… मैं मन ही मन सोच रहा था कितना आत्मविश्वास भरा है इस लड़की में, यह हमारी बहू बन सकती है.
“परिवार में और कौन-कौन है, क्या करते हैं सब लोग?”
यह प्रश्न शुभांगी का था. मैं ऐसे प्रश्न की उम्मीद कर ही रहा था.
“मेरा एक छोटा भाई है, वह एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में काम करता है, अभी उसकी पोस्टिंग ज्यूरिख में है. मेरे मम्मी-पापा का अपना एक छोटा-सा इंडियन स्टोर है, शिकागो से सटे एक उपनगर में हमारा अपना घर भी है.”
हमारी बातचीत चल ही रही थी कि पड़ोस के मिस्टर मेहरा की आवाज़ आई, “अरे सिंह साब, बाहर आओ यार, देखो राव साब और फ़िरोज़ मियां आए हैं. आओ, हमारे यहां बैठते हैं, तुम्हारे यहां तो मेहमान आया है न.”
हमारे इस कॉलोनी में हिन्दुस्तानी मूल के लोग काफ़ी ज़्यादा हैं और सब आपस में घुल-मिल कर एकदम हिन्दुस्तानी की तरह रहते हैं; तभी तो हमें ख़ुद से ज़्यादा पड़ोसी के घर में झांकने में मज़ा आता था. ख़ैर, मुझे तो अब बाहर निकलना ही था; ज्यों उठा शिवांगी बोल पड़ी.
“बस, तुम्हें तो मौक़ा मिलना चाहिए. समझती हूं मेहरा के घर बैठ तुम लोगों की ड्रिंक्स पार्टी शुरू हो जाएगी. अरे यार, इतने दिनों पर बेटा आया है. संचिता आई है, तुम्हे यहां सब के साथ समय गुज़ारना चाहिए, तो तुम चल पड़े अपनी मजलिस लगाने.”
रोहन मुस्कुराया और संचिता हंस पड़ी.
“जाने दीजिए आंटी, अंकल के दोस्त लोग हैं उनके साथ रहेंगे, तो उन्हें भी अच्छा लगेगा. हम लोग हैं न बातचीत करने को.”
मैं मां-बेटे और शायद भावी बहू को वहीं छोड़कर मेहरा, राव और फ़िरोज़ के साथ महफ़िल ज़माने बाहर निकल आया. रात को लगभग 10 बजे जब लौटा, तब तक ये तीनों जमे हुए थे. मुझे देख इनकी गप-गोष्ठी समाप्त हुई. फिर हमने साथ डिनर किया.
संचिता ने अपनी आंटी के कमरे में लगे दूसरे बेड पर कब्ज़ा जमा लिया. रोहन अपने कमरे में और मैं लाइब्रेरी में. अगले दिन हम काफ़ी व्यस्त रहे. शुभांगी ने पहले से ही सारा प्रोग्राम तय कर रखा था. सुबह गल्वेस्तन के बीच पर जाने का प्रोग्राम था और दोपहर में जॉनसन स्पेस केंद्र.
हम सारा दिन घूमते रहे, दिन का भोजन और रात का डिनर बाहर ही हुआ; देर रात वापस लौटे. अगले दिन तड़के उठ कर दोनों बच्चों को शिकागो के लिए निकलना था. हम दोनों ने आज की छुट्टी ले ली थी. सुबह उन्हें एयरपोर्ट छोडने गए. वहां संचिता ने शुभांगी को गले लगाया और मेरा चरण स्पर्श किया; शुभांगी को उसने पूरी तरह से प्रभावित कर दिया था. लौटते समय पूरे रास्ते वह संचिता का ही गुणगान करती रही.
घर पहुंचने पर जब हम चाय पर बैठे, तब मैंने पूछा,
“तुमने संचिता के परिवार के बारे में पूछताछ की?”
“अरे पूछना क्या था. सुना नहीं कितने संघर्ष करते हुए आगे बढ़े हैं वे सब. जानते हो वे सब हमारे पड़ोस से ही हैं, पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के एक गांव से आते हैं सब. बॉर्डर से मुश्किल से पांच किलोमीटर की दूरी पर है उनका गांव. मगर उसके पिता ने शुरू में नौकरी तो की लखनऊ में. वहीं उसका जन्म हुआ था, वहीं स्कूल गई और बाद में, बताया ही था उसने कि वे अफ्रीका चले गए.”
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“अरे यार, यह तो ठीक है, पर उसके खानदान के बारे में कुछ नहीं पूछा?”
मैंने जब यह बात कही, तो संचिता ने हंसते हुए कहा,
“क्या यार प्रोफेसर कैसी बात करते हो, अब अमेरिका में उसके खानदान को कौन पूछता है.”
“अच्छा चलो यह तो पूछा होगा उसके पिता और भाई का नाम क्या है.”
“हां, पूछा, उसके पिता हैं बनवारी लाल वाल्मीकि और भाई का नाम उसने राजीव रंजन बताया था.”
पिता का नाम सुनते मैं सन्न हो गया…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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