कहानी- बिना चेहरे की याद 1 (Story Series- Bina Chehre Ki Yaad 1)

आप अकेली यहां क्या कर रही हैं? अपने कमरे में क्यों नहीं गईं? मैं तो सोच रहा था कि आप भी कब की प्रो. रजनी के साथ कमरे में चली गई होंगी.” चाहते हुए भी मैं ग़ुस्से के मारे अतिरिक्त कठोरता से बोल गया.
म… मैं चली गई थी सर. नींद नहीं रही थी, इसलिए यहां आकर बैठ गई. बस, अंदर जा ही रही थी.” मेरी आवाज़ सुनकर वह हड़बड़ाकर खड़ी हो गई.
ये कोई व़क़्त और जगह है अकेले बैठने के लिए. कुछ समय का ध्यान भी है आपको? चलिए अपने कमरे में.” मेरा स्वर अब भी कठोर था.

देर रात तक स्टूडेंट्स मैदान में आग जलाकर कैंप फ़ायर के मज़े लेते रहे. अंताक्षरी हुई, चुटकुले सुनाए गए, खाना-पीना हुआ और बहुत देर तक सोलो ग्रुप में नाच-गाना होता रहा. फिर सभी स्टूडेंट्स व प्रो़फेसर अपने-अपने कमरों में चले गए.
मेरे साथ रूम शेयर कर रहे प्रो. द्विवेदी तो पलंग पर लेटते ही खर्राटे भरने लगे. मैं चेंज करके आया और थर्मस में से कॉफी निकालकर सो़फे पर बैठ गया. बॉटनी के स्टूडेंट्स का टूर लेकर हम छह स्टाफ़ मेम्बर्स नैनीताल आए थे. कुछ सोचते हुए मैं कॉफी का कप थामे खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया. पहाड़ों की रात्रि की कालिमा मैदानों से अधिक घनी होती है. दूर-दूर तक घने स्याहपन के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. होटल के सामने स्टूडेंट्स द्वारा जलाई हुई लकड़ियां अब अंगारों के रूप में सुलग रही थीं. उसी मद्धिम उजाले में मुझे ऐसा लगा जैसे लकड़ी के एक लट्ठे पर कोई मानव आकृति बैठी हुई है. थोड़ा गौर से देखने पर पता चला कि वह आकृति किसी लड़की की है. मेरी ओर उसकी पीठ थी. इधर-उधर नज़र दौड़ाई, आसपास कोई और नहीं था. मैंने कप टेबल पर पटककर तेज़ी से नीचे दौड़ लगाई.
पास पहुंचा तो चौंक गया. अरे, यह तो अंजना है, पर यहां इतनी रात में सुनसान जगह पर अकेली क्यों बैठी है? जब टीचर्स ही ऐसा करने लगेंगे, तो स्टूडेंट्स को हम क्या अनुशासन सिखाएंगे? मेरा माथा भन्ना गया, अपनी नहीं, पर दूसरों की परेशानी का तो ख़याल करती. मज़े से गाल पर हाथ धरे पता नहीं किसके ख़यालों में खोई हुई एकटक सुलगती हुई लकड़ियों को ताक रही है.
“आप अकेली यहां क्या कर रही हैं? अपने कमरे में क्यों नहीं गईं? मैं तो सोच रहा था कि आप भी कब की प्रो. रजनी के साथ कमरे में चली गई होंगी.” न चाहते हुए भी मैं ग़ुस्से के मारे अतिरिक्त कठोरता से बोल गया.
“म… मैं चली गई थी सर. नींद नहीं आ रही थी, इसलिए यहां आकर बैठ गई. बस, अंदर जा ही रही थी.” मेरी आवाज़ सुनकर वह हड़बड़ाकर खड़ी हो गई.
“ये कोई व़क़्त और जगह है अकेले बैठने के लिए. कुछ समय का ध्यान भी है आपको? चलिए अपने कमरे में.” मेरा स्वर अब भी कठोर था.
“आई एम सॉरी सर.” रिसेप्शन हॉल जैसा कुछ वहां अभी बना नहीं था, हां गेट के पास एक कमरे में होटल के एक-दो कर्मचारी और पीछे की तरफ़ किचन में दो बेयरे सोते थे. अंजना को उसके कमरे तक पहुंचाकर जब मुझे तसल्ली हो गई कि अंदर से उसने लॉक कर लिया है, तभी मैं अपने कमरे में आया.

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अजीब औरत है. अनजान शहर के सुनसान अंधेरे में अकेली बैठी है. पता नहीं हर समय किसके ख़यालों में खोई रहती है. किसको याद करती रहती है. कॉलेज में भी जब फ्री पीरियड में स्टाफ़ मेम्बर्स आपस में हंसी-मज़ाक करते हैं या गप्पे लड़ाते हैं तब भी अंजना खिड़की के बाहर गुमसुम-सी पता नहीं क्या सोचती रहती है. पर आज तो हद ही हो गई. मैं जितना सोचता अंजना की ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकत के बारे में, उतना ही मेरा ग़ुस्सा बढ़ता जाता.
दूसरे दिन सुबह नाश्ता करके हम लोग सात ताल की ओर निकल गए. कुछ सैर, कुछ पढ़ाई. प्रकृति की गोद में आंधे घंटे की क्लास लेकर हम आगे बढ़ गए. तालाब पर पहुंचकर कुछ स्टूडेंट्स बोटिंग करने लगे, कुछ नाशपाती के बगीचों में जाकर बैठ गए. साथी प्रो़फेसर्स भी बोटिंग करने चले गए.
आसपास देखते हुए अंजना पर नज़र पड़ी. अब भी वह एक कुर्सी पर अकेली बैठकर पानी की ओर ताकती, पता नहीं किन ख़यालों में गुम थी. रात को उससे बात करते समय अपने स्वर की कठोरता और क्रोध के पुट पर इस समय शर्मिंदगी-सी महसूस होने लगी. वह स्टाफ़ मेम्बर है, कोई स्टूडेंट नहीं कि उससे ऐसे डपट के बोल गया. उम्र में कम है तो क्या हुआ? है तो कलीग ही और वैसे स्वर में बोलने लायक घनिष्ठता भी उससे नहीं हुई थी. पिछले दो सालों में रोज़ ही आमना-सामना होता है, नमस्कारों का आदान-प्रदान होता है, पर इससे अधिक कोई बात उससे कभी नहीं हुई. मैंने तो उसे बात करते हुए बहुत कम देखा है. सोचा, चलकर रात को किए गए अपने व्यवहार के लिए खेद प्रकट कर आऊं. मैं उसके पास गया.
“आप बोटिंग करने नहीं गईं?” कुर्सी पर बैठते हुए मैंने पूछा.
“नहीं सर, मुझे पानी से डर लगता है.” अनायास मुझे देखकर वह चौंक पड़ी.

 

डॉ. विनिता राहुरीकर

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