कहानी- दीदी हमारी एमएलए नहीं है… 3 (Story Series- Didi Humari MLA Nahi Hai… 3)

“मुखिया पति, यह कौन सा पद हुआ?”
“अरे यार, निरा बुद्धू ही रह गया तू. यह हमारे समाज की तथाकथित महिला सशक्तिकरण जन्य एक नया ओहदा है, जिसे पुरुष प्रधान समाज ने अपने लिए गढ़ लिया है.”

 

 

 

 

… “तो ऐसी मीटिंग में क्या सूबे के सभी सांसद भी आमंत्रित थे, लगता है किसी महत्वपूर्ण नीति निर्धारण की बात हो रही थी?”
“नहीं तो.” दीदी थोड़ी देर रूकी और फिर हंसते हुए कहा, ”अच्छा समझी, वह एमपी की बोर्ड लगी गाड़ियों को देख शायद तुमने यह निष्कर्ष निकाला, है न? अरे ये बिन बुलाए वीआईपी थे, जो प्रशासन के साथ हमारी बैठक में घुसपैठिए बने साधिकार विराजमान थे. इस एमपी का अर्थ वह नहीं जो तू समझ रहा है, यह एक नया ओहदा है, जिसे मुखिया पति कहते हैं.”
“मुखिया पति, यह कौन सा पद हुआ?”
“अरे यार, निरा बुद्धू ही रह गया तू. यह हमारे समाज की तथाकथित महिला सशक्तिकरण जन्य एक नया ओहदा है, जिसे पुरुष प्रधान समाज ने अपने लिए गढ़ लिया है.”
“मैं कुछ समझा नहीं दीदी?”
“इतना तो पता होगा ही गुरुजी कि महिला सशक्तिकरण के नाम पर हमारी राज्य सरकारों ने ग्राम पंचायत चुनाव में 50% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी हैं. नियम तो बन गया, पर क्या हमारा समाज ऐसी चीज़ों को हृदय से स्वीकार करता है? पुरुष प्रधान समाज ने इस सशक्तिकरण को कुछ ऐसे कार्यान्वित किया.
दबंग और प्रभावशाली परिवार के पुरुषों ने अपने घर की भोली-भाली अनपढ़ या अल्प शिक्षित महिलाओं को उम्मीद्वार बनाया, चुनाव लड़वाया और बन बैठे मुखिया पति. करने लगे बैक सीट ड्राइविंग. और बेशर्मी की हद तो देख, जिन बैठकों में इन्हे प्रवेश की अनुमति नहीं वहां बड़े आराम से स्थान ग्रहण करते हैं और सारी कार्यवाही में दख़लअंदाज़ी भी करते हैं.”

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“जब ऐसी बात है, तो हमारे जीजू कहां रह गए, वे भी तो मुखिया पति हैं?”
फिर हम दोनों साथ-साथ हंस पड़े. मुझे पता था दीदी किसी को कभी बैक सीट ड्राइविंग की अनुमति दे ही नहीं सकती. दे भी क्यों भला उससे ज़्यादा क्षमता कितने लोगों में होगी. अब हम गांव में प्रवेश कर चूके थे. प्रवेश करते ही लगा जैसे हम किसी आदर्श गांव का मॉडेल देख रहे हों. नवनिर्मित मध्य विद्यालय, पक्की नालियां, चौड़ी पक्की गालियां, सब कुछ तो दिख रहा था. दीदी को ऐसे ही राष्ट्रपति पुरस्कार नहीं प्रदान किया गया था.
घर का प्रांगण भी उतना ही सजा-संवरा, भीतर और बाहर सारी चीज़ें करीने से व्यवस्थित. दीदी शुरू से ही ऐसी थीं. जो अपना घर नहीं संभाल सकता वह भला गांव या शहर क्या संभालेगा? मैंने मन ही मन दीदी के साथ गांववालों को भी धन्यवाद दिया, जिन्होंने जाति और धर्म से ऊपर उठकर अपने लिए एक सही मुखिया का चुनाव किया था. घर में प्रवेश किया नहीं कि पल में दीदी मुखिया से एक सामान्य गृहिणी बन गई. शायद उतनी ही सहजता से वह दूसरे रोल में भी अपने को आवश्यकतानुसार ढाल लेती होंगी.

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घर में आज केवल हम भाई-बहन ही रह गए थे. जीजू किसी रिश्तेदारी में गए थे और उनके आज रात लौटने की उम्मीद नहीं थी. उनकी अनुपस्थिति खली तो ज़रूर, पर एक संतोष था कि आज हम दोनों ढेर सारी बातें करेंगे. आख़िर वर्षों का बकाया जो था. गृह कार्य में सहयोग के लिए एक महिला बाई थी, जिसने हमारे पहुंचते मेरे रात्रि विश्राम के लिए एक कमरा ठीक कर दिया.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें


प्रो. अनिल कुमार

 

 

 

 

 

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