कहानी- भ्रांति 3 (Story Series- Bhranti 3)

वे शायद नहीं जानतीं कि उनकी गिरती हालत देखकर मैं कितनी बार अंदर से कमज़ोर हुआ हूं, टूटा हूं, बिखरा हूं, ख़ुद को नितांत एकाकी पाकर रोया भी हूं. पर उनके सामने मज़बूत बना रहा हूं. सच, कभी-कभी भ्रांति में जीना भी कितना सुकून देता है… डॉक्टर से मिलने के बाद मन हो रहा था उड़कर मां के पास पहुंच जाऊं और उनके गले लगकर फफक पडूं. पर अब लग रहा था कि अच्छा हुआ ऐसा नहीं किया. यदि कोई भ्रांति इंसान को सुकून की मौत दे सकती है, तो क्यों न उस भ्रांति को बने ही रहने दिया जाए.

मुझे लगा, मैं चक्कर खाकर गिर पड़ूंगा. मां भी आम इंसान की तरह कोमल हृदय रखती हैं, उनमें भी वात्सल्य कूट-कूटकर भरा है, भावनाएं उन पर भी हावी होती रही हैं और मैं समझता रहा कि वे हाड़-मांस की नहीं, फौलाद की बनी हैं. वे अमृत पीकर इस धरा पर अवतरित हुई हैं और हमेशा मेरी ढाल बनकर खड़ी रहेंगी.

मां का आत्ममंथन जारी था. “जब सुशील का साथ छूटा, तो एकबारगी तो यह दुनिया छोड़ने का मन हुआ था. यह तो नन्हें मेहुल की मासूम आंखें और मेरे पल्लू पर उसके नन्हें हाथों की मज़बूत पकड़ थी, जिसने मुझे वह कायराना हरक़त करने से रोका और दुनिया का सामना करने की ताक़त दी. तब से आज तक मैं हर पल मेहुल के लिए जी रही हूं. कितना तड़पी थी मैं उस व़क्त, जब मेहुल उच्च शिक्षा के लिए विदेश चला गया था. वह तो बार-बार यही कहता रहा- ‘मां, मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जाऊंगा. यहीं पढ़ लूंगा…’ पर मैं जानती थी ऐसा सुअवसर कितनों के नसीब में होता है? अपनी प्रतिभा के बल पर वह उन्नति के इस पायदान पर पहुंचा है और मैं अपने प्यार की बेड़ियां डालकर उसके बढ़ते क़दमों को वहीं थाम लूं? नहीं, मैं इतनी स्वार्थी नहीं हो सकती थी.”

“पर मेहुल के लिए तुम्हें विदा करना इतना आसान नहीं होगा दीदी. तुम नहीं जानतीं ऊपर से वह लड़का मज़बूत बना रहता है, पर तुम्हारी बीमारी ने कुछ ही दिनों में उसे अंदर से तोड़कर रख दिया है.”

“जानती हूं. मां हूं उसकी. इसीलिए तो तुमसे कह रही हूं कि उसका ख़्याल रखना. मैं चाहती हूं जिस तरह मैंने उसे ख़ुशी-ख़ुशी विदेश के लिए विदा किया था, वैसे ही वह भी मुझे ख़ुशी-ख़ुशी विदा करे. जिस तरह मैंने यह सोचकर ख़ुद को मज़बूत बनाए रखा कि मेरा बेटा जहां भी है ख़ुश है, आराम से है. वैसे ही वह भी अपने मन को समझा ले कि और कष्ट झेलने की बजाय मां अपने पूरे होशोहवास में शांतिपूर्वक इस दुनिया से विदा हुई.”

मैं काठ की तरह खड़ा रह गया था. न शरीर हिल-डुल रहा था और न ही दिमाग़ चल रहा था.

मैं उल्टे क़दमों से लौट पड़ा. बाहर आकर एक ग्लास ठंडा पानी पीया, तो तन-मन को कुछ राहत मिली. अब दिमाग़ भी कुछ सक्रिय हुआ. मां इतने बरसों तक अंदर से टूटती-बिखरती रहीं, पर मेरे सम्मुख हमेशा एक मज़बूत स्तंभ की भांति खड़ी रहीं. जिसके साये में मैंने ख़ुद को हमेशा महफूज़ महसूस किया, अपने अंत समय में भी उन्हें अपना नहीं, मेरे कमज़ोर पड़ जाने का भय है. वे शायद नहीं जानतीं कि उनकी गिरती हालत देखकर मैं कितनी बार अंदर से कमज़ोर हुआ हूं, टूटा हूं, बिखरा हूं, ख़ुद को नितांत एकाकी पाकर रोया भी हूं. पर उनके सामने मज़बूत बना रहा हूं. सच, कभी-कभी भ्रांति में जीना भी कितना सुकून देता है… डॉक्टर से मिलने के बाद मन हो रहा था उड़कर मां के पास पहुंच जाऊं और उनके गले लगकर फफक पडूं. पर अब लग रहा था कि अच्छा हुआ ऐसा नहीं किया. यदि कोई भ्रांति इंसान को सुकून की मौत दे सकती है, तो क्यों न उस भ्रांति को बने ही रहने दिया जाए.

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मैंने एक गहरी सांस ली और सधे क़दम फिर से मां के कक्ष की ओर बढ़ गए. इस बार वे पर्दे के पास जाकर रुके या हिचकिचाए नहीं, बल्कि पर्दा हटाकर सीधे अंदर प्रविष्ट हो गए. मुझे सामने पाकर मां और गीता मौसी के वार्तालाप को विराम लगना ही था. पर मैं हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार था. वार्तालाप शायद किसी बेहद नाज़ुक मोड़ पर पहुंच चुका था, क्योंकि दोनों की आंखें नम थीं. मैं मां की नम आंखों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करते हुए गीता मौसी की ओर बढ़ा और उन्हें सीने से लगा लिया. “क्या गीता मौसी, आप भी… बच्चों की तरह हर बात पर रोने लग जाती हैं. मां को देखिए! इंसान के रूप में वे फौलाद हैं फौलाद! मां की ज़िंदगी के सागर में कितने ही तूफ़ान आए और निकल गए, पर वे तनिक भी विचलित नहीं हुईं, बल्कि और भी निखरकर सामने आईं. क्यूं मां?” ऐसा कहते हुए मैंने गीता मौसी को छोड़ा और मां को अपने से लिपटा लिया, दिल की बेक़ाबू धड़कनों को तब तक क़ाबू किए उन्हें अपने सीने से लिपटाए रहा, जब तक मुझे भरोसा नहीं हो गया कि मां ने अपनी नम आंखें पोंछ ली हैं. फिर मां के सीने से अलग होते हुए मैंने गर्व से उनका माथा चूम लिया.

एक चमत्कार हुआ. कुछ पल पूर्व आंसुओं से भीगा मां का चेहरा अब आत्मविश्‍वास से चमक रहा था. उनके चेहरे पर चिरपरिचित सहज मुस्कान लौट आई थी. उन्होंने सिर उठाकर गर्व से गीता मौसी की ओर नज़रें घुमाईं. चुनौतीपूर्ण नज़रें कह रही थीं, ‘देखा, मेरे बहादुर बेटे को.’

गीता मौसी भौचक्की-सी कभी मां को देख रही थीं, तो कभी मुझे.

  संगीता माथुर

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