कहानी- दो प्याला ज़िंदगी 7 (Story Series- Do Pyala Zindagi 7)

सीमा मैं हवा की तरह जीना चाहता हूं. जिसका ना कोई आकार है और ना ही कोई ठिकाना. मैंने जीवन को इसी रूप में पाया है. मैं बख़ूबी समझ गया था कि तुमने अपने जीवन का रुख मेरी बहती हवाओं की ओर मोड़ दिया है. तुम जाने-अनजाने मुझमें अटकती जा रही हो. सीमा अपनी परतों को खोलो. अंदर एक नई सीमा बाहर निकलने को आतुर है और इस नई सीमा को ख़ुश रहने के लिए किसी सूरज की आवश्यकता नहीं है.

 

 

 

… तड़के ही उठकर वह बगीचे की ओर निकली. और मन ही मन कह रही थी कि आज सूरज का पता और फोन नंबर भी ले लूंगी, ताकि उससे जब चाहो बात कर सकूं. सीमा ने बगीचे के तय चक्कर काटे और बेंच पर जाकर बैठ गई. बेसब्री से सूरज की राह देखने लगी. सूरज तो नहीं आया, पर चायवाला आया. उसने सीमा से पूछा, “मैडमजी, चाय ले आऊं?” सीमा का मन आज सूरज में अटका हुआ था. उसने बड़े ही अनमने ढंग से कहा, “नहीं.. नहीं.. भैया तुम जाओ चाय-वाय नहीं चाहिए. मैं सूरज का इंतज़ार कर रही हूं.” चायवाला अपनी दुकान पर गया और फिर वापस आया. अब सीमा ने झुंझलाहट के साथ कहा, “भैया एक बार कहा ना मुझे चाय नहीं चाहिए. मैं सूरज का इंतज़ार कर रही हूं.”
इस बार चायवाला भी कुछ ऊंचे स्वर में ही कहा, ” मैडम, चाय नहीं पूछ रहे हैं… हम आपको यह बताने आए हैं कि सूरज भैया कल शाम को आए थे और आपके लिए लिफ़ाफ़ा दे गए हैं.” इतना कहकर उसने एक लिफ़ाफ़ा सीमा की ओर बढ़ाया. सीमा ने संदिग्ध नज़रों से एक बार चायवाले को देखा और फिर लिफ़ाफ़े को. उसे लिफ़ाफ़ा पकड़ाकर चायवाला चला गया.
सीमा के दिमाग़ में विचारों की रेल-पेल चल रही थी. पता नहीं लिफ़ाफ़े में क्या होगा? आख़िर सूरज लिफ़ाफ़ा क्यों दे गया? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है? ऐसे ही न जाने कितने सवाल सीमा के दिमाग़ में दौड़ रहे थे.
सारी शंकाओं-कुशंकाओं के साथ आख़िरकार सीमा ने लिफ़ाफ़ा खोला. लिफ़ाफ़े के अंदर चिठ्ठी थी. सीमा ने आसपास नज़र घुमाई, उसे लगा शायद सूरज उसके साथ कोई मज़ाक कर रहा है. वह आश्वस्त हुई कि कोई नहीं है और उसने चिट्ठी खोली. उसमें लिखा था-
प्रिय सीमा,
मेरा पत्र देखकर तुम्हें बहुत हैरानी हो रही होगी. मैं सोच सकता हूं कि अभी तुम्हारा चेहरा कैसा लग रहा होगा. मैं जानता हूं कि कल मेरी कहीं बातें तुम्हें अच्छे से समझ में आई होंगी. तुम्हें चिट्ठी इसलिए लिख रहा हूं, क्योंकि जो बात मैं कहना चाहता हूं उसके लिए बड़ी संजीदगी की ज़रूरत है और तुम तो जानती हो मैं कितना संजीदा हूं. शायद आमने-सामने तुमसे यह बात इतने आराम से ना कह पाता. सीमा मैं हवा की तरह जीना चाहता हूं. जिसका ना कोई आकार है और ना ही कोई ठिकाना. मैंने जीवन को इसी रूप में पाया है. मैं बख़ूबी समझ गया था कि तुमने अपने जीवन का रुख मेरी बहती हवाओं की ओर मोड़ दिया है. तुम जाने-अनजाने मुझमें अटकती जा रही हो. सीमा अपनी परतों को खोलो. अंदर एक नई सीमा बाहर निकलने को आतुर है और इस नई सीमा को ख़ुश रहने के लिए किसी सूरज की आवश्यकता नहीं है.

 

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देखो सीमा, बड़ी मुश्किल से इस दर्पण को तोड़कर तुम बाहर आई हो और फिर किसी नए दर्पण में क़ैद मत हो जाना. मैं कल ही तुम्हें एक बात बताना चाहता था, पर कल परिस्थितियां वैसी नही बन पाई. मेरा तबादला हो गया है. मैं आज ही शहर छोड़कर जा रहा हूं. कहां जा रहा हूं यह नहीं बताऊंगा. मैं अपने साथ हमेशा लोगों की यादें और मुस्कुराहटे लेकर चलता हूं, उनके पते और फोन नंबर नहीं. मैं किसी से बंधना नहीं चाहता और मैं चाहता हूं कि जब भी मेरा नाम तुम्हें याद आए, तो आंखों में उदासी नहीं, बल्कि होंठों पर मुस्कान हो. चायवाले भैया और अपनी जंगली मंडली को तुम्हारे भरोसे छोड़कर जा रहा हूं. मुश्किल तो है, पर संभाल लोगी… और हां एक बात और चाय पीना कभी मत छोड़ना.
जंगली मंडली का कप्तान
सूरज

सीमा ने एक लंबी सांस ली. उसके चेहरे पर कभी ना मिटनेवाली मुस्कान थी. चिट्ठी को वही बेंच के पास बरगद के पेड़ की गीली मिट्टी में दबा दिया उसने. अपना बैग उठाया और चल दी. सीमा की कैप और रुमाल वही बेंच पर रह गए, जिसे देखकर चायवाले भैया ने आवाज़ लगाई, “अरी ओ मैडम, रुमाल और टोपी तो लई जाओ…” सीमा ने दूर से ही मुस्कुराते हुए बड़े ही बेफ़िक्रे और लापरवाह अंदाज़ में चिल्लाकर कहा, “अब इनकी ज़रूरत नहीं है भैया…”

माधवी निबंधे

 

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Usha Gupta

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