… अब इसे भी संयोग कहेंगे कि दो माह पश्चात ही दीदी के मण्डल मुख्यालय स्थित एक इन्टर कॉलेज में प्रायोगिक परीक्षा हेतु मुझे बाह्य परीक्षक का नियुक्ति पत्र मिला. पत्नी ने कहा भी, “चलो तुम्हारी वर्षों की मुराद पूरी होनेवाली है, दीदी को इस बात की सूचना दे दो, वह भी प्रसन्न हो जाएंगी.” मगर मैंने तय कर लिया बिना किसी पूर्व सूचना के उनके समक्ष उपस्थित हो मैं उन्हे आश्चर्य में डाल दूंगा.
नियत तिथि को मैंने तड़के सुबह ट्रेन पकड़ी, स्कूल पहुंच अपना कार्य सम्पन्न किया और निकल पड़ा दीदी के गांव की बस पकड़ने.
बस-पड़ाव के पहले ही एक विशाल मैदान दिखा जहां काफ़ी गहमागहमी थी. मैदान के मध्य एक विशाल टेंट लगा था. चारों तरफ़ लोगों का हुजूम और बड़ी संख्या में पुलिस बल की तैनाती भी थी. टेंट के बाहर करीने से बहुत बड़ी संख्या में कारें और अन्य छोटी-बड़ी गाड़ियां लगी थी; उन्हें देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि भारत एक ग़रीब मुल्क है. जब उन गाड़ियों पर नज़र गई, तो देखा ढेर सारी गाड़ियों पर नंबर प्लेट के अतिरिक्त एक और प्लेट भी जड़ा था, जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में अंग्रेज़ी में एमपी लिखा था. मैं सोचने लगा इतनी बड़ी संख्या में सांसदों की उपस्थिति, अवश्य कोई महत्वपूर्ण बैठक चल रही होगी.
खैर, मुझे इससे क्या लेना देना, मैं तो दीदी से मिलने को उतावला था. पर अभी मुश्किल से चार कदम चला होगा कि पीछे से आवाज़ आई, “टीटू है क्या.”
मैं चौंका, मुझे मेरे घर के नाम से कौन पुकार रहा है. मेरे पैर बरबस रुक गए. मैंने पीछे मुड़कर देखा तो सामने लता दीदी अपनी दोनों हाथ फैलाए मुस्कुराते हुए मेरा स्वागत कर रही थीं. मैं आश्चर्यचकित था. दीदी ने ही आगे बढ़कर मुझे अपनी बांहों में जकड़ लिया. आसपास के लोगों की घूरती निगाहों को नज़रअंदाज़ करते हुए हम दोनों भाई-बहन इस मुलाक़ात में थोड़ी देर के लिए खो गए. जब होश आया तो दीदी ने ही पूछा, “तू यहां कैसे?”
“अरे, मैं तो आपसे ही मिलने आया. अभी स्कूल में परीक्षा का कार्य निपटा कर आपके गांव के लिए बस पकड़ने जा रहा था. मगर इतने दिनों बाद आपने मुझे पहचाना कैसे?”
“मैं निकास द्वार से निकल ही रही थी कि मेरी नज़र तेरे चेहरे पर पड़ी. मैं तो देखते ही पहचान गई, यह मेरा टीटू ही है. मैं तेरी तरह नहीं जो अपने भाई को ही भूला दूं, आलोक के जाने के पश्चात तूने भी मुझे अपनी यादों से निर्वासित कर दिया.”
इतना कहते-कहते दीदी की आंखें भर आईं, गला भर्रा गया. मैंने उनका हाथ दबाया और बस इतना ही कह पाया,
“साॅरी दीदी, आपको यही लगता होगा मैं वक़्त के साथ बदल गया. मगर नहीं, विश्वास कीजिए मेरा, मैंने भी समय की बहुत मार झेली, लड़ते लड़ते थक गया था. अब जाकर थोड़ी-सी राहत मिली है मुझे और जैसे ही मौक़ा मिला मैं दौड़ा चला आया.”
“खैर छोड़ इन बातों को, तू सचमुच मुझसे मिलने आया है न, तो चल घर चलते हैं.”
फिर दीदी मेरा हाथ पकड़कर कार-पार्क की तरफ़ ले गईं और एक छोटी-सी मारुती कार का दरवाज़ा खोला. मैंने सोचा शायद जीजाजी या कोई चालक साथ होगा, पर नहीं दरवाज़े को खोल स्वयं चालक सीट पर बैठते हुए दीदी ने मुझे साथ की सीट पर बैठने का इशारा किया. फिर पूरे आत्मविश्वास के साथ कार चलाते हुए मैदान से बाहर मुख्य सड़क पर आईं और कुछ ही क्षणों बाद हम दीदी की गांव की ओर जा रहे थे; साथ हमारी बातचीत का सिलसिला भी चल पड़ा.
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“दीदी, तुम्हारे साथ जीजाजी नहीं आए और यह कैसी मीटिंग थी?”
“देख, उनकी दुनिया अलग है मेरी अलग, फिर यह मण्डल के ग्राम प्रधानों की बैठक थी, तो उसमें उनका क्या काम.”
प्रो. अनिल कुमार
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