… उसकी मम्मी ने प्यार से उसको देखते हुए कहा,
“हमने तो गिफ्ट ले लिया था अमन के लिए, पर अनन्या बोली, ‘नहीं, मैं अलग से दूंगी कुछ बनाकर… देर रात जागकर कार्ड बनाती रही.”
पार्टी में मेहमानों के जाने के बाद, ये रात कुछ ख़ास थी. सारे गिफ्ट्स एक तरफ़ रखकर मैं हाथ में वो कार्ड लिए बैठा था. इससे ज़्यादा हैरत मुझे किसी बात से नहीं हुई थी, जितनी उस कार्ड को देखकर हो रही थी. मेरे लिए कोई इतनी मेहनत कर सकता है? पीले चार्ट पेपर से बना ऊपर का कवर, उसके अंदर बनी हुई एक पेंटिंग, जिसमें एक लड़का फूलों के बाग में पतंग उड़ा रहा था… आस-पास रंग-बिरंगे फूल और आसमान छूती उस लड़के की पतंग… उन फूलों की महक ने हमारे बीच भी एक ख़ुशबू घोल दी थी. अब मुझे वो लड़की लड़ाका और अक्खड़ नहीं लगती थी, बल्कि मेरे फ्रेंड्स की गिनती में आने लगी थी और धीरे धीरे ‘बेस्ट फ्रेंड’…
“तुम उन लड़कों से क्यों लड़े कल? मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था.” अनन्या मुझसे नाराज़ थी शायद.
मैंंने तपाक से कहा, “उन लड़कों ने तुम्हारी साइकिल का सीट कवर फाड़ दिया था. कोई मेरे बेस्ट फ्रेंड की साइकिल के साथ ऐसा करेगा तो मैं लडूंगा नहीं?”
अनन्या ने अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को झपकाते हुए हैरानी से पूछा, “सच्ची? मैं तुम्हारी बेस्ट फ्रेंड हूं?”
पता नहीं क्यों मैं उस दिन हां कहते हुए शरमा गया था. लेकिन आनेवाले कुछ सालों में मुझे अपने इस ‘क्यों’ का जवाब मिलने लगा था. अनन्या और मैं उम्र की उस सीढ़ी पर एक साथ कदम रख चुके थे, जहां किसी का साथ आपको समय बिताने के लिए नहीं चाहिए होता है. आप किसी और वजह से जुड़ रहे होते हैं. कोई आपको पसंद आने लगता है. मैं उसकी ओर बहुत तेजी से खिंचता चला जा रहा था! कितनी ही बार मैं किताबों पर बेख्याली में ही सही, डबल ए लिख देता था- अनन्या-अमन.. अमन-अनन्या…
उसकी गैरमौजूदगी में भी उसकी आवाज़ सुनाई देती, तो लगता मेरे साथ ही है… जब वो मम्मी से कुछ लेने घर आती, तो पहले की तरह जाकर सीधे बात नहीं करने लगता, छुपकर उसको देखता, देखता ही रहता. वो मेरे कमरे में आकर पहले की तरह बचकाने क़िस्से सुनाती, तो मैं झिड़क देता, “देख नहीं रही हो, पढ़ रहा हूं.”
जब वो रूठकर जाने लगती और कहती, “बैठे रहो… मुंह बनाए, कोई इनके घर आया है, साहब कमरे से नहीं निकलेंगे.”
मैं चाहकर भी ये नहीं कह पाता कि “रुक जाओ न अनन्या, इसी घर में.. हमेशा के लिए…”
कौन कहता है समय पंख लगाकर उड़ता है, मेरे लिए तो अलसाया हुआ धीमे-धीमे ही बढ़ रहा था. लगता था जैसे सब रुक गया हो, रुका भी रहता अगर उस शाम अनन्या हमारी छतों के बीच बनी छोटी-सी दीवार लांघकर मेरी छत पर न आ जाती.
“ये देखो, यहां बैठे हो तुम! कितनी बार फोन किया तुमको.”
उस समय हमारे आसपास और कोई नहीं था. मैंने ध्यान से उसको देखा. गुलाबी रंग का सूट पहने, बालों को घुमाकर जूड़ा बनाते हुए वो मेरे सामने आ खड़ी हुई थी, पता नहीं उस शाम में ऐसा क्या नशा घुला हुआ था, जो मुझे उकसा रहा था सब कुछ कह देने के लिए…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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