कहानी- क्रेडिट 3 (Story Series- Credit 3)

 

उसने नोटिस किया कि पल्लव ही टिफिन देने आते और खाली टिफिन ले जाते. यह बात उसे अखरती कि उनकी पड़ोसन खाना तो नियम से भिजवाती है, पर उसकी खैरख्वाह पूछने कभी नहीं आती… खैर जल्द से जल्द काम पर लगना उसका ध्येय था. वह उठने लायक हो गई, तो टिफिन आना बंद हुआ.

 

 

 

 

 

… “अरे नहीं, मुझे कोई क्रेडिट नहीं चाहिए.” कहते-कहते वह अपनी ही बात पर चौंकी, फिर संभली… कुछ बीता हुआ उसकी आंखों के सामने तैर गया. उर्वशी, “हाय क्यों?” कहकर हंसने लगी थी. और वह अपने शब्दों के पीछे छिपे मर्म को ढूंढ़ती विगत के अतल में समाने लगी. अतीत के समंदर से खंगालकर एक क़िरदार निकाला… पल्लव वर्मा… आंखें सड़क पर टिकी थीं और मन यादों में डूब-उतरा रहा था. वह भी तो अपने कुशल प्रबंधन का क्रेडिट अपनी पत्नी को देता था. काश! आज उसका इंटरव्यू लिया जाता, तो अवश्य ही वह अलहदा होता.
एक अर्थपूर्ण मुस्कुराहट के साथ याद आया जयपुर… नया-नया तबादला हुआ था. आए हुए दो-तीन दिन भी नहीं हुए थे कि हर्ष को ऑफिस के किसी काम से दिल्ली जाना पड़ा. पूरा घर अस्त-व्यस्त था. नई जगह पर अपनी गृहस्थी व्यवस्थित करने में जूझते हुए करेले में नीम चढ़ी-सी स्थिति हो गई जब वह एक शाम रसोई में फिसल गई. उसकी आठ साल की बेटी मदद के लिए अपने बगल में रहने वाले पल्लव वर्मा की घंटी बजा आई थी. वह आए और उसे हॉस्पिटल लेकर गए. कमर में चोट लगी थी और उसे एक हफ़्ते का बेड रेस्ट दे दिया गया.

 

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पल्लव रोज़ उसके घर आते और एक टिफिन पकड़ाकर चले जाते. उनसे मदद लेना बड़ा अजीब था, पर और कोई चारा भी नहीं था. बेटी छोटी थी, सो उससे भी मदद की बड़ी उम्मीद नहीं थी… समय की नज़ाकत देखते हुए वह ज़्यादा तकल्लुफ़ में नहीं पड़ी… टिफिन में आया घर का ताज़ा और स्वादिष्ट खाना दो लोगों के लिए पर्याप्त और तुष्टिदायक था.
दिन का खाना नियम से उनके घर से आता था. रात को ब्रेड-बटर, मैगी से काम चलता. कभी-कभी बिटिया ऑनलाइन खाने का ऑर्डर दे देती, तो कभी पल्लव शाम को भी कुछ ख़ास, जैसे- शीरा-खीर या पकौड़े जो नाश्ते में बनता, उसके न-न करते भी दे जाते. तीन-चार दिन बाद वह संकोच करने लगी… पर वह तब भी टिफिन ये कहकर दे जाते, “हमारा तो बनता ही है. इसमें क्या दिक़्क़त है.” उसने नोटिस किया कि पल्लव ही टिफिन देने आते और खाली टिफिन ले जाते. यह बात उसे अखरती कि उनकी पड़ोसन खाना तो नियम से भिजवाती है, पर उसकी खैरख्वाह पूछने कभी नहीं आती… खैर जल्द से जल्द काम पर लगना उसका ध्येय था. वह उठने लायक हो गई, तो टिफिन आना बंद हुआ.
पूर्ण रूप से स्वस्थ होने पर एक दिन दोपहर में वह पड़ोस में गई. पल्लव के दरवाज़ा खोलने पर वह चौंकी, “आइए…” उसने बैठके की ओर इशारा किया.

 

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कुछ सकुचाकर वह बोली, “कल से ऑफिस ज्वाइन कर रही हूं. सोचा, आज औपचारिक रूप से आपकी पत्नी को धन्यवाद दे आऊं. स्वादिष्ट खाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.” यह सुनकर वह हल्की-सी गर्दन झुकाकर बोले, “ऑल क्रेडिट गोज़ टू माई वाइफ…”
“वाइफ को क्रेडिट देते हैं. पर उन्हें कभी साथ नहीं लाए.” मन की टीस न चाहते हुए भी बाहर निकल आई, तो वह बोले,
“चाय पीएंगी?”

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें

मीनू त्रिपाठी

 

 

 

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