कहानी- दिल ढूंढ़ता है 1 (Story Series- Dil Dhoondta Hai 1)

यह सच था कि कावेरी को कभी भौतिक सुख-सुविधा के साधन और अर्थ की ज़्यादा कमी नहीं हुई, पर प्यार और सुकून के दो पल भी कभी नसीब नहीं हुए. विवाह की पहली शर्त होती है कि पति अपनी पत्नी को सुखी रखेगा, लेकिन   योगेजी वही भूल गए. न ही मन के ज़ोर से और न ही रिश्तों की डोर से

योगेशजी उसके साथ पति की तरह बंध पाए. हमेशा उन दोनों के बीच एक परायापन कायम रहा, जो शायद संयुक्त परिवार के रस्मों-रिवाज़ों और मर्यादा की सीमा के साथ-साथ हर समय रिश्तेदारों की बनी भीड़ की देन थी. विरले ही कभी कुछ समय उन दोनों को साथ बिताने के लिए मिल पाता था.

कभी-कभी जीवन में ऐसे पल भी आते हैं, जब अपनी भावनाओं को प्रकट करने के लिए शब्द ही नहीं मिलते. पुरी के विशाल समुद्रतट पर खड़ी कावेरी को भी कुछ वैसा ही महसूस हो रहा था. पचास की उम्र को छूती कावेरी ख़ुशी से आह्लादित अपनी उम्र के आवरण से निकलकर आज फिर से एक बार मासूम षोडसी बनी आती-जाती लहरों के बीच बढ़ती ही जा रही थी. तभी पीछे से आकर योगेशजी ने उसकी बांह थाम ली थी.

“ये क्या बच्चों जैसी हरकतें कर रही हो? ज़रा उम्र का ख़्याल करो. इन लहरों की तेज़ गति कहीं तुम्हारे पांव न उखाड़ दे.” तभी एक ऊंची लहर उन दोनों को भिगोते हुए निकल गई. दोनों के क़दम वहीं ठिठककर रुक गए. फिर धीरे-धीरे चलते हुए बालू पर आ बैठे.

कावेरी की बरसों पुरानी अभिलाषा आज पूरी हुई थी. बचपन से लोगों से यहां के पौराणिक मंदिरों और समुद्रतट के विषय में इतना सुन चुकी थी कि उसे देखने की इच्छा दिनोंदिन और भी बढ़ती जा रही थी, जिसे अब जाकर पूरा करने का मौक़ा मिला था.

समुद्र में उठती-गिरती लहरों पर नज़र जमाए कावेरी के मन में विचारों की तरंग उठ रही थी, जिस पर उसका कोई बस नहीं था, वह उसे भीड़ भरे समुद्रतट पर भी अतीत से जोड़ती चली गई.

बीस वर्ष की उम्र में कावेरी संयुक्त परिवार में ब्याही गई थी, जिसमें योगेशजी के माता-पिता, भाई-बहन के अलावा उसके चाचा-चाची और दादा-दादी भी रहते थे. शादी के बाद उसने कितने जतन किए, पर संयुक्त परिवार की ज़िम्मेदारियों और बच्चों में  ऐसी उलझी कि कहीं भी अपनी मर्ज़ी से घूमने नहीं जा सकी. कभी-कभी किसी शादी-ब्याह जैसे मौक़ों पर ही वह पटना से बाहर निकल पाती थी. पटना में तो सब दिन एक समान थे. सुबह से शाम तक काम का सिलसिला-सा लगा रहता.

उसकी समझ में नहीं आता था, यह कैसी कर्तव्यनिष्ठा उस पर थोपी गई थी, जिसे पूरा करते-करते उसकी सारी इच्छाएं, सारे सपने होम हो रहे थे, फिर भी घर के किसी सदस्य को उसकी इच्छा-अनिच्छा, सुख-दुख की कोई चिंता नहीं थी. उसके ससुराल में स्त्री स्वतंत्रता और उसके अधिकारों की बातें ज़रूर होती थीं, पर वह सब उस घर की आत्मनिर्भर स्त्रियों पर ही लागू होती थीं. स्त्रियों की आत्मनिर्भरता और उनके हक़ की बातें करनेवाली व अपने जीवन में इसे चरितार्थ करनेवाली ये स्त्रियां ही घर-गृहस्थी के काम में व्यस्त औरतों के मानसिक और शारीरिक शोषण का कारण बनती थीं.

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घर की दूसरी स्त्रियों पर बरसों से चले आ रहे वही बने-बनाए क़ानून ही लागू होते थे, सभी की चाकरी करना और घर-गृहस्थी संभालना. योगेशजी की नज़रों में भी औरतों का प्रथम कर्तव्य घर की देखभाल और उसमें रहनेवाले व्यक्तियों की सुविधाओं का ख़्याल रखना होता था. घर के दूसरे लोग भी उससे बस काम की उम्मीद ही रखते थे, जिसे वह अपनी इच्छाओं का दमन कर पूरा करती थी.

शादी के बाद कुछ बरसों तक तो पति ने उसकी इच्छाओं और सुखों का ख़्याल रखा, पर धीरे-धीरे वह उसकी तरफ़ से पूरी तरह बेपरवाह हो गए थे. उसकी समस्याओं को सुनने का उनके पास समय ही नहीं होता. कभी सुनते भी तो कुछ न कर पाने की विवशता जताकर बात समाप्त कर देते. उसकी सारी योग्यता, सारी प्रतिभा उस विवशता के नीचे दबकर रह गई थी.

पति की अवहेलना ने उसे और भी तोड़ दिया था. उसे लगता, यहां कुछ भी अपना नहीं है. सब स्वार्थ के एक धागे मात्र से बंधे हैं. भले ही उसे पत्नी, बहू, मां जैसे कई रिश्तों से बांध दिया गया था, लेकिन वह अच्छी तरह समझती थी कि उसके पैरों के नीचे उसकी अपनी कोई धरती नहीं थी.

यह सच था कि कावेरी को कभी भौतिक सुख-सुविधा के साधन और अर्थ की ज़्यादा कमी नहीं हुई, पर प्यार और सुकून के दो पल भी कभी नसीब नहीं हुए. विवाह की पहली शर्त होती है कि पति अपनी पत्नी को सुखी रखेगा, लेकिन   योगेजी वही भूल गए. न ही मन के ज़ोर से और न ही रिश्तों की डोर से

योगेशजी उसके साथ पति की तरह बंध पाए. हमेशा उन दोनों के बीच एक परायापन कायम रहा, जो शायद संयुक्त परिवार के रस्मों-रिवाज़ों और मर्यादा की सीमा के साथ-साथ हर समय रिश्तेदारों की बनी भीड़ की देन थी. विरले ही कभी कुछ समय उन दोनों को साथ बिताने के लिए मिल पाता था. कहीं भी जाओ, पति के अलावा घर के दो-तीन सदस्य साथ होते ही थे. हर समय की इस भीड़-भाड़ से उसका दम घुटने लगा था. आज जब छोटे-छोटे बच्चे भी पर्सनल स्पेस की बातें करते हैं, तब उसके जैसी प्रबुद्ध महिला अपनी उसी इच्छा का हर रोज़ गला घोंटती थी.

       रीता कुमारी

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