कहानी- लम्हे 2 (Story Series- Lamhe 2)

वो मेरी ओर बढ़ने लगा. मेरे बहुत नज़दीक आकर उसने हाथ मेरी ओर बढ़ाए. एक अनोखी सिहरन-सी सिर से पैर तक पूरे बदन में दौड़ गई, जिसमें संशय, भय, रोमांच, कुतूहल और न जाने क्या-क्या था. उसने झटके से मुझे उठा लिया और तेज़ी से लाकर बेड पर बिठा दिया. फिर तलवों को सहला दिया. क्या करना चाहता था वो? मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी ख़ुद नहीं समझ पा रही थी कि उसके स्पर्श से मेरे भीतर स्पंदित होनेवाला ये आवेग कौन-सा है. मेरी पलकें क्यों झुक गई हैं, गाल क्यों दहक उठे हैं, मैं भयभीत हिरणी हूं या प्रथम प्रणय निवेदन से आह्लादित किशोरी… आख़िर मेरी झुकी पलकें प्रश्‍नों का समंदर लिए उसकी ओर उठ गईं.

 आख़िर मैं खिड़की से सटी सेटी पर आ बैठी. वो पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) पढ़ाता था और मैं वनस्पति विज्ञान (बॉटनी). तो प्रकृति ही हमारी बातचीत को मनपसंद प्रवाह दे सकती थी और उसने ये काम कर दिखाया. टीन की छत पर शोर बढ़ गया था. अब बारिश मस्त निर्भीक, निर्द्वंद्व आह्लादित हिरणी-सी हो गई थी, जिसे बस निरूद्देश्य कुलांचे भरते ही जाना हो, स़िर्फ जंगल को जीने के लिए…

…बारिश रुकी और चांदनी छिटक आई. “वाह! आपकी खिड़की से दिखनेवाला दृश्य कितना सम्मोहक है. देखिए, जैसे ही बादल कुछ पल को चांद से हटते हैं और चांदनी घाटी में खड़े देवदारों को रुपहले कपड़े दे देती है, तो ये कितने ख़ुश लगने लगते हैं, जैसे किसी समारोह में आए फ़रिश्ते हों, फिर चांद को बादल ढंक लेते हैं और देवदार स्याह होकर उदास रहस्यमई बुतों से लगने लगते हैं और पानी की धाराएं चांदी की लकीरों जैसी लग रही हैं.”

“आप तो अच्छी-ख़ासी कविता कर लेती हैं. कितनी ख़ूबसूरत कल्पना है.”

“इस नयनाभिराम दृश्य को देखकर, तो कोई भी कवि हो जाता, पर मेरे पति यहां होते, तो इसे विशुद्ध बेव़कूफ़ी कहते. उनके लिए तो हर कला भावुक लोगों का पागलपन है और भावुकता दुनिया की सबसे बड़ी बेव़कूफ़ी इसीलिए तो…” एक झटके में इतना बोलकर मैं फिर अचकचाकर रुक गई. वो कुछ पल मुझे एकटक देखते हुए मेरे आगे बोलने की प्रतीक्षा करता रहा, फिर जैसे मेरे चेहरे पर पढ़ लिया हो कि मैं बताना नहीं चाहती थी, बात का रुख बदल दिया.

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उसने कांगड़ी लाकर मुझे दे दी. मैंने आज्ञाकारी बच्चे की तरह पकड़ ली, तो उसने एक शॉल मुझे कान से उढ़ा दिया. बोला, “ज़रूरी है, नहीं तो ठंड लग जाएगी.” उफ़़्फ्! उसे पता नहीं था कि इस निःस्वार्थ फ़िक़्र से वो मेरे मन की बावड़ी में एक-एक सीढ़ी उतरता ही चला आ रहा था.

आकाश फिर पूरी तरह से मेघाच्छन्न हो गया था. हल्की बारिश ने भी निरंतरता बना ली थी, पर मेरा मन खिड़की से हटने का नहीं कर रहा था. मैं उन नन्हीं-नन्हीं बूंदों को देख रही थी. ये बूंदें, जाने कब से अपने ही घर- सागर में तपिश के असह्य होने पर अपना अस्तित्व खोती रहती हैं, फिर आकाश के स्नेह की शीतल छाया से द्रवित हो उसकी छाती पर जमती चली जाती हैं और एक दिन जब अपनी ही पीड़ा का भार असह्य हो जाता है, तो बरस पड़ती हैं और बरसती ही चली जाती हैं. किसी पर्वत से मिलने, किसी तालाब की होने, किसी सागर तक पहुंचने के लिए. क्या इनकी यात्रा का कोई अंत है?…

“हमें बेडरूम में चलना होगा.” सहसा उसका परेशान-सा स्वर सुना.

अभी तक मैं खिड़की पर कुहनी टिकाए घाटी में देख रही थी और वो खिड़की पर पीठ टिकाए एकटक मेरी तरफ़. ये सुनकर मैं उसकी ओर मुड़ी और अचकचाई-सी उसकी आंखों में एकटक देखने लगी. क्या कहना चाहता था वो?

वो बार-बार कुछ कह रहा था, पर मेरे मन में शोर इतना ज़्यादा था कि उसके शब्द इस समय स़िर्फ ध्वनियां थे मेरे लिए. वो मेरी ओर बढ़ने लगा. मेरे बहुत नज़दीक आकर उसने हाथ मेरी ओर बढ़ाए. एक अनोखी सिहरन-सी सिर से पैर तक पूरे बदन में दौड़ गई, जिसमें संशय, भय, रोमांच, कुतूहल और न जाने क्या-क्या था. उसने झटके से मुझे उठा लिया और तेज़ी से लाकर बेड पर बिठा दिया. फिर तलवों को सहला दिया. क्या करना चाहता था वो? मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी ख़ुद नहीं समझ पा रही थी कि उसके स्पर्श से मेरे भीतर स्पंदित होनेवाला ये आवेग कौन-सा है. मेरी पलकें क्यों झुक गई हैं, गाल क्यों दहक उठे हैं, मैं भयभीत हिरणी हूं या प्रथम प्रणय निवेदन से आह्लादित किशोरी… आख़िर मेरी झुकी पलकें प्रश्‍नों का समंदर लिए उसकी ओर उठ गईं.

“आपसे वहां से हटने को कह रहा था, लेकिन आपने सुना नहीं. आप डर जातीं, इसलिए बताया नहीं. ज़मीन जोंक से भर गई है.” ज़मीन का नज़ारा देखकर मैं सचमुच भयभीत हिरनी-सी दोनों बांहें फैलाकर उससे कसकर लिपट गई, “अगर ये बेड पर चढ़ आईं तो?”

“घबराइए नहीं, आप पर कोई जोंक नहीं चढ़ी है. मैंने चेक कर लिया है और बेड के चारों ओर मैं एक कीटनाशक की लकीर खींचकर रखता हूं. ये यहां नहीं आ सकतीं.” उसने बांहों का घेरा कसकर मुझे बच्चों की तरह दुलरा दिया, “डरने की कोई बात नहीं है. मैं हूं न!” डर ख़त्म हुआ, तो मन

अपराधबोध से भर गया. ये क्या कर गई मैं. मैं एक झटके से अलग हुई, तो मेरी अचकचाहट ने उसे भी असहज कर दिया. असहजता ने बातों पर ही विराम नहीं लगाया, मेरे मन को भी आकाश बना दिया. बादलों की तरह घुमड़ रहे बरसने को आतुर बादलों से भरा-भरा.

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“आजकल आप किस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं?” आख़िर मैंने ही फिर एक बार बात बदलकर मन की खिड़की बंद करने की कोशिश की.

“आपने दूर चांदी की धारा जैसी देखी थी न?” मैंने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

भावना प्रकाश

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Usha Gupta

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