कहानी- बापू से पापा तक… 5 (Story Series- Bapu Se Papa Tak…5)

पापा के लौटने पर विभोर भागकर उनसे मिलता. वह घर पर न होता, तो पापा अवश्य उसके बारे में पूछते. मुझे तो कोई डांटता भी न कि उसे ही अपनापन मान लूं. कुछ दिन को आए मेहमान की तरह ही लग रहा था मुझे. अनेक बार मुझे ऐसा भी लगा कि जब मैं किसी और से बात कर रही होती, तो पापा मुझे बड़े ध्यान से देखते रहते. बहुत लोगों से सुना था कि मेरी आवाज़ मां जैसी है. हो सकता है बोलते समय मैं उन्हें मां की याद दिला देती थी.

‘यूं एक माह लग गया मुझे बापू को पापा बनाने में.’
सलवार सूट के अलावा मैं कुछ पहनने को तैयार नहीं थी, पर रंग और डिज़ाइन का चयन जोशीजी करते. कौन-सा रंग और डिज़ाइन मुझ पर अच्छा लगेगा, यह भी समझाया. जोशीजी से मुझे अधिक अपनापन मिलता था. उनसे मैं सब बातें करने लगी थी, मन की बात भी कह देती. जबकि घर के माहौल में मैं अभी सहज नहीं हो पाई थी. पापा परखती हुई निगाह से देखते. ठीक से बैठती-उठती हूं? भोजन फूहड़ ढंग नहीं खाती? मम्मी की निगाह भी आलोचनात्मक होती. कहती कुछ नहीं फिर भी…
वह एक अच्छी स्त्री थीं, शालीन और शिक्षित. घर को सुचारू रूप से चलाती हुई, पर जब पिता ही अपने नहीं लगते थे, तो उनकी क्या कहूं? मुझे कोई डांट-डपट न करता, परन्तु प्यार भी तो न जताता था, जिस तरह विभोर को किया जाता था. पापा के लौटने पर विभोर भागकर उनसे मिलता. वह घर पर न होता, तो पापा अवश्य उसके बारे में पूछते. मुझे तो कोई डांटता भी न कि उसे ही अपनापन मान लूं. कुछ दिन को आए मेहमान की तरह ही लग रहा था मुझे. अनेक बार मुझे ऐसा भी लगा कि जब मैं किसी और से बात कर रही होती, तो पापा मुझे बड़े ध्यान से देखते रहते. बहुत लोगों से सुना था कि मेरी आवाज़ मां जैसी है. हो सकता है बोलते समय मैं उन्हें मां की याद दिला देती थी.
शुरु की थोड़ी झिझक के बाद विभोर अवश्य मुझसे खुलने लग गया. शाम को मेरे कमरे में आ जाता बातें करने. सातवीं कक्षा में पढ़ता बच्चा. उसे तो कोई श्रोता चाहिए था स्कूल में दिनभर की गई कारस्तानियों का ब्योरा देने के लिए. स्कूल के क़िस्से सुनाता, संगी-साथियों और टीचरों की बातें करता. फुटबॉल खेलने का शौकीन, इतनी बातें करता फुटबॉल की कि न खेलने पर भी मैं उसके सब नियम-क़ानून जानने लगी थी. पढ़ाई से अधिक खेलने में मन लगता था उसका. पापा चाहते थे कि वह उनकी तरह आईएएस करे, परंतु विभोर की उसमें कोई रुचि नहीं थी. ‘क्या करेगा?’ यह निर्णय लेने के लिए अभी समय था. फ़िलहाल तो उसे हिन्दी में दिक़्क़त आ रही थी. मैंने उसे हिन्दी पढ़ाने का प्रस्ताव रखा, तो वह ख़ुश हो गया. यूं शाम का समय उसे पढ़ाने और पढ़ाने से भी अधिक उस की बातें सुनने में बीत जाता. उसे देखकर लगता कि उसे मेरा आना अच्छा लगा था. उसे घर में एक संगी की ज़रूरत थी, जो पूरी हो गई थी और वह मुझसे बहुत घुलमिल गया था.
मैंने बारहवीं भी बहुत अच्छे अंकों से पास कर ली और कॉलेज जाने लगी. बहुत अलग थी स्कूल से कॉलेज की वह दुनिया. स्कूल यूनीफॉर्म के बदले रंगबिरंगे कपड़े पहनने की छूट, क्लास बंक करके कैंटीन में बैठे कॉफी पीने की छूट और इन सबसे बढ़कर थी अपनी पसंद के विषय पढ़ने की छूट. लड़कियां फिल्मों एवं लड़कों से दोस्ती की बात करतीं और मुझे भी उनकी बातों में रस आने लगा. मैं भी बदलने लगी. आत्मविश्‍वास आ गया था मुझमें. घर में बिना बताए मैंने दो फिल्में भी देख डाली. किस को समय था मेरे जीवन में रुचि लेने का? परंतु यह क्यों भूल गई मैं कि जोशीजी की निगाह रहती है मेरी गतिविधियों पर. सो एक दिन उन्होंने मुझे बिठाकर लंबा-सा भाषण दे डाला.h

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‘तुम अन्य लड़कियों से भिन्न हो वैशाली. अपना ध्येय ऊंचा रखो, क्योंकि भरपूर क्षमता है तुममें. इस उम्र में की गई मेहनत तमाम उम्र काम आती है. किसान अपनी ज़मीन को तैयार करने में जितनी अधिक मेहनत करता है, उतना ही अधिक फल पाता है वह. इस उम्र में की गई मेहनत तुम्हारा पूरा जीवन संवार सकती है. मौज-मस्ती करने, फिल्में देखने की तो तमाम उम्र पड़ी है.”
इतना काफ़ी था मेरी दिशा मोड़ने के लिए.
इन सब बातों के बीच मैं एक बात बताना तो भूल ही गई. नहीं भूल तो कैसे सकती हूं वह तो मेरे मन-मस्तिष्क में ही समाई है. दरअसल, बताने की हिम्मत नहीं कर पाई. डर रही थी, सो टाल रही थी.
बात यह थी कि बीए के वर्षों में कुछ बदलाव-सा महसूस करने लगी मैं अपने में. नहीं! सिर्फ पहनने-ओढ़ने का नहीं, स्वयं में कहीं भीतर ही. हर लड़की के जीवन में एक उम्र आती है, जब वह पुरुष की सामान्य दृष्टि एवं उसका प्यार से देखना, दोनो में अंतर करना सीख जाती हैं. हाथ का छू जाना और स्नेहभरे स्पर्श का भेद करना जान लेती है. चाहे फिर वह कोई अपरिचित व्यक्ति का ही क्यों न हो. इस पर मेरा तो इतना लंबा परिचय था जोशीजी से. मेरे मन को उद्वेलित कर जाती आजकल उनकी नज़र. भीतर एक मीठा-सा एहसास जगा जाती हर बार. बिना एक भी शब्द कहे. उनकी चुप्पी भी जैसे शब्दों से भरी होती. मूक रहकर भी वह बहुत कुछ कह जाते. और आश्चर्य यह कि यह सब मुझे अच्छा लग रहा था, बहुत अच्छा!

उषा वधवा

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