… “जब परिवार पटरी पर आ गया, तो मैंने सोचा इस समाज के लिए भी कुछ करना चाहिए, क्योंकि बच्चे भी हॉस्टल जा चुके थे और मैं थी पूरी तरह से ज़िम्मेदारी मुक्त. मेरी इस कमज़ोरी को तेरे चालाक जीजू ने ताड़ लिया, मेरे ससुरजी के जाने के बाद उन्होंने परिवार के गुडविल को भुनाने हेतु मुझे चुनावी दंगल में उतार दिया.”
“ठीक है, मगर एक बार चुन लिए जाने के बाद उन्होंने कोशिश तो अवश्य की होगी कि अब तुम उनके इशारे पर चलो, ताकि वे पावर और पैसा दोनों का आनंद ले सकें. काश! उन्होंने मेरी उस लता दीदी को देखा होता, जिससे हम स्कूल के दिनों से ही परिचित थे, तब वे मुखिया पति बनने की कल्पना से भी परहेज़ करते. अच्छा यह तो बताओ, कहीं तुम ने अति उत्साह में घर का आटा तो गीला नहीं किया न, क्योंकि घर पहुंचते हुए मैंने गांव की जो सूरत देखी उससे तो ऐसा लगना स्वाभाविक है.”
“नहीं रे, मैंने घर का कुछ नहीं लगाया, पर इतना अवश्य ख़्याल रखा कि पंचायत का एक भी पैसा व्यक्तिगत लाभ के लिए न हो. हां, इसके लिए तेरे जीजू को रिश्वत अवश्य देनी पड़ी.”
“अच्छा, वह कैसे?”
“देख, मैं जानती थी कि इस इंसान को अपने स्वर्गीय दादा से बेहद लगाव था और मैंने इसी कमज़ोरी का लाभ उठाया.”
“क्या मतलब है तुम्हारा?”
“मैंने तेरे जीजू से एक सौदा किया; मैंने कहा इस गांव में मैं एक विद्यालय दादाजी के नाम पर खुलवाऊंगी बगैर घर का एक पैसा लगाए. बस, तुम्हें यह मानना होगा कि पंचायत का पैसा केवल आम जनता की ज़िंदगी को बेहतर बनाने में ख़र्च करने की मुझे स्वतंत्रता हो.
तेरे जीजू के दादाजी एक बड़े सुलझे हुए व्यक्ति थे, साथ ही एक उदार समाजसेवी, जिन्होंने पूरे इलाके के ज़रूरतमंदों की सदैव सहायता की थी. इस कारण मुझे विश्वास था कि उनके नाम पर विद्यालय खोलने का कोई विरोध नहीं करेगा.”
“लेकिन दीदी, स्कूल बनाने के पैसे तो पंचायत को मिलते नहीं, फिर फंड का इंतज़ाम?”
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“कहते हैं न जहां चाह वहां राह, मैंने प्रारंभ में गलियों, नालियों, पेय जल की सुविधा, इंदिरा आवास योजना का सही कार्यान्वयन, शौचालय, इत्यादि पर ध्यान दिया. जल्द ही मेरा काम नज़र आने लगा और पंचायत की जनता के साथ मैं स्थानीय प्रशासन की नज़र में भी आ गई. फिर समय-समय पर होनेवाली बैठकों में जब भी मैं विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु अपने विचार रखती, तो प्रशासन के लोग उस पर ध्यान देते, दूसरे पंचायत में भी उन्हे लागू करने की हिदायत दी जाती.
इन बातों से जब मेरी ईमानदारी, लगन और कार्यकुशलता पर सबों को भरोसा हो गया, तब मैंने जिलाधीश महोदय के समक्ष मध्य विद्यालय की स्थापना की बात रखी. स्वाभाविक था, उन्हें उसके नामकरण पर आपत्ति थी, मगर मेरे पास उसका भी समाधान था. मैंने गांव के बाहर बेकार पड़ी अपनी ज़मीन के एक बड़े टुकड़े को सरकार को स्थानांतरित करने का प्रस्ताव रखा, जिसे प्रशासन ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, पंचायत के लोगों की सहमति तो मेरे पास थी ही. फिर क्या था, जिलाधीश महोदय से मुझे विद्यालय बनाने के लिए आवश्यक धनराशि उपलब्ध करा दी और इस तरह बन गया गांव का अपना विद्यालय; तो ऐसे दी मैंने तेरे जीजू को रिश्वत.”
प्रो. अनिल कुमार
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