कहानी- एक महानगर की होली 3 (Story Series- Ek Mahanagar Ki Holi 3)

उम्रदराज़ महिलाओं ने जब “सासू पनिया कैसे जाऊं रसीले दोऊ नैना…” उठाया, तो अपने ज़माने में ‘कत्थक क्वीन’ कहलाई जानेवाली मालती आंटी के बुढ़ाते घुटनों में भी जैसे नई जान आ गई और उन्होंने पूरे जोश में ठुमकना आरंभ कर दिया. 50 साल पहले अपनी शादी के लेडीज़ संगीत में वे इसी लोकगीत पर नाची थीं, यह उनकी रग-रग में बसा था. जवान लोग, जो लोकगीतों से अनजान थे, वे जब फिल्मी गानों पर उतरे तो ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली..’ और ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है…’, चल पड़े. इन सुने सुनाए गानों में ज़्यादा लोग सम्मलित हुए और गाते हुए उठकर नाचने-ठुमकने लगे…

 

 

… “क्या बात करते हैं साहब, डीजे का इंतज़ाम किया है हमने…” सोसायटी मैनेजर आवेश में बोले, आख़िर उंगली उनके इंतज़ाम पर जो उठी थी.
“अरे मैनेजर साहब, डीजे पर भी कोई फगुआ जमता है भला… उसका रंग तो तभी चढ़ता है, जब ढोलक पर थाप पड़े, झांझ-मंजीरों की झंकार गूंजे, हारमोनियम से सुर लहरियां बहे, लोकगीतों की तानें चढें…” वह बोला.
“हां-हां भई, बिल्कुल सही कह रहे हो… मैनेजर साहब ज़रा अपना कानफोड़ू संगीत बंद करवाइए, आज फगुआ गान होगा…” उस अपरिचित की बात सुन इलाहाबाद से संबंध रखनेवाले रिटायर्ड कर्नल मिश्रा के भीतर जैसे बचपन से रचा-बसा पूरबिया फगुआ जाग उठा. वो जोश में भरकर चौकड़ी मार ज़मीन पर बैठ गए और तुरंत ढोलक थाम ली.
“चलिए, सब मेरा साथ दीजिए… अह… हूं… ” सबका प्रतिसाद देख वह सज्जन गला खंगारते हुए गाने की तैयारी करने लगा.
“हां हां.. भई चलो, मज़ा आएगा…” बूढ़ों के खून में रवानगी आ गई और जवान भी सबके साथ शामिल होकर ज़मीन पर बैठ गए. झांझ-मजीरे संभाल लिए गए. गुप्ताजी को कुछ नहीं मिला, तो गुझिया का खाली कनस्तर ही लपक लिया. पाटिल अंकल ने समय की नजाकत भांप तुरंत घर पर फोन घुमाया, “वॉचमैन को भेज रहा हूं, ज़रा हारमोनियम भिजवा देना…” और फिर शुरु हुई फाग की महफ़िल, “जोगीरा सररर… काहे ख़ातिर राजा रूसे, काहे खातिर रानी. काहे खातिर बकुला रूसे कइलें ढबरी पानी… जोगीरा सररर…” रंग जमा तो नई तान छिड़ी,” अवध मा होली खेलैं रघुवीरा… केकरे हाथे ढोलक सोहै, केकरे हाथ मंजीरा, केकरे हाथ कनक पिचकारी, केकरे हाथ अबीरा…”
उम्रदराज़ महिलाओं ने जब “सासू पनिया कैसे जाऊं रसीले दोऊ नैना…” उठाया, तो अपने ज़माने में ‘कत्थक क्वीन’ कहलाई जानेवाली मालती आंटी के बुढ़ाते घुटनों में भी जैसे नई जान आ गई और उन्होंने पूरे जोश में ठुमकना आरंभ कर दिया. 50 साल पहले अपनी शादी के लेडीज़ संगीत में वे इसी लोकगीत पर नाची थीं, यह उनकी रग-रग में बसा था. जवान लोग, जो लोकगीतों से अनजान थे, वे जब फिल्मी गानों पर उतरे तो ‘रंग बरसे भीगे चुनरवाली..’ और ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है…’, चल पड़े. इन सुने सुनाए गानों में ज़्यादा लोग सम्मलित हुए और गाते हुए उठकर नाचने-ठुमकने लगे… सोसायटी में जो होली समारोह 12 बजे के अंदर-अंदर समाप्त हो जाता था आज 2 के पार हो गया था, मगर जोश था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था…
“भई वाह, बड़े सालों बाद आज लगा कि वाक़ई होली खेली है… मज़ा आ गया.” महफ़िल की समाप्ती पर कर्नल मिश्रा ने उस अपरिचित की पीठ थपथपाई, “और ये सब तुम्हारे कारण ही संभव हुआ नौजवान.”

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“सही बात है… विशेषकर अपनी पत्नी को हम सभी का धन्यवाद कहना… ऐसी गुझिया सालों बाद खाई है… कभी मां बनाया करती थी…” माथुर साहब ने अपनी मां को याद करते हुए उसका शुक्रिया अदा किया, तो सभी के सहमति के स्वर उभरे.

“वैसे भई, आपको पहचान नहीं पा रहे हैं, सोसायटी के किस विंग में रहते हो या किसी के यहां आए हुए हो?”…

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

 


दीप्ति मित्तल

 

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