… इस पर डाॅक्टर ने समझाया, “हमारी होती तो दो किडनी हैं, परन्तु एक से बख़ूबी काम चल जाता है. कई बार ऐसा भी हुआ है कि बहुत उम्र बीत जाने के बाद पता चला है कि फ़ला व्यक्ति की जन्म से एक ही किडनी है, इसीलिए तो मजबूरी होने पर कुछ लोग अपनी एक किडनी बेच देते हैं. दूसरी बात यह है कि हमारा शरीर बाहरी अंग जल्दी से स्वीकार नहीं करता परन्तु किसी रक्त सम्बंधी का अंग होने पर इसकी संभावना बढ़ जाती है. और सलोनी ने तो स्वयं अपना गुर्दा देने की पेशकश की है. विश्वास रखो सलोनी का इसमें कुछ नुक़सान नहीं होने वाला और तुम्हारे शरीर द्वारा उसे स्वीकृत करने की संभावना बहुत बढ़ जाएगी.”
राघव कुछ पल डाॅक्टर की ओर देखते रहे. किसी उलझन में हों जैसे, मन में कुछ निश्चय कर रहे हों, एक तो बचपन का मित्र और फिर अभी उसकी सहायता कर रहा है. स्पष्ट बात कहना आवश्यक है. सो उसने धीमे से कहा, “सलोनी मेरी बेटी नहीं है.”
“क्या मतलब? तुम तो भाभी को उसके बचपन से जानते थे. क्या भाभी का…” उसके मन में जो संशय उपजा था उसे कहना उचित न समझ वह रुक गए.
“नहीं ऐसा कुछ नहीं है मित्र.” और राघव ने पूरी आपबीती कह सुनाई. फिर जोड़ा, “सलोनी को यह बात याद नहीं होगी और मैंने कभी इस विषय में बात की नहीं. दरअसल, मुझे तो यह ध्यान ही नहीं आता कि वह मेरी बेटी नहीं है. पता चलने पर जाने वह क्या सोचे, उसके पति को कैसा लगे? इसीलिए कह रहा हूं कि यहां भी जब रक्त का रिश्ता नहीं है, तो बाहर से लेना और सलोनी की लेना तो एक ही बात हो गई न?
बस तुमसे यह गुज़ारिश है कि सलोनी के सम्मुख इस बात का ज़िक्र मत करना.”
सलोनी अपने पिता को लेने आई हुई थी. और बहुत देर से आंटी के पास किचन में खड़ी थी. पापा को बुलाने जब वह ड्राॅइंगरूम में आई, तो उसने काफ़ी कुछ सुन लिया था.
कमरे के भीतर आ कर उसने कहा, “मुझे सब पता है पापा. मां ने बताया था. और शैलेंद्र भी जानते हैं यह बात.
पर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है पापा. किसी पिता से कम प्यार मिला है क्या मुझे आपसे? तो मुझे भी आज अपना बेटी होने का फ़र्ज़ निभाने दो न?”
(‘चिड़ियां दा चंबा’ मतलब चिड़ियों का झुंड)
उषा वधवा
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