कहानी- दो प्याला ज़िंदगी 6 (Story Series- Do Pyala Zindagi 6)

 

“क्या कहा तुमने? तुम्हारे हाथ से सब कुछ छूटता जा रहा है… हा..हा.. हा.. अरे भाई हम सब के हाथों से सब कुछ छूटता जा रहा है. क्या रोक सकती हो बताओ… समय को..? बहते पानी को..? दिन को..? रात को…? जीवन को..? या फिर मृत्यु को…? तुम्हें तकलीफ़ ही इसलिए हो रही है, क्योंकि तुम सब कुछ रोकना चाहती हो. एक ऐसा असंभव बांध बनाना चाहती हो, जो सुनामी को रोके. क्यों चाहती हो कि सब कुछ तुम्हारे नियंत्रण में रहे. यह नहीं हो सकता. तुम्हें इस बहाव में बहना पड़ेगा… डूबना पड़ेगा, तब जीवन का मज़ा ले पाओगी…”

 

 

 

… सूरज ने परिस्थिति को देखते हुए अपना चाय का प्याला नीचे रखा और सीमा से मुखातिब हुआ. आज उसके स्वर में अनोखी स्थिरता और शांति थी. सीमा के हाथ पर अपना हाथ रखकर वह बोला, “सीमा, मैं तुम्हें एक लंबे समय से जानता हूं. मैं बहुत पहले ही समझ गया था कि तुम बहुत परेशान हो… पर मुझे लगा कि तुम एक समझदार और सबल स्त्री हो देर-सवेर सब ठीक कर लोगी. मैं नहीं पूछूंगा कि क्या हुआ, क्योंकि मैं जानता हूं कि समस्या क्या है? सीमा मैं कोई मनोवैज्ञानिक तो नहीं हूं, पर ज़िंदगी को पढ़ ज़रूर लेता हूं. यह जीवन कई सारे पड़ावों में बटां हुआ है. हर पड़ाव में नई-नई चुनौतियां हैं और हर पड़ाव… हर चुनौती आपका एक नया रूप मांगती है. हर चुनौती के अपने नए और अलग नियम कायदे होते हैं. अगर आज की चुनौती को बीते कल की चुनौती के नियम कायदों से तौलोगी, तो सारे गणित और आकलन ग़लत हो जाएंगे. ख़ुद को किसी दर्पण में कैद करके रखोगी, तो कहीं और ख़ुद को कैसे पाओगी.”

 

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सूरज ने जब अपने शब्दों को थोड़ा विराम दिया, तब सीमा ने वार्तालाप की कड़ी को आगे बढ़ाया, “चलो तुम्हारी मान कर ख़ुद को बदल भी लूं, पर तुम नहीं जानते सूरज घर में सब मेरे हाथों से छूटता जा रहा है. ना पति के पास समय है और ना ही बेटी के पास. उसने तो जैसे मेरा तिरस्कार करने की क़सम ही उठा रखी है. मेरी कोई बात नहीं सुनती. मेरी बात की कोई क़ीमत नहीं रह गई है.”
सूरज मुस्कुराया और बोला, “क्या कहा तुमने? तुम्हारे हाथ से सब कुछ छूटता जा रहा है… हा..हा.. हा.. अरे भाई हम सब के हाथों से सब कुछ छूटता जा रहा है. क्या रोक सकती हो बताओ… समय को..? बहते पानी को..? दिन को..? रात को…? जीवन को..? या फिर मृत्यु को…? तुम्हें तकलीफ़ ही इसलिए हो रही है, क्योंकि तुम सब कुछ रोकना चाहती हो. एक ऐसा असंभव बांध बनाना चाहती हो, जो सुनामी को रोके. क्यों चाहती हो कि सब कुछ तुम्हारे नियंत्रण में रहे. यह नहीं हो सकता. तुम्हें इस बहाव में बहना पड़ेगा… डूबना पड़ेगा, तब जीवन का मज़ा ले पाओगी.
45 की उम्र में 20 की लगने की चाह ही हास्यास्पद है. यह तो वैसे ही हुआ कि किसी भरेपूरे बरगद का कहना कि उसे पौधा बनना है और अगर 45 में 20 की जद्दोज़ेहद करोगी, तो 45 का जीवन कब जिओगी? अपनी बेटी और पति के साथ बहने की कोशिश करो. ख़ुद को किसी खूंटे से मत बांधो. देखना यह बहाव तुम्हें तुम्हारे ही कितने रूपों से मिलाता है.” सीमा नीचे ज़मीन की ओर एकटक देख रही थी उसने एक बार भी सूरज की और नहीं देखा, पर सुन वहां सब कुछ रही थी.
कुछ शांत-सा सूरज फिर बोला, “तुम्हें पता है सीमा, मेरी पत्नी रत्ना की मृत्यु के समय मेरी बेटी 14 साल की थी. मुझे लगा रत्ना की मृत्यु के बाद मेरा जीवन समाप्त हो गया… पर मैं जल्द ही समझ गया कि यह मेरे जीवन का सिर्फ़ एक पड़ाव है. ना तो जानेवाले को मैं रोक सकता हूं और ना ही उसके साथ जा ही सकता हूं. फिर मैंने अपने ही नए रूप को देखा, बेटी के लिए मां.. घर के लिए गृहिणी.. और अब यह जीवन मुझे मज़े दे रहा है. ख़ुद को किसी का बॉस मत बनाना बल्कि पार्टनर बनने की कोशिश करो. और अगर ज़रूरत पड़े, तो गाइड भी.”
आज जब सूरज वहां उस बैंच से उठकर गया तो, सीमा के चेहरे पर अपनी मुस्कुराहट छोड़ गया. सीमा शांत थी. शायद सूरज वह दर्पण तोड़ गया था, जिसमें सीमा क़ैद थी. सूरज के ओझल होने तक सीमा उसे निहार रही थी. उसने चायवाले को अपना खाली प्याला दिया और चाय की तारीफ़ भी की.
वह घर आई और सीधा आभा के कमरे में गई. अब शायद वह जानती थी कि उसे क्या करना है. आभा फोन पर किसी से बात कर रही थी मां को देखते ही उसने फोन रखा और कुछ नाराज़ स्वर में बोली, “मां, अगर तुम मुझे फिर से मुंबई जाने से रोकने आई हो, तो मैं माननेवालों में से नहीं हूं.” सीमा ने कुछ सूरज के अंदाज़ में कहा, “अरे भाई… मत रुको.. जाओ जहां जाना चाहती हो, पर एक शर्त नहीं दो शर्तों पर… मैं तुम्हें जाने दूंगी.. पहली मैं मुंबई तुम्हें छोड़ने आऊंगी. तुम्हारे रहने-खाने की व्यवस्था करूंगी और दूसरी जब तक तुम मुंबई नहीं जाती, तब तक हम दोनों किसी अच्छे से डांस क्लास में डांस सीखने जाएंगे, बोलो मंज़ूर है.” अपनी मां के इस नए अवतार को देखकर आभा का मुंह खुला का खुला रह गया.
उसने कसकर अपनी मां को गले से लगाया और सुबह के अपने व्यवहार के लिए माफ़ी भी मांगी. सूरज के पकड़ाए एक सिरे से अब सीमा की सारी कड़ियां जुड़ने लगी थी. वह आज पूरे दिल से ख़ुश थी. उसने पूरी रात सुबह के इंतज़ार में काटी. वह सूरज को देखना चाहती थी. उसे अपने नए अवतार से मिलाना चाहती थी. उसे धन्यवाद देना चाहती थी. उसके साथ बेंच पर उसी के अंदाज़ में ठहाके लगाना चाहती थी. उसके साथ फिर से वही दो प्याला चाय पीना चाहती थी.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…


माधवी निबंधे

 

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Usha Gupta

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