कहानी- कुछ तो लोग कहेंगे 2 (Story Series- Kuch Toh Log Kahenge 2)

अब स्वाति मां को कैसे समझाए कि उन्हें सारी दुनिया के सोचने, कहने की परवाह है, बस अपने बच्चों की ही परवाह नहीं है. स्वाति उनके लिए सारी दुनिया से टकराने को तैयार है, लेकिन वे ही हर बार उसे पीछे खींच लेती हैं.

 

… “पर मां नीरजा आंटी तो?”
“उनके गीत तू मेरे सामने न ही गाए तो अच्छा है. तुम्हारे महानगरों में होता होगा यह सब. वहां कोई किसी को नहीं जानता. कोई किसी की परवाह नहीं करता. यहां सब देखते हैं, गौर करते हैं, सोचते हैं और मौक़ा मिले तो मुंह पर बोल भी देते हैं.”
आसपास रिश्तेदार जमा थे. इसलिए स्वाति चुप लगा गई थी. लेकिन उसका मन बगावत पर उतर आया था. “आपके सूने भाल और सूनी मांग पर गिद्धदृष्टि रखने वाले ये तथाकथित लोग क्या आपके दिल के सूनेपन से वाकिफ़ हैं? आपके एकाकीपन, घुटन की उन्हें परवाह है? आपके माइग्रेन, घुटनों के दर्द के बारे में वे सोचते हैं? कभी डॉक्टर को दिखा लाने, दवा लाने, सिर दबा देने का आग्रह करते हैं? आप एक स्वस्थ, सुखी, अच्छी ज़िंदगी जिएं, इसके लिए वे आपको कुछ सकारात्मक बोल बोलते हैं? नहीं ना! तो फिर इससे तो महानगर के लोग लाख गुना अच्छे हैं. जो कभी किसी के फटे में टांग नहीं अड़ाते. कौन कहां जा रहा है, क्या खा रहा है, क्या पहन रहा है, किससे मिल रहा है, उन्हें कोई लेना-देना ही नहीं होता. वे सबको अपनी ज़िंदगी अपनी तरह से जीने का हक़ देने में विश्‍वास रखते हैं…”
यहां तो उसने ख़ुद को परफ्यूम लगाते वक़्त जरा-सा मां पर छिड़क दिया, तो वे घंटों साड़ी मल-मलकर उसे निकालने का प्रयास करती रहीं. बड़बड़ाती रहीं सो अलग…
“नासमझ है तू! किसी के नाक में ज़रा भी गंध पहुंच गई, तो आसमान सिर पर उठा लेगें.”
कितना शौक था मां को मटन बिरयानी का! घर पर खाना खाते हुए उसने ज़रा-सी बिरयानी मां की प्लेट में क्या परोस दी मां ने प्लेट ही परे सरका दी थी.
“अब यहां कौन देख रहा है मां?”
“भगवान देख रहा है. तू मुझे पाप चढ़ाकर रहेगी.” रोती हुई मां खाना छोड़कर अपने कमरे में चली गईं, तो स्वाति की आंखें भी बरस उठी थीं. बड़ी मुश्किल से फिर भैया और भाभी ने दोनों को मनाकर खाना खिलाया था.
अब स्वाति मां को कैसे समझाए कि उन्हें सारी दुनिया के सोचने, कहने की परवाह है, बस अपने बच्चों की ही परवाह नहीं है. स्वाति उनके लिए सारी दुनिया से टकराने को तैयार है, लेकिन वे ही हर बार उसे पीछे खींच लेती हैं. स्वाति को याद है पापा के बारह दिनों में घर में रोज़ मिठाई, नमकीन आदि बनते थे. रिश्तेदार, पड़ौसी, ड्राइवर, नौकर तक वह गरिष्ठ स्वादिष्ट खाना खाते थे. लेकिन खाने के वक़्त मां के लिए अलग से सादे खाने की थाली लगकर आ जाती थी.

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एक बार सभी को गरम मूंग दाल हलवा परोसते हुए उसने मां की थाली में भी थोड़ा-सा रखना चाहा, तो दूर की ताईजी ने उसे बुरी तरह झिड़क दिया था. ग़ुस्से से तमतमाती स्वाति उन्हें कुछ सुनाने के लिए मुंह खोलना ही चाहती थी कि मां ने चुपके से उसका हाथ दबाकर उसे शांत कर दिया था. फिर रात में अपने पास लेटी स्वाति को वे देर तक समझाती रही थीं. “कुछ दिनों की बात है. फिर सब अपने-अपने घर चले जाएगें. अभी ज़रा धैर्य रख.”

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

अनिल माथुर

 

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