कहानी- सिर्फ़ एहसास है ये…1 (Story Series- Sirf Ehsaas Hai Ye… 1)

साल में एक बार आते और मेरी सारी अटपटी ख़्वाहिशों का पिटारा भरकर जाते. घाटी में दूर तक उतरकर नायाब जंगली फूलों के बारे में जानकारी इकट्ठी करना, भोर से पहले ग्लेशियर पर पहुंचकर सूरज की किरणों के बढ़ते वर्चस्व के साथ बर्फ को रंग बदलते देखना और ऐसा बहुत कुछ वो मेरे साथ होते तो लगता सच में कोई दोस्त साथ है. कुछ ऐसा जादू था उनके व्यक्तित्व में कि मैं साल भर उनका इंतज़ार करती.

जब संदीप ने कौसानी चलने के लिए कहा, तो तन-मन के साथ आत्मा तक में एक मीठी सिहरन दौड़ गई. ‘वो पिछले कुछ सालों से कौसानी में ही तो रह रहे हैं, पर ये संदीप को अचानक कौसानी जाने की क्या सूझी. इन्हें तो पहाड़ी जगहें बिल्कुल पसंद नहीं.
“तुम्हारे पापा-मम्मी जा रहे हैं. कोई प्रॉपर्टी से रिलेटेड काम है. साथ में हम लोगों को भी चलने को कह रहे हैं. तैयारी कर लेना।”
‘मम्मी-पापा… कौसानी… हमें लेकर? प्रॉपर्टी?..’ कुछ समझ में न आया, पर न सवाल मेरी आदत थे न जवाब संदीप की फ़ितरत.
टैक्सी ने पूरे चक्करवाला घुमाव लिया और आड़ी-तिरछी राहों में हमारे साथ चलनेवाले सुर्ख और सुरमई रंगों की तरह यादें भी साथ हो ली. यादें अल्हड़ बचपन की, स्वनिल कैशोर्य की, अड़ियल जवानी की और.. और मेरे पहले और अंतिम प्यार की…
…पापा बड़े प्रशासनिक अधिकारी थे. अच्छे इंसान थे और मेरे प्रति ज़रूरत से ज़्यादा अच्छे. जब बात करते, सतर्कता से, कोमलता से कि कहीं मुझे या मां को बुरा न लग जाए. उनके बच्चों, मुझसे दस साल बड़ी दीदी और बारह साल बड़े भैया की ओर जब भी अपनापन बांटने के लिए देखा, तो पाया उनके लिए मैं एक नासमझ ‘किड’ थी, जिससे बात करने की हिदायतें उनके लिए स्कूल के होमवर्क-सी बाध्यता थीं. मम्मी का व्यवसाय उन्हें बहुत व्यस्त रखता था. बचा समय वही सतर्कता और कोमलता भैया-दीदी के लिए सहेजने में ख़र्च हो जाता, जो पापा मेरे साथ बरतते थे. वैसे भी मम्मी का पहलेवाले पापा से हर समय झगड़ते रहनेवाला पुराना रुप कब का शब्दों के मन में ख़ामोशी का पहरा बैठा चुका था. मेरे पास सब कुछ था सिवाय एक सहज रिश्ते के, एक दोस्त के, जो कहने, बताने या मांगने से नहीं मिल सकता था. शायद इसीलिए जब पापा पूछते कि तुम्हें कुछ चाहिए, तो मैं ख़ुद में बहुत भीतर सिमट जाती. मन में घुमड़ती अनगिन बातों और लाखों अनुत्तरित प्रश्नों को लिए मैं पेड़ों, तितलियों और फूलों के साथ-साथ बतियाती रहती.
उन्हें लेकर जाती भी कहां? न खोलना मेरे घर की आदत था, न खुलना मेरी फ़ितरत बन सका.
… यही कोई सात-आठ साल की रही होंगी, जब उन्हें पहली बार देखा था. पलक के टूटे बाल से एक दोस्त मांगा था, तभी वो आ गए थे. पापा से मिलकर चहकने के बाद उनका ध्यान मेरी ओर गया था, “किसने सताया है इस नन्हीं परी को, जो इसका मुंह इतना सूजा हुआ है?”
पापा हंस पड़े थे, “अरे भाई तुम न शादी करोगे न बच्चे. फिर हम परियोंवालों का दर्द कैसे समझ आएगा? ये इसलिए मुंह सुजाए बैठी है, क्योंकि इसे किसी दोस्त के साथ उस ऊंचे पहाड़ पर चढ़ना है.”
“बस इतनी-सी बात. लो आ गया तुम्हारा दोस्त. चलें उस पहाड़ पर?” कहते हुए उन्होंने हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया. एक बार सोचा कि ये तो मम्मी-पापा के दोस्त हैं, मेरे कैसे हुए, पर जाने कौन-सा अपनत्व था उनकी आंखों में कि सम्मोहित-सा अपना हाथ झट उनके हाथों में दे दिया. पापा पीछे से कहते ही रह गए थे कि इतनी दूर से आए हो. कुछ चाय-नाश्ता तो कर लो, पर हम तो जैसे हवा के झूले पर बैठ पेंग बढ़ा चुके थे…

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…वो बहुत पर्यावरण संरक्षण से जुड़े बहुत से काम करते थे. उनका व्यवसाय धरती के अनदेखे रहस्यों पर डाक्यूमेंट्री बनाना था. उत्तराखंड उनकी जन्मभूमि था, जिससे उन्हें विशेष लगाव था. साल में एक बार आते और मेरी सारी अटपटी ख़्वाहिशों का पिटारा भरकर जाते. घाटी में दूर तक उतरकर नायाब जंगली फूलों के बारे में जानकारी इकट्ठी करना, भोर से पहले ग्लेशियर पर पहुंचकर सूरज की किरणों के बढ़ते वर्चस्व के साथ बर्फ को रंग बदलते देखना और ऐसा बहुत कुछ वो मेरे साथ होते तो लगता सच में कोई दोस्त साथ है. कुछ ऐसा जादू था उनके व्यक्तित्व में कि मैं साल भर उनका इंतज़ार करती.

भावना प्रकाश

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Usha Gupta

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