दे रहा हो, तो अपने हृदय के दरवाज़े बंद रखना उसके साथ अन्याय नहीं है? प्रेम के सतरंगी इंद्रधनुष के नीचे आंखें बंद किए खड़े रहना अपनी आंखों के साथ अन्याय नहीं है?” सुहासिनी के हृदय में मां के शब्दों का भावानुवाद होता जा रहा था. अफ़सोस गहराता जा रहा था.

अगर वो सिर्फ़ कर्तव्य के कारण क़रीब आती है, तो उनके चले जाने पर पीर-सी क्यों उमड़ती है. क्यों स्पर्श के बहाने ढूंढ़ती है और उनका सानिध्य सिहरन जगाता है. और अगर प्यार उसे नज़दीक लाता है, तो अंतरंग पल आने से पहले उमंगे जम-सी क्यों जाती हैं.
एक दिन मां के सामने सुहासिनी के मन का द्वंद्व पिघलकर आंखों के रास्ते बह निकला.
“शाश्वत और सुकेश के बड़प्पन के आगे बहुत बौनी महसूस करने लगी हूं ख़ुद को. अपनी ही नज़रों में अन्यायी होती जा रही हूं. मैं… मैं… किसके साथ न्याय करूं, कैसे न्याय करूं मां?”
सुहासिनी के ख़ामोश होने के बाद काफ़ी देर मां उसके कंधे थपथपाते हुए यूं ही बैठी रहीं.
फिर धीमे से बोलीं, “तू ख़ुद के साथ न्याय कर ले, बाकी सबके साथ न्याय ख़ुद ही हो जाएगा.”
“ख़ुद के साथ?” सुहासिनी ने पलकें धीरे-धीरे उठीं और गुणित होते प्रश्न लिए मां पर टिक गईं. मां कुछ देर चुप रहीं, फिर जैसे भीतर कहीं खो-सी गईं.
फिर एक ठंडी सांस भरकर बोलना शुरू किया, “इतने ज़्यादा कर्तव्य भर दिए जाते हैं हम औरतों के मन में कि भरा-पूरा जीवन मिलने पर भी वो इसे जी नहीं पातीं. जो पातीं हैं, वो अधिकार नहीं लगता. हमेशा एहसान लगता है और जो देती हैं वो हमेशा कम.
अगर शाश्वत ने तुझे प्यार किया तो तूने भी तो हमेशा ख़ुद से ज़्यादा उसका ध्यान रखा. बेटा था मेरा, पर मैं जानती हूं कि उसके गुस्सैल और पज़ेसिव स्वभाव को तेरी नरमी और त्यागों ने ही सम्हाला है. फिर उसका प्यार वो उपकार कैसे हो गया, जिसका बदला तुझे एकाकी रहकर चुकाना पड़ेगा?
अगर उसने तुझे हमेशा ख़ुश देखना चाहा था, तो उसके जाने के बाद ख़ुश रहना उसके साथ अन्याय कैसे हो गया?
और सुकेश! जब प्यार किया है उसने तुझसे तो तेरी ख़ुशी उसे भी ख़ुशी देती है. तो तेरी ख़ुशी के लिए कुछ करना उसका बड़प्पन कैसे हो गया? पर इनके बीच तूने कभी ये सोचा कि तेरा जीवन कितना रीता है?
प्रेम का अविरल झरना तेरे आंगन में बह रहा है और अपने मन को सूखा रखना उसके साथ अन्याय नहीं है. जब प्रेम लगातार दस्तक दे रहा हो, तो अपने हृदय के दरवाज़े बंद रखना उसके साथ अन्याय नहीं है?
प्रेम के सतरंगी इंद्रधनुष के नीचे आंखें बंद किए खड़े रहना अपनी आंखों के साथ अन्याय नहीं है?” सुहासिनी के हृदय में मां के शब्दों का भावानुवाद होता जा रहा था. अफ़सोस गहराता जा रहा था. सच में उसने इतना सुंदर जीवन इतने सालों से जिया ही नहीं. सुगंध को सांसों में भरा ही नहीं. प्रेम कोई दान नहीं, जिसके लिए कृतज्ञता जतानी पड़े.
ये तो वो बारिश है, वो हवा है, जिसे बस अनुभव करना है, सांसों में भर लेना है, भीग जाना है. धरती सोंधी ख़ुशबू से महक उठेगी, तो बादल को प्रतिदान स्वतः ही मिल जाएगा.


भावना प्रकाश

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