कहानी- घंटी 1 (Story Series- Ghanti 1)

मांजी की घंटी फिर बजी, तो अजय उठ खड़ा हुआ. दीप्ति ने उम्मीद से उस ओर ताका. किंतु निराशा ही हाथ लगी. अजय टिफिन लेकर निकल चुका था. दीप्ति झुंझला उठी. हर काम की ज़िम्मेदारी उसी की क्यों समझी जाती है? अजय भी तो अपनी मां के पास जाकर पूछ सकते थे कि उन्हें क्या चाहिए? और स़िर्फ पूछ ही क्यों, पकड़ा भी तो सकते थे. दीप्ति को आश्‍चर्य होता. मांजी की घंटी की तीव्रता और पुनरावृत्ति उसे इतना उद्विग्न कर देती है, किंतु अजय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

सवेरा होते ही दीप्ति की बंधी-बंधाई दिनचर्या आरंभ हो गई थी. कई बार उसे लगता था, न कभी सूरज उगना छोड़ेगा और न कभी उसकी दिनचर्या बदलेगी. वही फे्रश होकर पति और बेटे का पहले नाश्ता, फिर टिफिन तैयार करना. बीच में मांजी को बैठाकर चाय पकड़ाना और ख़ुद की ठंडी हो चुकी चाय को एक घूंट में गले से नीचे उतारकर सवेरे की चाय की खानापूर्ति करना. इन सबमें एक सेकंड भी इधर-उधर होना मतलब स्कूल या ऑफिस में से किसी एक को देरी होना. दीप्ति ने परांठा सेंकने के लिए तवा चढ़ाया ही था कि मांजी की घंटी बज गई.

‘मां, दीप्ति टिफिन तैयार कर रही है. अभी आती है.’ अजय ने मोबाइल पर नज़रें गड़ाए हुए ही चिल्लाकर जवाब दिया. मोबाइल के नीचे ताज़ा अख़बार भी इस उम्मीद में खुला पड़ा था कि कोई उस बेचारे पर भी नज़र मार ले, लेकिन आज भी अजय की मोबाइल पर फिसलती निगाहों ने नाश्ता समाप्त होने पर उसके पन्ने पलटकर उसे हमेशा की तरह कृतार्थ मात्र कर दिया. जिसे सही मायनों में उसकी कद्र थी और जो उसका एक-एक अक्षर पढ़ना चाहती थी, वह तो सब कामों से निवृत्त होते-होते इतना थक जाती थी कि पढ़ने की ऊर्जा ही समाप्तप्राय हो जाती थी. देर रात गए कभी लेकर बैठती भी, तो अजय यह कहकर रखवा देते, “अभी कुछ देर में नया आ जाएगा, वही पढ़ लेना. सो जाओ और सोने दो.”

मांजी की घंटी फिर बजी, तो अजय उठ खड़ा हुआ. दीप्ति ने उम्मीद से उस ओर ताका. किंतु निराशा ही हाथ लगी. अजय टिफिन लेकर निकल चुका था. दीप्ति झुंझला उठी. हर काम की ज़िम्मेदारी उसी की क्यों समझी जाती है? अजय भी तो अपनी मां के पास जाकर पूछ सकते थे कि उन्हें क्या चाहिए? और स़िर्फ पूछ ही क्यों, पकड़ा भी तो सकते थे. दीप्ति को आश्‍चर्य होता. मांजी की घंटी की तीव्रता और पुनरावृत्ति उसे इतना उद्विग्न कर देती है, किंतु अजय के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती.

ठंडी चाय का घूंट हलक से नीचे उतारकर दीप्ति मांजी के कमरे की ओर लपकी. ओह, कांपते हाथों से चाय छलककर बिस्तर और कपड़ों पर फैल गई थी. अपराधी-सी गठरी बनी बैठी मांजी को देखकर दीप्ति के दिल में ढेर सारी सहानुभूति उमड़ आई.

“अरे, आप बोल देतीं न कि चाय गिर गई.” मांजी को संभालते दीप्ति अपनी ही अपेक्षा पर शर्मिंदा हो उठी. मां आजकल बोलते हुए इतना अटकने और हांफने लगी हैं कि ख़ुद उन दोनों ने ही उन्हें आवाज़ लगाने की मनाही कर रखी है और समाधान के तौर पर पूजावाली घंटी उनके पास रख दी है.

यह भी पढ़ेमहिलाएं बन रही हैं घर की मुख्य कमाऊ सदस्य (Women Are Becoming Family Breadwinners)

“आपने चाय पी भी या सारी गिर गई?”

“स…ब…गिर….”

“कोई बात नहीं. मैं दूसरी बनाकर लाती हूं.” मांजी को कांपते हाथों से बिस्तर झाड़ते देख दीप्ति ने उन्हें रोक दिया.

“सुनीता आनेवाली है. अभी सब कर देगी.”

पड़ोस से खटर-पटर की तेज़ आवाज़ें आने लगीं, तो दीप्ति ने दोनों कानों पर हाथ धर लिए. उफ़्फ़! एक तो इस रिनोवेशन के मारे नाक में दम है. जाने कब ख़त्म होगा.’ बड़बड़ाती दीप्ति रसोई में जाकर चाय बनाने लगी, तब तक सुनीता आ गई. उसे देखकर दीप्ति के चेहरे पर सुकून बिखर गया.

“चाय गिरा दी है, संभाल ज़रा. मैं दूसरी चाय बनाकर ला रही हूं. अब तू ही पिला देना. उन्हें मत पकड़ाना.” खौलती चाय के साथ बीते समय की स्मृतियां दीप्ति के स्मृतिपटल पर दस्तक देने लगीं. जब दीप्ति इस घर में दुल्हन बनकर आई, तब मांजी यानी सासू मां कितनी फिट थीं. दीप्ति के सुनने में आया था कि शादी की सारी तैयारियां उन्होंने अकेले ही कर ली थीं. पूरे घर की व्यवस्था उन्होंने इतनी चुस्ती-फुर्ती से संभाल रखी थी कि दीप्ति देखकर दंग रह जाती थी. कामकाजी बहू से उन्हें कोई परेशानी नहीं थी. बेटे अजय की तरह वे उसके लिए भी नाश्ता-टिफिन सब तैयार कर देती थीं. दीप्ति को संकोच होता तो वे उसे लड़ियाने लगतीं, “मुझे सास नहीं, अपनी मां समझा कर. मुझे अच्छा लगेगा यदि तू अधिकारभाव से मुझसे कुछ मांगेगी या कहेगी.”

अजय तो घर के प्रति पहले ही लापरवाह था. अब दीप्ति ने उसके कपड़े-मोजे आदि निकालने की ज़िम्मेदारी भी संभालकर उसे और भी लापरवाह बना दिया. मांजी शिकायत भी करतीं और बेटे-बहू का प्यार देखकर ख़ुश भी होतीं. उनकी ख़ुशी तब दोगुनी हो गई जब दीप्ति के पांव भारी हुए. दीप्ति तो आख़िरी महीने तक ऑफिस जाना चाहती थी. लेकिन डॉक्टर ने जटिल केस बताते हुए बेडरेस्ट की सलाह दी, तो घरवालों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई थीं.

     संगीता माथुर

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Usha Gupta

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