“मां आंटी की तरह क्यूं नहीं हो सकती हैं? उसे और भैया को मां को दुखी और उदास देखकर कितना कष्ट होता है! मां ने ख़ुद ही ख़ुद पर न जाने कितनी बंदिशें लगा रखी हैं? चारदीवारी में सिमटे रहना, न अच्छा खाना, न अच्छा पहनना, न हंसना, न ज़्यादा बतियाना. स्वाति समझा-समझाकर थक चुकी थी.
“सब्ज़ी मार्केट चल रही है स्वाति?.. अच्छा कुछ लाना हो तो बता दे.” नीरजा आंटी का स्वर कानों में पड़ा, तो बालकनी में बाल सुखाती अपने ही ख़्यालों में गुम स्वाति की चेतना लौटी.
“न… नहीं आंटी. कुछ नहीं लाना. शिरीष शाम को ऑफिस से आते हुए सब ले आएगें, बल्कि आपके लिए भी ले आएगें.”
“अरे नहीं! मेरी तो इसी बहाने थोड़ी आउटिंग हो जाती है. विंडो शॉपिंग का लुत्फ़ भी उठा आती हूं. अच्छा अब चलती हूं. लौटकर चाय साथ पीएगें.” अपना नारंगी स्टोल झुलाती नीरजा आंटी निकल गईं, तो स्वाति देर तक उन्हें जाते निहारती रही.
“कितनी ख़ुशनुमा और बिंदास ज़िंदगी जी रही हैं आंटी! बेटी-दामाद इसी शहर में हैं. वे भी संभालने आते ही रहते हैं. लेकिन आंटी तो अपना सब काम ख़ुद ही करना पसंद करती हैं. उल्टे बेटी-दामाद की मदद कर देती हैं. बेटा विदेश उच्च शिक्षा के लिए गया है. कुछ माह में वह भी पढ़ाई पूरी करके लौटनेवाला है. अंकल के अकस्मात गुज़र जाने के कारण वह तो विदेश जाना ही नहीं चाहता था. आंटी के पास ही रहकर कोई नौकरी कर लेने का उसका मन था. किंतु आंटी ने उसका प्रस्ताव सिरे से नकार दिया था. यह सब कुछ बातों बातों में आंटी ने ही उसे बताया था. अंकल को गुज़रे भी लगभग उतना ही वक़्त हुआ था, जितना स्वाति के पापा को गुज़रे हुए. स्वाति जब भी नीरजा आंटी को देखती अनायास ही मां का चेहरा उसकी आंखों के सम्मुख उभर आता. न चाहते हुए भी उसका मन दोनों की तुलना करने लग जाता.
“मां आंटी की तरह क्यूं नहीं हो सकती हैं? उसे और भैया को मां को दुखी और उदास देखकर कितना कष्ट होता है! मां ने ख़ुद ही ख़ुद पर न जाने कितनी बंदिशें लगा रखी हैं? चारदीवारी में सिमटे रहना, न अच्छा खाना, न अच्छा पहनना, न हंसना, न ज़्यादा बतियाना. स्वाति समझा-समझाकर थक चुकी थी. “मां पूरा एक वर्ष होने को आया है. आपको ख़ुद को संभालना होगा. फिर से जीना सीखना होगा. अपने लिए, हमारे लिए…”
अभी स्वाति मायके कज़िन की शादी से होकर लौटी थी. मां सभी कार्यक्रमों में बेमन से सम्मिलित हुई थीं. स्वाति और उसकी भाभी के लाख आग्रह के बावजूद वे पूरी शादी धूल-धूसरित रंगों की साड़ियां पहने रहीं. चटख लाल केसरी रंग, तो दूर वे ख़ुशनुमा गुलाबी, बसंती रंग भी पहनने को राजी नहीं हुईं. आभूषण, श्रृंगार की छोड़ो बेटी के लाड़ से माथे पर छोटी-सी बिंदी लगा लेने के आग्रह पर ही वे भड़क उठी थीं, “पागल हो गई है क्या? लोग क्या सोचेगें?”
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
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