कहानी- चाबियां 3 (Story Series- Chabiya 3)

सुभद्राजी भौंचक्की-सी खड़ी रह गई थीं. कब फोन आया? कब और कैसे इस लड़की ने कैब बुलाई? साथ में पैसे रखे कि नहीं? आलमारी में पैसे हैं भी कि नहीं? बहू इसे चाबियां दे गई थी या नहीं? उनकी तो कोई सुनता ही नहीं है. टोको तो कह देगी, ‘मांजी घर में ज़ेवर-नकदी रखते ही नहीं हैं. तो किस बात का ताला? कैसी चाबी?’… इस लड़की ने कैसे कैब बुलाई? कैसे दुकान पहुंचेगी? उसे तो इस शहर की एबीसीडी भी नहीं मालूम… पर ख़ुद उन्हें भी कहां कुछ जानकारी है?..

 

 

 

… नाम्या अभिभूत थी. मम्मीजी सबका मन समझती है, लेकिन वे भी एक मन रखती होगीं यह शायद अब तक किसी ने समझने का प्रयास नहीं किया. अनायास ही नाम्या की दृष्टि पूजाघर में जलती अगरबत्ती पर ठहर गई. स्वयं शनैः शनैः जलकर भी पूरे घर को सुवासित करती अगरबत्ती.
“मां, नाम्या.. कहां हो यार तुम लोग? नाम्या, जल्दी से मेरा सूटकेस पैक करो. मुझे कंपनी के काम से अभी दिल्ली निकलना है.” श्रेयस ने घर में प्रवेश करते ही हड़बड़ी मचा दी.
“अरे, पर ऐसे अचानक? तीन-चार दिन में तो तुम्हें हनीमून पर निकलना है.” अनीताजी परेशान हो उठी थीं.
“परसों लौट आऊंगा मां! नाम्या, तुम सब तैयारी करके रखना.”
“नाम्या की चिंता मत करना. मैं सो जाऊंगी इसके पास!”
दिन-रात के साथ ने सास-बहू की बॉडिंग को और भी मज़बूत कर दिया था. अनीताजी सखी समान बहू पाकर बेहद ख़ुश थीं. अंततः किसी ने तो उन्हें समझा. नाम्या कृतज्ञ थी अपनी मां समान सास के प्रति. अवसर मिला, तो वह उनके लिए अवश्य कुछ कर दिखाएगी.

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नाम्या ने सोचा भी नहीं था कि ऐसा अवसर उसे अगले दिन ही मिल जाएगा. शादी से अपने घर लौटे अनीताजी के पापा को अचानक ही हार्ट अटैक आ गया. हालांकि समय रहते चिकित्सा मिल जाने से स्थिति संभल गई थी. किंतु अनीताजी का मन मां-पापा से मिलने को मचल उठा. पर घर? श्रेयस भी यहां नहीं है. ऐसे में उनकी मनःस्थिति को समझा नाम्या ने. आख़िर वह भी एक बेटी थी और अभी-अभी अपने पापा-मम्मी से विदा हुई थी. ना-ना करती अनीताजी को वह फ्लाइट से रवाना करके ही मानी.
“आप यहां की बिल्कुल चिंता मत करना. मैं सब संभाल लूंगी.” उसने सास को आश्वस्त किया था. परिस्थितियां मानो नाम्या की परीक्षा लेने पर ही उतर आई थीं. अगले दिन नाश्ते के बाद पापाजी दुकान निकल गए थे. दादीजी पूजाघर में व्यस्त हो गईं, तो नाम्या भी अपनी आवश्यक मेल्स चेक करने लगी. अचानक पापाजी का कॉल देख वह चौंक उठी.
“ओह, मैं अभी पहुंचती हूं.” अगले ही पल वह पर्स झुलाती पूजाघर के सामने थी.
“पापाजी दुकान की सीढ़ियों से गिर गए हैं. मामूली चोट आई है. मैं दुकान होकर आती हूं.”
“अरे, पर कब? कैसे?” सुभद्राजी उठकर बाहर आतीं, तब तक नाम्या ‘मेरी कैब आ गई है’ चिल्लाती बाहर निकल चुकी थी.
सुभद्राजी भौंचक्की-सी खड़ी रह गई थीं. कब फोन आया? कब और कैसे इस लड़की ने कैब बुलाई? साथ में पैसे रखे कि नहीं? आलमारी में पैसे हैं भी कि नहीं? बहू इसे चाबियां दे गई थी या नहीं? उनकी तो कोई सुनता ही नहीं है. टोको तो कह देगी, ‘मांजी घर में ज़ेवर-नकदी रखते ही नहीं हैं. तो किस बात का ताला? कैसी चाबी?’… इस लड़की ने कैसे कैब बुलाई? कैसे दुकान पहुंचेगी? उसे तो इस शहर की एबीसीडी भी नहीं मालूम… पर ख़ुद उन्हें भी कहां कुछ जानकारी है? वे तो इसी शहर में जन्मी, पली-बढ़ी हैं. पर जा सकती हैं कहीं अकेले? कर सकती हैं कुछ अकेली? बहू कई बार कहती भी है मांजी आप भी सारे आवश्यक फोन नंबर, पते आदि अपने पास रखा करें. जाने कब ज़रूरत पड़ जाए, लेकिन सुभद्राजी एक कान से सुनती, दूसरे से निकाल देतीं…

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 

 

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Usha Gupta

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