कहानी- दीदी हमारी एमएलए नहीं है… 4 (Story Series- Didi Humari MLA Nahi Hai… 4)

“लेकिन दीदी इस घटना ने आपके दाम्पत्य जीवन को अवश्य प्रभावित किया होगा, क्या ऐसा करना आवश्यक था?”
“शत-प्रतिशत, मेरे व्यक्तित्व को यदि कोई 20 वर्षों में न पहचान सके, तो ग़लती उसी की है न. जब मैं इस घर में आई, तो यह घर नहीं एक सराय था. मेरा मायका तो समाप्त हो ही चुका था, शायद इस कारण भी मैं बेहद ईमानदारी के साथ इस स्थान को एक घर बनाने में जुट गई.”

 

 

… मैं फ्रेश होकर जब तक बाहर आया उसने बरामदे में दो कुर्सियां और एक छोटा टेबल लगा दिया था,श. हल्के नाश्ते के साथ चाय हमारा इन्तज़ार कर रहा था. कुर्सियों पर बैठते चाय की चुस्की के साथ मैंने ठिठोली की.
“तो दीदी, हमारे जीजू यानी तुम्हारे मुखिया पति ने बहुत बढ़िया काम किया है इस गांव के लिए, इसमें तो संदेह नहीं. पर तुम्हें उनके द्वारा किए गए कार्य के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार स्वीकार करने में संकोच नहीं हुआ, मेरी स्वाभिमानी दीदी ने ऐसा किया कैसे?”
“तूने स्वयं अपने प्रश्न का उत्तर दे दिया. क्या तू यह मान सकता है कि तेरी लता दीदी किसी और की उपलब्धि को अपना बनाकर गौरवान्वित होगी?”
“नहीं, मगर तुम्ही ने तो बतलाया कि प्रशासन की असली डोर मुखिया पति थामे रहते हैं.”
“सही है, लेकिन मेरे मामले में नहीं. तेरे जीजू ने भी मुझे प्रधान पद का चुनाव यही सोच कर लड़वाया था, पर मज़ा तो तब आया, जब उन्होंने प्रचार पर चलने के लिए अपनी गाड़ी निकाली. उसके पूर्व ही मैंने घर के एक कोने मे पड़े बहुत दिनों से उपेक्षित साइकिल को कृतार्थ करना बेहतर समझा. वे कुछ समझे तब तक तो मैं गांव की कच्ची सड़कों पर पैडल मारती निकल पड़ी.
मैंने ऐसा जान-बूझकर किया, क्योंकि मुखिया के लिए कार पर बैठ कर प्रचार करना मुझे मंज़ूर नहीं था. यदि कोई प्रत्याशी प्रचार में ही इतने पैसे ख़र्च कर दे, तो चुने जाने के बाद वह क्या करेगा. आख़िर अपने ख़र्चे सूद सहित वसूलेगा या नहीं? और तुझे बताऊं, मैं और मेरी साइकिल दो दिन में ही हिट. आशा के विपरीत लोगों ने मुझे बहुत बड़े वोटों के अंतर से अपना प्रधान चुना, शायद मेरी सरलता और सहजता ने उन्हें प्रभावित किया.

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हां, तेरे जीजू को उसी दिन यह बात समझ में आ गई कि चिड़िया तो फुर्र हो गई. ऐसा नहीं कि उन्होंने मुझे शीशे में उतारने की कोशिश नहीं की, पर मैंने स्पष्ट कर दिया मैं बैक सीट ड्राइविंग नहीं करने दूंगी चाहे मुझे मुखिया पद छोड़ना ही क्यों न पड़े.”
“बेचारे जीजू, क्या चाहते थे वे?”
“वही जो सारे राजनेता चाहते हैं, पावर और पैसा. और पैसा भी वह, जो सरकार गांव के उत्थान के लिए ग्राम पंचायत को देती है.”
“फिर तो बहुत तकलीफ़ हुई होगी उन्हे?”
“तकलीफ़ तो बड़ा ही कमज़ोर शब्द है मेरे भाई, वे क्रोध में जल रहे थे. उन्हें बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि उनकी पालतू मैना इतनी जल्दी पिंजड़े से बाहर आ जाएगी, बेचारे भावी मुखिया पति.”
“लेकिन दीदी इस घटना ने आपके दाम्पत्य जीवन को अवश्य प्रभावित किया होगा, क्या ऐसा करना आवश्यक था?”
“शत-प्रतिशत, मेरे व्यक्तित्व को यदि कोई 20 वर्षों में न पहचान सके, तो ग़लती उसी की है न. जब मैं इस घर में आई, तो यह घर नहीं एक सराय था. मेरा मायका तो समाप्त हो ही चुका था, शायद इस कारण भी मैं बेहद ईमानदारी के साथ इस स्थान को एक घर बनाने में जुट गई.
मेरी सास मेरे लिए दो नकचढ़ी और बिगड़ैल ननद और एक बिगड़ा शहजादा छोड़ गई थी. मैंने इसे एक घर में तब्दील किया. दोनों ननदों का ब्याह रचाया. खेती-बाड़ी और पारंपरिक पारिवारिक व्यापार को पुनर्जीवित किया. सब कुछ नष्ट होने के कगार पर था. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह हुई कि मैंने इस बिगड़े नवाबजादे पर नकेल कसी, जिससे इनकी ज़िंदगी सही रास्ते पर चल पड़ी. मेरे ससुरजी ने शुरू से ही मेरी प्रतिभा को पहचाना, मुझे आदर-सम्मान दिया और देखते-देखते हमारा परिवार इस इलाके का एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित परिवार के रूप में जाना जाने लगा.”
“मगर दीदी राजनीति में आने की कैसे सूझी तुम्हें, यह तो तुम्हारे स्वभाव से एकदम मेल नहीं खाता…”

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें

प्रो. अनिल कुमार

 

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Usha Gupta

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