मैं झुंझलाकर बोली, “समय ही तो नहीं है मेरे पास. अब तो मेरी पढ़ाई भी पूरी हो गई है. अब क्या बहाना बना कर रोकूं अपनी शादी? और फिर अभी मेरी छोटी बहन रिया भी तो है.”
वह बात बदलते हुए बोला, “अच्छा छोड़ो यह बात, सुनो मुझे कंपनी के काम से सिंगापुर जाना है.”
“समीर तुम जाने से पहले बात करके जाओगे न?” वह उलझन भरे स्वर में बोला, “कह नहीं सकता, पर कोशिश ज़रूर करूंगा.”
“ठीक है, तुम मेरे घरवालों से बात करने अभी मत आओ, पर जाने से पहले तुम्हें अपने घरवालों को मेरे बारे में बताना होगा, ताकि मैं आश्वस्त हो सकूं. अपने घरवालों से कह सकूं कि मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगी. बोलो कर सकोगे बात?” कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद उसने कहा, “ठीक है, मैं करूंगा बात…”
तब एक दिन मैंने उससे कहा, “समीर, तुम इतने अच्छे कवि हो, पेंटर हो, फिर इसी को अपना प्रो़फेशन क्यों नहीं बना लेते? क्यों नौकरी के लिए ठोकरें खा रहे हो?”
वह हंस कर बोला, “मैं भी यही चाहता था पीहू, पर मां-पापा का सपना है कि मैं भी बड़े भैय्या की तरह नौकरी ही करूं. उनका मानना है कि कला संतुष्टि तो देती है, पर पेट नहीं भरती.”
मैंने उससे असहमत होते हुए कहा, “पता नहीं समीर, पर मैं तुम्हें एक पेंटर के रूप में ही देखना ज़्यादा पसंद करूंगी. तुम्हारी पेंटिंग की प्रदर्शनी लगे, लोग तुम्हें सराहें, कलाकार के रूप में जानें, मेरा यही सपना है समीर.”
“कुछ और समय तक नौकरी नहीं मिली न पीहू, तो तुम्हारा यही सपना सच कर दिखाऊंगा.” उसने कहा था.
जल्दी ही समीर को एक बड़ी कंपनी में नौकरी मिल गई थी. अपने काम में व्यस्त समीर को अब मेरे लिए कम ही समय मिल पाता था, पर मैं उसका सपना पूरा होते देख ख़ुश थी. तभी पता नहीं कैसे, मेरे घरवालों को हमारे रिश्ते के बारे में पता चल गया था, मां ने कहा, “कुछ सोचा है कि अगर तुम अंतर्जातीय शादी करोगी तो रिया का क्या होगा? और चलो हम मान भी जाएं तो क्या उसके घरवाले अपना लेंगे तुझे?” मैंने शांत स्वर में कहा, “मां, आप चिंता मत करो, अगर वह सच में प्यार करता है, तो न स़िर्फ अपने घरवालों को मनायेगा, बल्कि ख़ुद आकर आपसे मेरा हाथ भी मांगेगा. मुझे भरोसा है उस पर…” मां ने पूछा था, “पर अगर ऐसा न हुआ तो…?”
“अगर वह सारे रीति-रिवाज़ निभाते हुए मुझे लेने न आया, तो जैसा आप कहोगे, वही करूंगी.”
पापा ने मेरा साथ देते हुए कहा था, “ठीक है पीहू, जैसा तुम ठीक समझो. हम तो बस तुम्हारी ख़ुशी चाहते हैं.”
जब मैंने समीर को इस बारे में बताया, तो समीर ने कहा, “मैं अभी अपने घरवालों से बात नहीं कर सकता पीहू. अभी तो मैं अपनी नौकरी में ठीक से सेट भी नहीं हो पाया हूं, थोड़ा और व़क़्त दे दो मुझे पीहू.”
मैं झुंझलाकर बोली, “समय ही तो नहीं है मेरे पास. अब तो मेरी पढ़ाई भी पूरी हो गई है. अब क्या बहाना बना कर रोकूं अपनी शादी? और फिर अभी मेरी छोटी बहन रिया भी तो है.”
वह बात बदलते हुए बोला, “अच्छा छोड़ो यह बात, सुनो मुझे कंपनी के काम से सिंगापुर जाना है.”
“समीर तुम जाने से पहले बात करके जाओगे न?” वह उलझन भरे स्वर में बोला, “कह नहीं सकता, पर कोशिश ज़रूर करूंगा.”
“ठीक है, तुम मेरे घरवालों से बात करने अभी मत आओ, पर जाने से पहले तुम्हें अपने घरवालों को मेरे बारे में बताना होगा, ताकि मैं आश्वस्त हो सकूं. अपने घरवालों से कह सकूं कि मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगी. बोलो कर सकोगे बात?” कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद उसने कहा, “ठीक है, मैं करूंगा बात…”
सिंगापुर जाने से पहले वह मुझसे मिलने आया. मैंने पूछा, “समीर, क्या तुमने बात की घर पर…?”
उसने बुझे स्वर में कहा, “हां पीहू… बात की है मैंने… पर मेरी बात सुनते ही मां-पापा भड़क उठे. बहुत बुरा-भला कहा मुझे. वे इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हो रहे पीहू.” समीर की बात सुन मैं कांप उठी.
उसका हाथ थाम कर कहा, “अब क्या होगा समीर, क्या करेंगे हम?”
“कुछ नहीं सोचा कि क्या करूंगा! पर पीहू मैं मां-पापा के ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहता… और उनके मानने की कोई उम्मीद नहीं दिखती!”
“समीर?” मैं चौंक पड़ी थी. मैंने उसका चेहरा अपनी ओर उठाया तो उसने नज़रें झुका लीं, उस पल लगा कि सब कुछ ख़त्म हो गया. मैं लड़खड़ा कर वहीं बैठ गई. और समीर बिना कुछ कहे चला गया. जिस समीर के प्यार और भरोसे के बल पर मैं इतनी बड़ी बात कह सकी थी अपने घरवालों से, आज वही समीर अपना वादा, मेरा भरोसा सब तोड़कर चला गया था.
मैं अपने घरवालों से नज़रें भी नहीं मिला पा रही थी. न जाने कितनी बातें थीं, जो फांस बनकर चुभी थीं मन के अंतस में. न जाने कितनी शिकायतें, चाहतें और सवाल उमड़ रहे थे मन में. न जाने कितने आंसू ठहरे हुए थे मेरी पलकों में, पर मैं इतनी असहाय थी कि उन्हें बहा भी न सकती थी, किसी को अपना हाल बता भी न सकती थी. ठीक ऐसे ही व़क़्त पर नील का रिश्ता आया था मेरे लिए. और फिर जल्द ही मैं नील की पत्नी बनकर उसके घर की मर्यादा बन गई…! पर तब से आज तक मुझे बस एक ही सवाल का जवाब न मिलता था कि ‘समीर तुम मेरे दिल का सुकून हो सकते थे, फिर ज़ख़्म क्यों हो गये…?’
दरवाज़े की घंटी बजी तो मैं अपने अतीत के गलियारों से बाहर आई. देखा तो शाम ढल रही थी. कमरे में लाइट जला कर मैंने दरवाज़ा खोला, “नील… तुम आ गए?” नील ने मुस्कुराकर कहा, “कहां खोई थीं सरकार, जो व़क़्त का पता ही नहीं?”
– कृतिका केशरी
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