कहानी- चाबियां 4 (Story Series- Chabiya 4)

“मैं आप दोनों की थालियां लगा देती हूं.”

“नहीं, अब तू बैठ जा. सवेरे से भागदौड़ कर रही है. थालियां मैं लगाऊंगी… और हां, बहू तुझे जो चाबियों का गुच्छा दे गई है उसकी जाने से पूर्व एक डुप्लीकेट कॉपी मेरे लिए भी बनवा जाना.”
“चाबियां?” नाम्या हैरान थी.

 

 

 

 

… “मुझे क्या ज़रूरत पड़ी है? तुम हो न सब!” अपने भाई-बहनों के नंबर भी वह अनीताजी से ही लगवाकर बात कर लेती थीं.
सुभद्राजी का न पूजा में मन लग रहा था, न और किसी काम में. कैसा होगा उनका बेटा? ज़्यादा चोट तो नहीं लगी? बहू और श्रेयस भी यहां नहीं हैं. सोफे पर इंतज़ार करती सुभद्राजी की नज़र अचानक दीवार घड़ी पर गई, तो वे चौंक उठीं.
‘अरे इतना समय हो गया! आज तो मालती भी नहीं आई. खाने का समय हो रहा है. अब क्या करूं? कहां पता करूं उसका? मेरे पास तो उसका नंबर भी नहीं हैं. मुझसे तो खड़े-खड़े एक कप चाय भी न बने. कहां तो बीस-बीस लोगों का खाना बना लिया करती थी. कितना दूसरों पर निर्भर हो गई हूं मैं?’
अपनी असहायता पर उन्हें आज सहानुभूति कम, खीज ज़्यादा आ रही थी. तभी लैंडलाइन बज उठा. नाम्या का फोन था.
“पापाजी ठीक हैं, आप बिल्कुल चिंता न करें. एक्सरे करवा लिया था. पांव में हेयरलाइन फ्रेक्चर है. क्रेपबैंडेज बांध दी है. दवाइयां ख़रीद ली हैं. बस, निकल रहे हैं. लंच तक पहुंच जाएंगे.”
“अरे, पर मालती तो अभी तक आई नहीं हैं.” सुभद्राजी के मुंह से बेसाख्ता निकल गया था.
“अच्छा, मैं देखती हूं.” नाम्या ने फोन बंद कर दिया था.
चिंतित सुभद्राजी का किसी काम में भी मन नहीं लग रहा था.
‘अब यह कल की आई लड़की क्या देखेगी? जब मैं ही कुछ नहीं कर पा रही हूं.’ बाहर गाड़ी रुकने की आवाज़ आई, तो किसी तरह ख़ुद को संभालती वे बाहर आईं. नाम्या पापाजी को सहारा देकर भीतर ला रही थी. बेटे को सकुशल देख सुभद्राजी की जान में जान आई.
“नाम्या ने समय पर पहुंचकर सब संभाल लिया मां. अनीता ने इसे दुकान, कैब, डॉक्टर, बाई, धोबी आदि सारे ज़रूरी फोन नंबर दे रखे हैं. यहां तक कि एटीएम कार्ड, पासवर्ड तक बताकर गई थी. कब, कैसे इसने सब मैनेज किया, मैं तो ख़ुद हैरान और प्रभावित हूं.” पापाजी बोलते रहे, तब तक नाम्या ने उन्हें तकिए का सहारा देकर बिस्तर पर बैठा दिया. तभी उसका मोबाइल बज उठा.
“हां मम्मीजी, सब बिल्कुल ठीक है. नानाजी कैसे हैं अब? और नानीजी?.. हां… हां बिल्कुल. यहां की आप बिल्कुल चिंता न करें.”
“अरे उसे बता तो देती फ्रेक्चर के बारे में!” सुभद्राजी ने आदतन टोका.

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“कहां ज़रुरत है मां? व्यर्थ ही परेशान होगी. कल वैसे भी आ तो रही है. तुमने ठीक किया बेटी.” बेटे ने पतोहू का पक्ष लिया और पहली बार सुभद्राजी को बुरा नहीं लगा, बल्कि पतोहू पर गर्व हो आया. तभी डोरबेल बजी.
“खाना आ गया लगता है. मैंने ऑर्डर किया था.” नाम्या के मुंह से निकला.
“पर मालती?”
“वह कहीं गमी में गई है. मैंने उसे फोन करने के बाद ही ऑर्डर किया था.”
गरम-गरम ताज़ा खाना देखकर सबकी भूख खुल गई थी. सुभद्राजी की पसंद की कढ़ी खिचड़ी थी, तो पापाजी की पसंद की मेथी मटर और तवा रोटी भी.
“मैं आप दोनों की थालियां लगा देती हूं.”
“नहीं, अब तू बैठ जा. सवेरे से भागदौड़ कर रही है. थालियां मैं लगाऊंगी… और हां, बहू तुझे जो चाबियों का गुच्छा दे गई है उसकी जाने से पूर्व एक डुप्लीकेट कॉपी मेरे लिए भी बनवा जाना.”
“चाबियां?” नाम्या हैरान थी.
“मां का मतलब ज़रूरी फोन नंबर आदि से है. क्यों मां?” पापाजी ने हंसते हुए बताया.
“हां, और सब घरवालों की पसंद-नापसंद, स्वभाव, रूचियों आदि से भी! आख़िर ये ही तो हर एक के दिल तक पहुंचनेवाली चाबियां हैं.” खाना परोसती सुभद्राजी ने बात समाप्त कर नज़र उठाकर देखा, तो पाया बेटा और पतोहू दोनों प्रशंसात्मक नज़रों से उन्हें ही ताक रहे थे.

 

 

 

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Usha Gupta

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