वह तूफ़ान की तरह आया और पूरे जोश और तेजी के साथ सबको होली की मुबारकबाद देता हुआ गुलाल लगाने लगा. इसके बाद सबके बीच कनस्तर खोल बैठ गया. आह, पूरा वातावरण मावा गुझियों की सुगंध से भर उठा. उसकी महक से ही सबके मुंह में पानी आ गया. वरिष्ठों का सारा फोकस गुझियों पर चला गया और उनके दिमाग़ से उस अपरिचित को पहचानने का विचार ही उड़ गया.
… यूं ही देखते-देखते 11 बज गए. सूरज सिर पर चढ़ने की तैयारी करने लगा. डीजे के शोर-शराबे से जब सब के कान पक गए, तो उसे वरिष्ठों द्वारा धीमा करा दिया गया. उनके बीच अब होली छोड़, देश-दुनिया और राजनीति की बड़ी-बड़ी चर्चाएं चल पडी थी.
इसी बीच इस मालगाड़ी से खिसकते होली समारोह में एक लंबे-चौड़े डीलडौल वाले इंसान का आगमन हुआ. वह सिर से पांव तक हरे, बैंगनी, काले, नीले जैसे गहरे रंगों में बुरी तरह रंगा-पुता था. बालों पर सिल्वर पेंट का बेस था, जिसके ऊपर अलग-अलग रंगों के गुलाल चिपके थे. हरे, बैंगनी चेहरे पर बड़ी-बडी आंखों के भीतर श्वेत डोले ऐसे चमक रहे थे जैसे घनी काली अमावस्या में एक साथ दो चांद चमक उठे हों. मुंह खुलता तो लगता जैसे सफ़ेद दांतों की कतारें जामुनी किनारीवाली बनारसी पहने खडी हों. गले में ढोलक लटक रही थी, कंधे पर झांझ-मंजीरे झूल रहे थे, दोनों हाथों में टीन का कनस्तर संभाले वह सीनियर सिटीजन के ग्रुप की ओर बढ़ता चला जा रहा था.
सबकी सवालिया नज़रें उन पर ऐसे ठहर गई जैसे कह रही हों, उनकी सभ्य महानगरीय होली के बीच यह 19वीं सदी के मध्यार्ध से होली खेलकर इतने साजो-सामान के साथ कौन नौजवान चला आ रहा है, सोसायटी से है या बाहर से..? सभी उसे पहचानने की कोशिश में आंखें मिचमिचाने लगे. वह तूफ़ान की तरह आया और पूरे जोश और तेजी के साथ सबको होली की मुबारकबाद देता हुआ गुलाल लगाने लगा. इसके बाद सबके बीच कनस्तर खोल बैठ गया. आह, पूरा वातावरण मावा गुझियों की सुगंध से भर उठा. उसकी महक से ही सबके मुंह में पानी आ गया. वरिष्ठों का सारा फोकस गुझियों पर चला गया और उनके दिमाग़ से उस अपरिचित को पहचानने का विचार ही उड़ गया.
“लीजिए, सबके लिए होली का विशेष व्यंजन, गुझिया… वो भी होममेड… मेरी पत्नी ने बनाई है आप सबके लिए.” उसने जैसे पूरा कनस्तर ही उनके हवाले कर दिया. यह अविश्वसनीय दृश्य देख शर्मा आंटी की फटी आंखें जैसे कह रही थी, इतना बडा दिलदार दानी उन्होंने अपने पूरे जीवन में नहीं देखा… कितनी मेहनत लगती है गुझिया बनाने में… तीन घंटे लग गए थे फिर भी उनसे बमुश्किल 15 गुझिया ही बन पाई थी. वो भी ऐसे छिपते-छिपाते बनाई और खाई गई जैसे जच्चा की छुआनी हो… मजाल थी जो पड़ोसी से लेकर कामवाली बाई तक कोई उसकी महक भी सूंघ पाया हो… और एक ये महाशय हैं, होममेड गुझिया, वो भी इतनी सारी, यू ही बांट दी, माथे पर बल तक न पडे… बड़ा जिगर है भई…
“वाह, उम्म्… अति स्वादिष्ट…” मुंह में जैसे-जैसे गुझिया घुल रही थी, खानेवालो के चेहरे और आंखें ऐसे तृप्त नज़र आ रहे थे जैसे सालों के अकाल के मारो को राजभोग मिल गया हो.
“हमारे उधर तो इनके बिना होली सम्पन्न ही नहीं होती, लीजिए सभी लीजिए भरपूर है.” जो लोग शरमाशरमी में हाथ रोके खड़े थे, खानेवालों के तृप्त चेहरे देख वे भी टूट पडे… यह अद्भुत नज़ारा दूर खड़े पुरुषों-महिलाओं की टोली ने भी देख लिया और उनके कदम भी स्वचालित से उस ओर बढ़ चले… सबने जमकर गुझिया का आनंद लिया और भर-भरकर तारीफ़ें की… फिर वह अपरिचित ढोलक जमाते हुए बोला, “अरे इस सोसायटी में क्या ऐसी ही सूखी सूखी होली चलती है, कोई नाच-गाना… गाना-बजाना नहीं…”…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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