कहानी- घंटी 2 (Story Series- Ghanti 2)

दीप्ति को लगता घंटी आ जाने से मांजी की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं. घंटी उनके लिए भले ही राहत लेकर आई हो, दीप्ति के लिए तो सिरदर्द बन गई थी. सोते-जागते उसके कानों में घंटी की आवाज़ ही गूंजती रहती. ज़रा-सा अनसुना करने पर घंटी की आवाज़ तीव्रतर हो जाती और दीप्ति के पहुंचने तक बजती ही रहती. झुंझलाहट से भरी दीप्ति सोचने पर मजबूर हो जाती कि इतना मरियल शरीर, जो कि करवट भी स्वयं नहीं ले पाता, एकाएक इतनी ज़ोर से घंटी बजाने की ताकत कहां से जुटा लेता है? हालांकि यह झुंझलाहट कुछ पलों की ही होती थी. मांजी के पास पहुंचकर, उनकी ज़रूरत जानकर यह सहानुभूति में तब्दील हो जाती थी.

“बेटी, नौकरी ज़रूरी नहीं है. अपने स्वास्थ्य की फिक्र कर. मैं संभाल लूंगी सब.” मांजी ने हौसला दिया था. आरंभ में मेडिकल, फिर बिना वेतन और अंतत: दीप्ति को बेमन से नौकरी छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा था.

“प्राइवेट नौकरी तो घर की खेती होती है. जब तू करने लायक हो, दूसरी कर लेना.क्यों चिंता करती है? इस अवस्था में तेरा ख़ुश और चिंतामुक्त रहना ज़्यादा ज़रूरी है.” मांजी की दिलासा और हौसलाअफज़ाई से दीप्ति को तब बहुत सहारा मिलता था. यह शायद मांजी की अतिशय देखरेख ही थी कि इतने जटिल केस के बावजूद दीप्ति सामान्य प्रसव से पार्थ को जन्म दे पाई थी. अभी सब भरपूर ख़ुशियां भी न मना पाए थे कि डॉक्टर ने अगली चेतावनी दे दी. डॉक्टर के अनुसार बच्चा बहुत कमज़ोर था और उसे भरपूर देखरेख की आवश्यकता थी. मांजी ने एक बार फिर कमर कस ली थी. उनकी हिम्मत देख दीप्ति और अजय को भी जोश आ गया था. पार्थ के दो साल का होते-होते डॉक्टर ने उसे भी हरी झंडी दिखा दी थी. दीप्ति ने फिर से नौकरी शुरू करने का मानस बनाना आरंभ ही किया था कि स्वस्थ, हंसमुख मांजी को अचानक ब्रेनस्ट्रोक हो गया. पूरा परिवार हिल गया था. यदि नींव ही डगमगा जाए, तो इमारत का अक्षुण्ण खड़े रहना कैसे संभव है?

समय रहते मांजी को चिकित्सा उपलब्ध हो जाने से जान तो बच गई, पर शरीर की सारी ऊर्जा निचुड़-सी गई थी. बिना किसी सहारे के उठना-बैठना भी उनके लिए दूभर हो गया था. हाथ-पांव कमज़ोरी के कारण कांपते रहते थे. मुंह से कोई शब्द निकालने में इतना प्रयास करना पड़ता कि शरीर पस्त हो जाता. इसके बाद भी निकले टूटे-फूटे शब्दों को जोड़कर समझने में सामनेवाले को भारी मशक्कत करनी पड़ती थी. हर व़क्त मांजी के पास बने रहना संभव नहीं था. निदानस्वरूप पूजा की घंटी उनके पास रख दी गई. पार्थ का नर्सरी में एडमिशन हो जाने से दीप्ति का कार्यभार कुछ हल्का हुआ था, पर मांजी के बिस्तर से लग जाने से उसे कुछ भी सूझना बंद हो गया था.

सवेरे उन्हें तैयार करने और एकबारगी खिला-पिला देने के लिए सुनीता नामक नर्स की व्यवस्था हुई, तो दीप्ति को थोड़ी सांस आई. पर फिर भी दिनभर उन्हें संभालते वह बेतरह थक जाती थी. कभी मांजी के हाथ से खाते हुए चम्मच छिटक जाता, कभी पानी का ग्लास खाली, कभी बाथरूम जाने की हरारत, कभी ठंड, तो कभी पसीना… दीप्ति को लगता घंटी आ जाने से मांजी की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं. घंटी उनके लिए भले ही राहत लेकर आई हो, दीप्ति के लिए तो सिरदर्द बन गई थी. सोते-जागते उसके कानों में घंटी की आवाज़ ही गूंजती रहती. ज़रा-सा अनसुना करने पर घंटी की आवाज़ तीव्रतर हो जाती और दीप्ति के पहुंचने तक बजती ही रहती. झुंझलाहट से भरी दीप्ति सोचने पर मजबूर हो जाती कि इतना मरियल शरीर, जो कि करवट भी स्वयं नहीं ले पाता, एकाएक इतनी ज़ोर से घंटी बजाने की ताकत कहां से जुटा लेता है? हालांकि यह झुंझलाहट कुछ पलों की ही होती थी. मांजी के पास पहुंचकर, उनकी ज़रूरत जानकर यह सहानुभूति में तब्दील हो जाती थी. एक बार तो मांजी को फिर से हल्का स्ट्रोक आया हुआ था. डॉक्टर ने ऐसी आपातकालीन स्थिति के लिए एक टैबलेट दे रखी थी, जो तुरंत उनके मुंह में रख देनी होती थी. मांजी को अब ऐसे किसी ख़तरे का पूर्वाभास हो जाता था और वे तुरंत घंटी बजाकर दीप्ति को बुला लेती थीं. इतनी सेवा-सुश्रुषा के बाद भी मांजी की स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो रहा था, बल्कि स्वास्थ्य

दिन-प्रतिदिन गिरता ही जा रहा था. इसके साथ ही तबियत पूछने आनेवाले रिश्तेदारों की घर में आवाजाही बढ़ती जा रही थी. दूरदराज़ से मांजी के भाई-बहन, भतीजे-भांजियां आते, तो स्वाभाविक रूप से घर पर ही रुकते. दीप्ति का कार्यभार दुगुना, तिगुना, चौगुना तक हो जाता. पर स्थिति की नज़ाकत समझते हुए वह सब कार्यभार संभाले हुए थी.

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आज तड़के ही भोपालवाले मामाजी-मामीजी को नाश्ता करवाकर, साथ खाना बांधकर रवाना करने के बाद दीप्ति को थकान के मारे चक्कर-सा आने लगा था. आज सर्दी भी कड़ाके की थी. अजय और पार्थ का टिफिन तैयार कर वह फिर से रजाई में दुबक गई. अत्यंत गहरी नींद में उसे मांजी की घंटी बजने का-सा आभास हुआ, तो वह रजाई में और अंदर सरक गई. अजीब है वह भी! सपने में भी उसके कानों में घंटी ही बजती रहती है. लगभग दो घंटे की गहरी नींद लेकर दीप्ति उठी, तो काफ़ी फे्रश महसूस कर रही थी. खिड़की से छन-छनकर आती धूप बेहद भली लग रही थी. एक भरपूर अंगड़ाई लेकर दीप्ति ने बिस्तर छोड़ा. अजय और पार्थ जा चुके थे. पर पूरा घर बिखरा पड़ा था. लेकिन नींद पूरी हो चुकने के कारण आज दीप्ति को झुंझलाहट नहीं हुई. मैले कपड़े मशीन को सुपुर्द करने जाते व़क्त उसने मांजी के कमरे में झांका. उढ़की हुई रजाई में कोई हलचल न देख उसने राहत की सांस ली.

     संगीता माथुर

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