कहानी- दो मोर्चों पर 3 (Story Series- Do Morchon Par 3)

“तुम कहती थी मां कि बेटियां आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाएंगी, तो उन्हें पराश्रित का जीवन नहीं जीना पड़ेगा. अपनी हर छोटी-बड़ी ज़रूरत के लिए पति के आगे हाथ नहीं पसारने होंगे. आत्मनिर्भर तो हो गईं वे, पर अब तो उन्हें दो मोर्चों पर एक संग जूझना पड़ रहा है मां. पहले जब वह स़िर्फ घर और बच्चे संभालती थी, तब की बात और थी, परंतु अब भी भले ही वह पति की तरह पूरा दिन नौकरी करके, थककर घर लौटे, घर और बच्चे संभालना आज भी पत्नी का ही दायित्व है. मुश्किल यह है कि हमने अपनी बेटियों को तो मज़बूत बना दिया, पर अपने बेटों की सोच नहीं बदली.

पिछले चार वर्षों से मन में दबी सब बातें. जो पहले चाहकर भी नहीं कह पाई. बहुत से प्रश्‍न हैं मन में. अपना हर दर्द बांटना है मां के साथ, आज ही. फिर कभी नहीं आएगा यह अवसर. यूं तो मां बिन कहे ही हमारा दर्द समझ लिया करती थीं, परंतु मेरा मन तो तब तक हल्का नहीं होगा न, जब तक मैं सब कुछ मां से कह न दूंगी. सो मैंने बेटे को दीदी के पास लिटा उनसे कहा कि अभी वे सो लें. मुझे जब नींद आएगी उन्हें जगा दूंगी.

पंडितजी कह रहे थे कि गरुड़ पुराण के अनुसार, जब तक दाह संस्कार नहीं हो जाता, आत्मा मृत देह के ऊपर मंडराती रहती है. उपस्थित जन के मन की बात भी सुन-समझ सकती है, तो मेरे मन की बातें मां तक क्यों नहीं पहुंचेंगी?

याद नहीं पिछली बार मां के पास इत्मिनान से कुछ देर कब बैठी थी?

भागती-दौड़ती आती रविवार को, वह भी कुछ ही समय के लिए. महीने में एक रविवार अस्पताल में इमर्जेंसी ड्यूटी लगती, सो उस बार आना न हो पाता. और कभी घर में ही काम का ढेर इकट्ठा हो जाता, तब भी न आ पाती.

अरसा हो गया मां के पास बैठ, उनसे बातें किए हुए.

“तुम कहती थी मां कि बेटियां आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाएंगी, तो उन्हें पराश्रित का जीवन नहीं जीना पड़ेगा. अपनी हर छोटी-बड़ी ज़रूरत के लिए पति के आगे हाथ नहीं पसारने होंगे. आत्मनिर्भर तो हो गईं वे, पर अब तो उन्हें दो मोर्चों पर एक संग जूझना पड़ रहा है मां. पहले जब वह स़िर्फ घर और बच्चे संभालती थी, तब की बात और थी, परंतु अब भी भले ही वह पति की तरह पूरा दिन नौकरी करके, थककर घर लौटे, घर और बच्चे संभालना आज भी पत्नी का ही दायित्व है.

मुश्किल यह है कि हमने अपनी बेटियों को तो मज़बूत बना दिया, पर अपने बेटों की सोच नहीं बदली. बेटियों को बेटों के बराबर पढ़ा रहे हैं, उनके मन में सपनों के बीज बो रहे हैं, उन्हें पूरा करने के अवसर दे रहे हैं, किन्तु बेटे आज भी घर के राजकुमार हैं, जिनकी ज़रूरत का ख़्याल रखना घर की स्त्रियों का कर्त्तव्य है. आज भी उन्हें परोसी थाली चाहिए सामने. बच्चे की चिंता से मुक्त जीवन चाहिए उन्हें. लेकिन पत्नी जब दिनभर की थकी घर आती है, तो उसकी देखभाल करने के लिए कौन बैठा होता है उसके इंतज़ार में? दोनो मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है उसे. आर्थिक स्वतंत्रता तो पा ली, परंतु न ही दिन के घंटों में बढ़ोतरी हुई, न ही विधाता ने उसके चार हाथ कर दिए.

देखा जाए, तो पुरुष भी उसी घर का हिस्सा है, उसी घर में रहता है. खाता-पीता है, तो उस घर के कामों में पत्नी का साथ देना उसका काम क्यों नहीं? यह पत्नी पर एहसान क्यों? जब धन अर्जन में पत्नी बराबर का सहयोग दे रही है, तो घर संभालने में वह क्यों साथ नहीं दे सकता?

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दरअसल हमारे पुरुषप्रधान समाज ने घर के काम को कमतर दर्जा दिया, क्योंकि वह सीधे आय से नहीं जुड़ता था और इसलिए उसे करना वह अपनी हेठी समझने लगा. काम की अधिकता, नौकरी का तनाव, यह कैसा जीवन हो गया है मां जहां अपनी ही सुध लेने की फुर्सत नहीं…

मां से बात करते हुए मुझे अनेक बार बीच में झपकी आई. दिनभर के काम की थकावट थी, पर मैं अर्द्ध निद्रा में भी मां से

सवाल-जवाब करती रही. सुबह चार बजे जब दीदी की नींद खुली और वह उठकर आईं, तो मैं वहीं ज़मीन पर ही लेटी थी मां की तरफ़ मुंह किए. दीये की लौ मद्धिम पड़ चुकी थी, सो पहले तो दीदी ने उसमें घी डाला. तब तक मैं भी अच्छे से जाग गई. अब मेरा चित्त पूरी तरह शांत था. मां से अपनी बात कह मन हल्का हो चुका था. मां ने जाने कैसे, शायद स्वप्नावस्था में ही मुझे बहुत कुछ समझा दिया था.

‘हम सबसे मिलकर ही तो बना है यह समाज, तो इसमें सुधार लाना भी हमारा ही कर्त्तव्य है, हम सब का. विशेषकर हम मांओं के हाथ में है इसे बदलना, हमारे-तुम्हारे हाथ में. अपने बेटे को तुम्हीं समझाओगी यह नई सामाजिक व्यवस्था, घर के कामों का महत्व, पुरुषों के योगदान की ज़रूरत… सब कुछ. समाज को बदलने में समय लगता है मेरी बिटिया, पर वह बदलता ज़रूर है विश्‍वास रखो.’

       उषा वधवा

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Usha Gupta

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