कहानी- कुछ तो लोग कहेंगे 5 (Story Series- Kuch Toh Log Kahenge 5)

स्वाति ख़ुश होने के साथ-साथ हैरान भी थी. आंटी आख़िर क्या साबित करना चाह रही हैं और किसे? उसकी सोच से तो आंटी वाकिफ़ ही हैं.

“अच्छा एक अंतिम सवाल और! यदि लोग क्या सोचेगें यह भी हम ही सोचने लग जाएं, तो फिर लोग क्या सोचेगें?”

 

… “वाकई यह तो बड़ा कारगर उपाय है.” राहत महसूस करती स्वाति ट्रे उठाकर लॉबी में आ गई थी.
“तेरे अंकल का आज़माया हुआ नुस्ख़ा है यह! वैसे एक बरनोल की ट्यूब उन्होंने स्थाई रूप से रसोई में लाकर रखी हुई थी.”
“बहुत ख़्याल रखते थे अंकल आपका.” चाय रखते हुए स्वाति मुस्कुराई. साथ ही उसने कबाब की प्लेट भी आगे बढ़ा दी.
“बहुत ज्यादा! उम्र के इस अंतिम पड़ाव तक आते-आते लगभग हर पति-पत्नी के संबंध ऐसे ही प्रगाढ़तम हो जाते हैं. सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर पूरा वक़्त एक-दूसरे के साथ बिताना भाने लगता है. पर अंदर ही अंदर एक आशंका चौबीसों घंटे भयभीत किए रहती है. यदि कोई भी एक पहले चला गया, तो दूसरा कैसे जीएगा?”
स्वाति सिहर उठी. पापा की विदाई और मां के विलाप के दृश्य आंखों के सम्मुख साकार हो उठे. पर नीरजा आंटी सहज हो उठी थीं.
“पर बेटी, ज़िंदगी के इस कटु सत्य से कब तक मुंह छुपाया जा सकता है? समझदारी तो धैर्य और बहादुरी से सच का सामना करने में ही है. मधुर पलों के साथ व्यतीत हुए आधे से ज़्यादा अतीत की स्मृतियों में ज़िंदगी के चंद बचे पल गुज़ारना हमें इतना भारी क्यूं लगने लगता है? क्या मुझे बिसूरती, सुबकती, विरह की अग्नि में तड़पती देख तुम्हारे अंकल ख़ुश होगें?”
“कदापि नहीं.” स्वाति के मुंह से स्वतः ही निकल गया.
“लेकिन यदि मैं उनके पसंदीदा रंग पहनूं, अच्छा खाऊं, घूमूं-फिरूं, ख़ुश रहूं तो?”
“तो निश्चित रूप से उन्हें ख़ुशी मिलेगी.”
“और मेरे बच्चों को?”
“उन्हें तो और भी ज़्यादा ख़ुशी मिलेगी.” स्वाति के मन की बात तुरंत ज़ुबां पर आ गई थी.
“तो एक स्त्री के लिए अपने पति और बच्चों की ख़ुशियां ज़्यादा मायने रखती है या लोगों की सोच?”
“परिवार की ख़ुशियां सर्वोंपरि हैं आंटी. यह भी कोई पूछने की बात है?” स्वाति ख़ुश होने के साथ-साथ हैरान भी थी. आंटी आख़िर क्या साबित करना चाह रही हैं और किसे? उसकी सोच से तो आंटी वाकिफ़ ही हैं.
“अच्छा एक अंतिम सवाल और! यदि लोग क्या सोचेगें यह भी हम ही सोचने लग जाएं, तो फिर लोग क्या सोचेगें?” चाय का अंतिम घूंट समाप्त कर आंटी टेबल पर कप रखने लगीं, तो पास रखा स्वाति का मोबाइल देख चौंक उठी.

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“अरे, मैं तो बताना ही भूल गई. तुम्हारी मां का कॉल था. तुम चिल्लाई तो मैं खुला ही छोड़कर भाग गई थी. चलो अब इत्मीनान से बात कर लो. मैं चलती हूं. इतनी अच्छी चाय के लिए शुक्रिया.” मुस्कुराकर फोन की ओर इशारा करते हुए आंटी निकल गईं, तो भौंचक्की-सी किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी रह गई स्वाति होश में आई. उसने लपककर फोन उठाया, “हेलो… मां?कैसी हो मां? कैसे फोन किया था? सुन रही हो न?”
“मम… मैं ठीक हूं. वो बस ऐसे…ही! त… तू पूछ रही थी न मेरे जन्मदिन पर किस रंग की साड़ी भेजे? तो तू हल्का बसंती रंग ले लेना.” बात समाप्त कर मां ने झटपट फोन काट दिया था.
अभिभूत स्वाति हैरानी से कभी बंद फोन को देख रही थी, तो कभी खुले दरवाज़े को. जहां से अभी-अभी आंटी बाहर निकली थीं. क्या आंटी सचमुच उसे मां के फोन के बारे में बताना भूल गई थीं?

 

अनिल माथुर

 

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