कहानी- हस्तक्षेप 1 (Story Series- Hastakshep 1)

गाहे-बगाहे उसके मुंह से विरोध के स्वर फूटने लगे, “आख़िर कब तक चलेगा यह?”

“मेरे परिवार के लोग हैं, कोई ग़ैर नहीं. उनका अधिकार है मुझ पर.”

“लेकिन आपने तो कहा था कि उन लोगों से कोई वास्ता नहीं रहेगा. जब आपके घरवाले डेरा डालेंगे, तो मेरे घरवाले भी जब तक जी चाहेगा यहां रुकेंगे.”

“यह मेरा घर है. जिसे चाहूंगा, वही आएगा.”

“हिम्मत हो, तो रोककर देख लीजिए मेरे घरवालों को.” मीना ने जल्द ही इस धमकी को चरितार्थ भी कर दिखाया.

मैं, प्रमोद जब कॉलेज से घर लौटा, तो बाहरी दरवाज़े पर ताला पड़ा मिला. अंदर खाने की मेज़ पर कॉपी से फाड़े गए काग़ज़ पर लिखा था- ‘अब और सहन नहीं कर सकती, हमेशा के लिए अपने घर जा रही हूं. वो लोग पूरी उम्र मुझे और मेरे बच्चे को पाल लेंगे.’ कल जो विवाद हुआ था, उसी की परिणति थी यह. माना कि आज विवाद उग्र हो उठा था, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि अपना घर छोड़…

मीना के साथ शादी को 4 साल हो गए हैं. लव मैरिज की थी हमने, जिसे दोनों परिवारों ने स्वीकार नहीं किया था. हम दोनों नैनीताल में एम.एससी. में क्लासफेलो थे. जाति बंधन तोड़कर अनजाने ही एक-दूसरे के दिलों में जगह बनाई थी, घरवालों के तमाम विरोधों के बावजूद. मैं पिछड़ी जाति का था और मीना शुद्ध ब्राह्मण. मैं मानता हूं कि इस तरह से उसने मुझे पाने के लिए कहीं ज़्यादा त्याग किया था. मुझे याद है, फाइनल ईयर के अंतिम दिनों में कॉलेज के पीछे पहाड़ की आड़ में धुंध से लिपटी मीना अलगाव के डर से सहमी हुई थी. उसकी आंखों में आंसू थे, “मैंने घरवालों के सम्मान और अरमानों का गला घोंटकर आपको चुना है. कभी मुझसे अलग मत होना.”

“तुम्हारे लिए मैं सब कुछ छोड़ सकता हूं. कुछ भी कर सकता हूं.” उसे बांहों में जकड़ते हुए मैंने दिलासा दिया. साथ ही यह वचन भी दिया कि उसकी ख़ातिर अपने घरवालों को भी छोड़ दूंगा. डिग्री लेने के बाद मीना अपने घर चली गई और मैं अपने. लेकिन फोन पर और कभी-कभी नैनीताल में आकर दोनों मिलते रहते. बाद में मीना कॉन्वेंट स्कूल में अध्यापिका बन गई और मैं राजकीय इंटर कॉलेज में प्राध्यापक. दोनों के घरवालों ने हम दोनों की दृढ़ इच्छा को ध्यान में रखते हुए अपनी इच्छाओं को दबा डाला और कुछ विरोध करने के बाद विवाह कर दिया, लेकिन यह ताना देने से भी नहीं चूके कि कर लो अपनी मर्ज़ी, दोनों को इसका परिणाम भुगतना होगा. हम अपने भावी संबंधों की मज़बूती को लेकर आश्‍वस्त थे, इसलिए इन तानों का हम पर कोई असर नहीं हुआ.

लेकिन जैसा सोचा था वैसा हुआ नहीं. साथ रहने के लिए मीना ने अपना स्थानांतरण मेरे पास करवा लिया. सोचा था कि हम दोनों आनंद का जीवन गुज़ारेंगे. कृष्णा के आने के मौ़के पर परिवारवालों के साथ बातचीत शुरू हो गई. मुझे भी होम सिकनेस ने आ घेरा. उनके प्रति मुझे अपने कर्तव्य याद आने लगे. बीच-बीच में मैं घर भी जाने लगा और वो लोग भी आने लगे. इस पर मीना ने थोड़े दिनों में अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया.

गाहे-बगाहे उसके मुंह से विरोध के स्वर फूटने लगे, “आख़िर कब तक चलेगा यह?”

“मेरे परिवार के लोग हैं, कोई ग़ैर नहीं. उनका अधिकार है मुझ पर.”

“लेकिन आपने तो कहा था कि उन लोगों से कोई वास्ता नहीं रहेगा. जब आपके घरवाले डेरा डालेंगे, तो मेरे घरवाले भी जब तक जी चाहेगा यहां रुकेंगे.”

“यह मेरा घर है. जिसे चाहूंगा, वही आएगा.”

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“हिम्मत हो, तो रोककर देख लीजिए मेरे घरवालों को.” मीना ने जल्द ही इस धमकी को चरितार्थ भी कर दिखाया. कारण, पहले मेरे भइया-भाभी और बच्चे आ गए. ज़िद में मीना ने अपना पूरा परिवार बुलवा लिया. दोनों परिवारों में तनातनी तो थी ही. जून के पूरे महीने खींचातानी बनी रही. जब स्कूलों के खुलने का समय आया, तो दोनों परिवार लौटे, लेकिन महीनेभर जो घुटन मैंने महसूस की थी, वह उबलकर बाहर आ ही गई, “थोड़ा सब्र करके बुला लेतीं, तो क्या बिगड़ जाता. अपनी ज़िद करके ही मानीं.”

“पिछले साल की छुट्टियों का हिसाब लगा लो, तुम्हारे ही घरवाले पड़े रहे. न जाने क्या दुश्मनी है मेरे घरवालों से.”

“तुमसे ज़्यादा यह मेरा घर है. मेरे घरवाले आएंगे, तुम उन्हें रोककर देखो.”

धीरे-धीरे दोनों परिवारों का जमघट लगने लगा. कभी-कभी तो दोनों परिवार एक ही समय पर आ जाते. तब हम दोनों में अघोषित युद्ध और बढ़ जाता. अतिथियों के जाने के बाद तो घर में कई दिनों तक वाक्युद्ध चलता रहता. ऐसे ही दोनों के परिवारों के सदस्यों के आने-जाने से उपजे तानों व नोक-झोंक को समायोजित करते-करते चार साल बीत गए. हमारे बीच चल रही तकरार अम्मा, बाबूजी और परिवार के दूसरे लोगों से छुपी नहीं रह सकी. पिछले रविवार को जब मैं घर गया, तो बाबूजी, अम्मा और बड़े भैया बोले, “कैसे जीएगा ऐसे? यह औरत तो तुझे बर्बाद कर देगी. पीछा छुड़ा जैसे भी हो. इससे तो अच्छा है कि तू यहीं रहकर आ-जाकर नौकरी कर ले. आने-जाने में थोड़ी परेशानी तो होगी, लेकिन कम से कम मन की शांति तो मिलेगी.” मैं चुप रहा. मन में भी इन बातों को लेकर जब वापस मीना के पास लौटा, तो वह नाराज़ बैठी थी. घर में क़दम रखते ही बरस पड़ी, “पड़ गई कलेजे में ठंडक! सबने जी भरकर मेरी ख़ूब बुराइयां की होंगी. उन्हीं से चिपटे रहना था, तो शादी क्यों की?”

“मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता. तुमने तो घर में जीना हराम कर रखा है. अगर वो लोग अपनापन न देते, तो कभी का मर गया होता.”

“तो रहते उन्हीं के पास, यहां आए ही क्यों?”

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“तुम क्यों नहीं चली जातीं. रात-दिन मम्मी-पापा रटती रहती हो. हमेशा के लिए उन्हीं के पास चली जाओ. मुझे भी शांति मिलेगी. मैं तो तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहता. कृष्णा और नौकरी की ख़ातिर टिका हूं.” मैं बड़बड़ाता हुआ घर से बाहर निकल गया. बाहर ही खाना खाकर जब देर रात घर लौटा, तो सन्नाटा पसरा हुआ था. मीना बेडरूम में लेटी थी. पता नहीं उसने खाना खाया था या नहीं. खिसियाहट में मैंने पूछना गंवारा भी नहीं समझा. इसी विवाद से उपजे क्रोध को मीना ने दूसरे दिन मायके जाकर चरितार्थ कर दिया.

एक सप्ताह तक मीना की कोई ख़ैर-ख़बर नहीं मिलने पर घर उजड़ा-उजड़ा-सा लगने लगा. सारी दिनचर्या ही बिगड़ गई. हारकर बाबूजी और अम्मा के पास चला गया और वहीं से आ-जाकर नौकरी करने लगा. अपना घरौंदा छोड़ने पर उदासीनता इतनी बढ़ गई कि उसमें दीया-बत्ती करने के लिए भी जाने की इच्छा नहीं हुई.

जब मैं अपने परिजनों के बीच पहुंचा था, तो घर भरा-पूरा लगा था.

असलम कोहरा

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Usha Gupta

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