कहानी- लव में थ्रिल 2 (Story Series- Love Mein Thrill 2)

आख़िरकार उसने बड़े जतन से हवा में उड़ते दुपट्टे को अपनी बांह में लपेट लिया, मगर बाल अभी भी कभी माथे से, कभी हवा से तो कभी झुमकों से जैसे पकडम-पकडाई का खेल खेल रहे थे. उसने आज लाल रंग नहीं पहना और यहां अकेली खड़ी है, बस यही काफ़ी था मेरे विश्वास को मज़बूत करने के लिए कि वो भी मेरी तरह सिंगल है.

 

 

 

कोई ग़लत इरादा नहीं था मेरा, बस थोड़े समय के लिए ही सही, कुछ ख़ास महसूस करना चाहता था… किसी फिल्मी रोमांटिक हीरो जैसा… चाहता था कोई हो, जिसे मेरा साथ होना सुकून से भर दे और मुझसे दूरी बेचैनी से… और ऐसा नहीं कि मैंने कोशिशें नहीं की, बहुत कोशिशें कीं, मगर कहते हैं ना, समय से पहले और क़िस्मत से ज़्यादा कभी कुछ नहीं मिलता… शायद इसीलिए मुझे भी नहीं मिला था.
दिन खिसकते, सरकते शाम के पहलू में सिमटने लगा. औरों के लिए बेहद रूमानी मगर मेरे लिए कितना उदास, कितना स्याह था वैलेंटाइन डे की ढलती शाम का मंजर… मैं ऑफिस की बिल्ड़िग के टॉप फ्लोर पर बने कैफे से अपनी कॉफी का मग उठा कर बाहर रेलिंग पर जा खड़ा हुआ. बीसवीं मंजिल की ऊंचाई से नीचे चलनेवाले लोग कितने अदना लग रहे थे, जैसे उनका कोई अस्तित्व ही ना हो… और भगवान तो शायद बहुत दूर आसमान में रहता है ना… तो क्या उसे मैं, मेरा दर्द दिखाई देता होगा या उसके लिए मेरा भी कोई अस्तित्व नहीं है? मेरा बुझा-बुझा-सा दिल ना जाने क्या-क्या सोचकर ख़ाक हुआ जा रहा था. तभी आसपास बहती भीनी-भीनी लेडीज़ परफ्यूम की महक ने मेरा ध्यान खींचा.
एक लड़की मुझसे थोड़ा दूर रेलींग पर आ खड़ी हुई थी. आसमानी रंग का चूड़ीदार पहने, एक हाथ में चाय का कप थामे और दूसरे हाथ से हवा में अठखेलियां करते नीले-सफ़ेद लहरिया दुपट्टे को संभालने की कोशिश करते हुए वो बेहद हसीन लग रही थी. मैं उसे कुछ पल यूं ही निहारता रहा. टैरस के इस छोर पर हम दोनों के बीच चल रहा यह दृश्य अगर किसी फिल्म में होता, तो बैकग्राउंड में ज़रूर वायलिन पर कोई मधुर धुन बज रही होती. उसका उड़ता दुपट्टा और उसे समेटने की कवायद के बीच कनखियों से मुझे देखने की अदा स्लोमोशन में दिखाई जाती और मेरे दिल में उठ रहे नाज़ुक एहसासात को उकेरने के लिए भी किसी-न-किसी विज़ुअल तकनीक का ज़रूर इस्तेमाल किया जाता… मगर अफ़सोस, ये हक़ीक़त थी. मेरी हक़ीक़त ये थी कि मुझे उससे पहली नज़र में प्यार जैसा कुछ हो गया था. पता नहीं ये वैलेंटाइन डे का असर था या मेरे अकेलेपन के एहसास का, उसे देख मेरे सूने बदरंग दिल पर कुछ रंगीन लहरें आकार लेने लगी थी… ठीक उसके लहरिया दुपट्टे की तरह…
आख़िरकार उसने बड़े जतन से हवा में उड़ते दुपट्टे को अपनी बांह में लपेट लिया, मगर बाल अभी भी कभी माथे से, कभी हवा से तो कभी झुमकों से जैसे पकडम-पकडाई का खेल खेल रहे थे. उसने आज लाल रंग नहीं पहना और यहां अकेली खड़ी है, बस यही काफ़ी था मेरे विश्वास को मज़बूत करने के लिए कि वो भी मेरी तरह सिंगल है. मगर एक बात जो मुझे हजम नहीं हो रही थी, वो ये कि वह सुकोमल कन्या मुझे देख ऐसे मुस्कुरा रही थी जैसे कोई परिचित हो, मुझे जानती हो और मुझसे बात करना चाह रही हो…
उसकी ये परिचित नज़र मुझे असहज कर गई. पिछले कुछ बुरे अनुभवों के आधार पर मन कहानियां बनाने लगा, कहीं ये मुझमें अपना टैम्प्रेरी वैलेंटाइन तो नहीं ढूंढ़ रही है… एक शाम भर का मन बहलावा, महज़ टाइमपास… माना मैं छह-सात सालों से मैट्रो सिटी में था, मगर मेरी जड़े अभी भी कस्बाई ज़मीन में फैली थी, जो रिश्तों के नाम पर ऐसे खिलवाड़ की सख़्त विरोधी थी. मैं थोड़ा अचकचा गया और उससे नज़रे फेर खड़ा हो गया.

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“ऐस्क्यूज़ मी, आप दिनेश शुक्ला हैं ना, कृष्णचंद्र शुक्ला के भतीजे..?” एक मीठी आवाज़ सिरहन बन मेरे शरीर में फैल गई. ये तो वाक़ई परिचित निकली यानी वो नज़र बुरी नहीं थी. मैं पलटा और ख़ुद को बमुश्किल संभालते हुए बोला, “जी, आप जानती हैं मुझे?”
“जी सीधे तौर पर तो नहीं, मगर आपके कानपुरवाले चाचाजी हैं ना, कृष्णचंद्र शुक्ला… वो मेरे अंकल हैं, मेरे पापा के बहुत अच्छे दोस्त… पिछली बार जब वो घर आए थे, तो मैंने उन्हें बताया था कि मेरी नोएडा में जॉब लगी है, तब उन्होंने आपका फोटो दिखाकर आपके बारे में बताया था कि आप भी नोएडा में जॉब करते हैं…”, उसने सहजता से मुस्कुराते हुए कहा, मगर मेरा दिल इतनी ज़ोर से धड़क रहा था जैसे अभी बाहर निकल गिर पड़ेगा.

अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…

दीप्ति मित्तल

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Usha Gupta

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