… “जब मैं नहीं होता, तो इस आसमान को देखा करना. दिन में बादलों से मेरा हालचाल लेना और रात में तारों से मेरी बात करना.”
“अच्छा बादल और तारे क्या तुम्हारे हैं.” अनुभा हंस देती.
“और क्या! इस ज़मीन पर भले ही हमारे बीच कितनी ही दूरी क्यों न हो, लेकिन आसमान तो दोनों के ही सिर पर एक है, जो बादल उधर से उड़ता है, वही यहां तुम तक पहुंच जाएगा. और रात में जिस तारे को मैं देखूंगा, उसी को तुम भी देखना. फिर तुम्हे अपने आप दिल में यह एहसास हो जाएगा कि मैं तुम्हे ही देख रहा हूं, तुम्हे ही सोच रहा हूं, वो तारा तुम्हे बता देगा.” विभु की इस नादान सी मासूमियत भरी बात पर अनुभा देर तक हंसती रहती. उसकी हंसी से बुरांश खिल उठता. अनुभा की हंसी का चटक रंग बुरांश में भर जाता. सिल्वर ओक की पत्तियां उस हंसी में झूम जाती. वादियों में उस हंसी के झरने बहने लगते. विभु घास पर लेटकर अनुभा को बांहों में भरकर उस हंसी के झरने में भीगता रहता.
“अनु, मेरी अनु, मेरी जान अनु… तुम इतनी देर से क्यों मिली मुझे. कितनी वीरान और नीरस थी मेरी ज़िंदगी इस हंसी के बिना, जिसमें कोई सुर नहीं थे, कोई संगीत नहीं था. तुमने जीवन को मधुर संगीत से भर दिया. दिल के साज पर एहसास के तार छेड़कर प्यार का मधुर गीत बजा दिया. तुम जीवन की रागिनी हो.”
“तुम तो कविता करने लगे. तुम्हे तो कवि होना चाहिए था.” अनुभा कहती.
“वो तो तुमने बना दिया, वरना मैं और मेरा जीवन तो बस पथरीले, कांटों भरे रास्तों का ख़तरनाक सफ़र ही था…” विभु उसके गालों को सहलाकर कहता.
विभु के रोम-रोम से जैसे प्यार का सोता बहता हुआ अनुभा के रोम-रोम को भिगोता रहता. अनुभा चौबीसों घंटे उस प्यार की फुहार में भीगी रहती.
अनुभा ने एक गहरी सांस ली. जीवन जैसे उन्ही पलों में ठहर गया है. उम्र अपने समय से निरंतर आगे बढ़ती जा रही है, लेकिन जीवन उन्ही लम्हों में कहीं ठहरा हुआ है. किसी सिल्वर ओक के पेड़ तले नरम घास पर लेटा हुआ. बुरांश के चटकीले लाल फूलों में खिलता हुआ. रातों में तारों के साए तले जागता हुआ.
डॉ. विनीता राहुरीकर
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