कहानी- बापू से पापा तक…4 (Story Series- Bapu Se Papa Tak…4)

 

सांयकाल जिनसे मुलाक़ात हुई, वह छवि मेरे जीवन में कहीं भी नहीं थी. यह रौबदार व्यक्तित्व, सूट और टाई. मेरा इनसे कैसे संबंध हो सकता है? उन्होंने भी तो स्नेहपूर्वक आलिंगन में न ले, दूर से ही मुझे देखा, बहुत ध्यान से. सिंथेटिक प्रिंटवाला सूट, कस के बनी दो चोटियां, उस घर के माहौल में मैं कहीं भी फिट नहीं हो रही थी.

मां बहुत कम बात करती थीं बापू के बारे में और वह सब बातें बहुत पुरानी थीं. जब कि जोशीजी आज की बात कर रहे थे. बहुत प्रभावित थे वह बापू से. बहुत सम्मान था उनके मन में मेरे पिता के प्रति. सिर्फ़ इसलिए नहीं कि बापू उनके बॉस थे. वह बापू की विद्वता एवं कठिन श्रम की प्रशंसा कर रहे थे. पर इन सब बातों से बापू के प्रति मेरे मन में बैठा भय कम होने की बजाय कुछ बड़ ही गया. पांच घण्टे के सफ़र में अनेक बातें हुईं. भोजन के लिए रुके तो भोजन के बारे में भी एक-दूसरे की पसन्द-नापसन्द जान ली. इस तरह दुविधापूर्ण शुरू किए गए सफ़र में अब कुछ हौसला आने लगा था. उम्र में मुझसे काफ़ी बडे थे जोशीजी, परिपक्व भी. उनका सहज, सौम्य व्यवहार, दूसरों का ध्यान रखने की प्रवृति, एक बार तो मन में आया कि ‘क्या ही अच्छा होता कि बापू के घर जाने की बजाय इनके घर रहना होता.’ परन्तु जानती थी कि यह बात संभव तो क्या, मुंह से निकालना भी उचित नहीं होगा.
देहरादून के ईस्ट कैनाल रोड पर स्थित एक बड़े से बंगले के सामने पहुंचकर जोशीजी ने टैक्सी रुकवाई. दरबान ने गेट खोला तो हम लीची से लदे पेड़ोंवाले एक बडे से बग़ीचे में दाख़िल हुए. अंत में उतने ही विशाल भवन के सामने जाकर रुकी टैक्सी. जोशीजी आगे न चल रहे होते, तो मैं कभी हिम्मत ही न कर पाती ऐसे घर में घुसने की. ऐसा ड्रॉइंगरूम, तो मैने सिर्फ़ फिल्मों में ही देखा था. अब यहीं रहना है, यह सोचकर भय अधिक था उत्साह कम.
भीतर के कमरे से जो महिला निकलकर आईं, वे निश्चय ही प्रभावशाली व्यक्तित्ववाली थीं. जोशीजी ने जब मेरी तरफ़ इशारा करके उनसे कहा, “मैडम मैं वैशाली को लिवा लाया हूं.” तो जाने क्यों मुझे लगा जैसे जोशीजी ने उन्हें बहुत ध्यान से देखा. जैसे वह उनके चेहरे पर उभरते भावों को पढ़ने का प्रयत्न कर रहे हों.
उन्होंने सरस्वती नामक स्त्री को बुलाकर मुझे अपने कमरे में पहुंचाने का आदेश दिया और मुझसे कहा,” हाथ-मुंह धो लो. तुम्हारे पापा आते ही होंगे.”
“पापा?” अभी तक तो मैंने उन्हें मां द्वारा सिखाए सम्बोधन ‘बापू’ से ही जाना है. बहुत कुछ बदलना होगा मुझे. बहुत कुछ नए की आदत डालनी होगी.
मां के पास एक छोटी-सी फोटो थी बापू की. नीले रंग की क़मीज़, सफ़ेद पतलून. दुबले-पतले, बाईं तरफ़ मांग निकाल पीछे की ओर किए हुए बाल. बापू की उंगली पकड़कर बाज़ार जाने की धुंधली-सी याद भी है, पर वह फोटोवाले बापू के संग जुड़ी यादें है. सांयकाल जिनसे मुलाक़ात हुई, वह छवि मेरे जीवन में कहीं भी नहीं थी. यह रौबदार व्यक्तित्व, सूट और टाई. मेरा इनसे कैसे संबंध हो सकता है? उन्होंने भी तो स्नेहपूर्वक आलिंगन में न ले, दूर से ही मुझे देखा, बहुत ध्यान से. सिंथेटिक प्रिंटवाला सूट, कस के बनी दो चोटियां, उस घर के माहौल में मैं कहीं भी फिट नहीं हो रही थी.
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और भाई से मिलना तो अभी शेष था.
सांझ ढले, फुटबॉल हाथ में लिए मिट्टी से सने जूतों के साथ जो लड़का भीतर आया वही मेरा छोटा भाई था विभोर.
अपनी व्यस्तता के कारण पापा ने मुझसे सम्बन्धित सब काम जोशीजी के ज़िम्मे ही कर रखा था. शुरुआत हुई मेरे स्कूल के दाख़िले से. पापा ने तो जोशीजी को मुझे सरकारी स्कूल में दाख़िल करवाने की सलाह दी थी. उन्हें लगा मैं शायद पब्लिक स्कूल में न चल पाऊं, पर जब जोशीजी ने मेरी दसवीं की मार्कशीट देखी, तो वह बहुत प्रसन्न हुए. अन्य विषयों के लिए अलावा अंग्रेज़ी में भी बहुत अच्छे नम्बर आये थे मेरे. बोले, “यह तुम्हारी मार्कशीट है, जबकि तुम्हारी कोई ट्यूशन भी नहीं लगी हुई थी. क्या तुम विभोर के स्कूल में पढ़ना चाहोगी?” उन्होंने मुझसे पूछा.
मन तो मेरा सीधे हां करने का ही था, किन्तु मैंने डरते हुए कहा, “यदि विभोर के पापा इजाज़त दें तो.”
इस पर जोशीजी ने कहा, “वह सिर्फ विभोर के नहीं तुम्हारे भी पापा हैं.”
ख़ैर पापा से सलाह करके उन्होंने विभोर के स्कूल में ही मेरा दाख़िला करवा दिया. साथ में अंग्रेज़ी की ट्यूशन भी लगवा दी. नम्बर तो मेरे अच्छे आए थे, पर बोलने में थोड़ी दुविधा थी.
स्कूल में दाख़िला हो जाने के कुछ समय पश्चात जोशीजी ने मुझे नए कपड़े बनवाने की सलाह दी. यह विचार उनका अपना था अथवा उनसे कहा गया था नहीं मालूम. मेरे मुंह से एकदम से निकला, “विभोर के पापा से पूछ लिया?”
इस बार उन्होंने मुझे कुर्सी पर बिठाकर आराम से समझाते हुए कहा, “मैं देख रहा हूं कि तुम अभी तक उन्हें पापा कहकर नहीं बुलाती हो. कब तक मेहमान बनकर रहोगी?”
जोशीजी को मैं कुछ उत्तर न दे पाई, क्योंकि मेरे मुंह से पापा निकल ही नहीं पा रहा था. कोशिश करके तो मैं कई संबोधन करती ही न. दरअसल, अपनी तरफ़ से मैंने कभी उनसे कोई बात की ही नहीं थी. उनके कुछ पूछने पर ही उतर देती थी, पर जोशीजी का आग्रह भी कैसे टालती?
” वह नीली क़मीज़ और सफ़ेद पैण्टवाले मेरे बापू हैं और यह पापा.” कहकर मैंने अपने मन को समझाया. शुरू-शुरू में डरी हुई-सी धीमी आवाज़ में निकला ‘पापा.’ फिर आदत पड़ने लगी.

उषा वधवा 

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